दीपावली परव का परयावरण के साथ घनिषठ समबंध है। इसका पराचीन वैदिक नाम शारदीय नवससयेषटि है। शरद काल की नई फसल का तयौहार। फसल मखय रूप से धान की। इस अनन का उपभोग करने के पहले किसान उसकी यजञ में आहति परदान करते थे। इसी कारण इसका नाम शारदीय नवससयेषटि है। दूसरा नाम दीपावली है। जिस परकार आशविन मास की पूरणिमा वरष की सरवोतकृषट चांदनी रात मानी जाती है  उसी परकार कारतिक मास की अमावसया वरष की अंधेरी रातों में सबसे सघन अंधेरी रात मानी जाती है। इस गहन अंधकार वाली रात का परयावरणकी दृषटि से विशेष महतव है।

वरषा समापत हो चकी है। किसान के घर नई फसल का अनन आया है। वरषा जल से गली-कूचों में नमी के कारण विभिनन परकार के रोगों के कीटाण उतपनन हो जाते हैं जिनका शमन अतयावशयक है। इसके लि कारतिक मास की अमावसया की रात और उस रात के दिन का बड़ा महतव है। दिन के समय नई फसल के अनन का हवन सामगरी व घी से हवन करना वं रात के समय दीपों की अवलियां बनाकर सथान-सथान पर सजाना। उन दीपों में घी व सरसों के तेल का परयोग करना। दिन के हवन से दिन का परयावरण शदध और रात में दीपों की सजावट से विभिनन परकार के रोगाणओं का शमन। हयी न परयावरण की रकषा। इन दोनों का अनयोनयाशरय समबंध है। क दूसरे के पूरक है। मानव का सवासथय शदध परयावरण में ही समभव है। इसके परति हमारे पराचीन ऋषि-मनि बड़े सतरक और जागरूक रहते थे। हम सभी जानते हैं कि परयावरण की रकषा जनसहयोग से ही हो सकती है। दीपावली परव भी इसी भावना से जड़ा हआ है।

इस परव से परयावरण की रकषा कैसे होती है? यह विचारणीय बिनदू है। वासतव में इस दिन परात:काल घर-घर यजञ-हवन होता था। उससे वाय सगंधित हो उठती थी। घी और हवन सामगरी की आहतियों से पूरा परयावरण परभावित होता था कयोंकि उसके सूकषम परमाण वाय का संशोधन कर देते थे। घी में भेदक शकति होने के कारण वाय का परदूषण समापत हो जाता था। विशाल पैमाने पर यह करिया होने के कारण इसका परभाव दूर-सदूर पड़ता था। इसे उतसव का रूप दिया गया ताकि जनता-जनारदन इसमें सौतसाह भाग लें। इसकी तैयारी बहत पहले परारंभ हो जाती थी। लोग अपने घरों, गलियों, राहों, दकानों सबकी सफाई करते थे। घरों की रंगाई-पताई की जाती थी जिससे कि कूड़ा-कचरा साफ हो जा और कीड़े-मकोड़े भी निकल जां। आज भी वैसा किया जाता है। इस परकार हवन और सफाई के माधयम से परयावरण संशोधित हो उठता था।

आज सथितियां बदल गई हैं। सफाई तो जरूर की जाती है किनत उससे कई गना अधिक पटाखों और आतिशबाजियों से वातावरण को अशदध बना दिया जाता है। हवन यजञ तो बहत कम घरों में होता है। थोड़ा बहत होता है तो उसे पटाखे से पाट दिया जाता है। पटाखों से इतना धवनि परदूषण होता है जिसकी कलपना नहीं कर सकते। परधानमंतरी के दवारा लान किया गया। सवचछ भारत अभियान क सराहनीय कदम है पर हम उस अभियान को कैसे सफल बना पांगे। जब खशियों के नाम पर पटाखे और आतिशबाजियों से परदूषण उतपनन करेंगे। दीपावली का पटाखों के साथ दूर का भी संबंध नहीं है। क बीमार वयकति शयया पर पड़ा हआ है। वह कैसे उस परदूषण में जी पागा। छोटे-छोटे अबोध बचचों के कानों में वह धवनि कितना कपरभाव डालती है। फेफड़ों में परदूषित वाय कितना कपरभाव डालती है- यह अनभव सिदघ बात है। किसको कया समाया जा? सभी पढ़े-लिखे हैं और शदघ परयावरण में ससवासथय सबको चाहि।

पहले सरसों के तेल के दीपक व घृतदीप जला जाते थे। आज उनका सथान मोमबततियों और बिजली के बलवों ने ले लिया है। परमपरागत दीपक बहत कम हो ग हैं। परयावरण की दृषटिï से मिटïटी के दीपों का महतव अधिक है कयोंकि जब वे दीप जलते हैं तो गहन अंधेरी रात में उसके परकाश में रोग के कीटाणओं का शमन हो जाता है। इस परकार वातावरण ससवासथयपरद बनता है। रात में जगमगाते दीपों की पंकतियां सवरगिक दृशय उपसथित करती हैं। उसकी सनदरता पर मगध होकर कवियों ने अपनी कलपना के आधार पर अनेकश: कावय सृजन कि हैं। उनहें परतीक मानकर शिकषापरद उपदेश दि हैं। हमें इस परव की वैजञानिकता समनी पड़ेगी, तभी हम इसका महतव सम पांगे।

आरथिक दृषटि से पटाखों पर जितना अपवयय होता है उतना वयय यदि सृजन और सौनदरयीकरण पर किया जा तो शहर, नगर व  गराम और सनदर बन जां और वातावरण को भी कषति न पहंचे। परतिवरष न जाने कितने बचचे दरघटना के शिकार हो जाते हैं, कितने सथानों पर आग भी लग जाती है। काश! इस परव को वैजञानिक ढंग से मनाया जाता तो परयावरण कितना सवचछ बनता। हमारे ऋषियों की परिकलपना वातावरण की शदघता और सवासथय के आधार पर थी। हमें उसे जानना होगा।

आरय समाज इस परव को ऋषि निवारण दिवस/ दीपावली के रूप में मनाता है कयोंकि इसी दिन महरषि दयाननद सरसवती को निरवाण परापत हआ था। उनहोंने वेद जञान के परचार में अपना जीवन आहूत कर दिया। इस महान परव के दिन हम उनके तयाग और कारयों को यादकर महतती परेरणा ले सकते हैं। इस विजञान के यग में भी पाखंड और करीतियां हैं, अंधविशवास है, भरांतियां हैं, रूढिय़ां हैं इनहें दूर करने के लि महरषि दयाननद के बता सनदेश वेदों की ओर लौटो पर चिनतन-मनन करना होगा। उनकी शिकषाओं को आतमसात करना होगा। आज मानव को मानव से ही भय है। न जाने वह कितने करूर करम कर रहा है जिसे पढ़-सनकर हरïदय दहल जाता है। ऋषि निरवाण दिवस पर हमें वरत लेना होगा कि हम उनके दवारा जला ग वेद दीप को घर-घर में पहंचा। वेदों का पठन-पाठन हो। यजञ-हवन हो। मानव मानव बने। आसरीवृततियों का संहार हो। समपरति अरथपरधान यग में मानव ने सारे हथकंडे अरथपरापति में लगा दि हैं। इसी कारण मानवता के मारग पर सननाटा पसरा है। सतय को गरहण करने से वयकति कतराता है। यह निरवाण दिवस आपसे बहत कछ कह रहा है। बहत कछ अपेकषां रखता है।

हम दीपावली के परव को सोतसाह मनां, कयोंकि यह ऋषियों का शोधपूरण परव है। वैजञानिक परव है। परयावरण से जड़ा हआ परव है। जञान के परकाश का परव है। इस दिन हम यजञ-हवन अवशय करें। वेदों का अधययन करें। ऋषियों के गरंथों का सवाधयाय करें। घर, गली, महलले, राह, बाग-बगीचे, दकान, पारक, मैदान सभी को सवचछ और दरशनीय बनां। वाय की निरमलता पर विशेष धयान दें। धवनि परदूषण न करें। रातरि की निसतबधता तीवर धवनियों से आहत होती है। रूगण शयया पर पड़े ह लोग, वृदघ, बचचों को तीवर धवनियां असहनीय लगती है। आस-पड़ौस में मिषठान बांटि। इससे परेमभाव बढ़ेगा। सामूहिक रूप से न अनन के साथ विशाल यजञ कीजि, वातावरण शदघ बनेगा। सारे परव मानव को खशियां और आननद देने के लि हैं यह तभी संभव है, जब हम उन परवों को वैजञानिक ढंग से मनांगे। परयावरण को धयान में रखते ह कारय करेंगे। सवचछता करके उसकी सनदरता को हरदयगम करेंगे। आज की सथिति में दीपावली का यह महान संदेश है। मूक आहवान  à¤¹à¥ˆà¥¤                                                                             

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