हमारा सवरणिम अतीत और देश की अवनति के कारणों पर विचार

संसार में वैदिक धरम व संसकृति सबसे पराचीन है। इसका आधार चार वेद - ऋगवेद, यजरवेद, सामवेद वं अथरववेद हैं। वेदों का लेखक कोई मनषय या ऋषि-मनि नहीं अपित परमपरा से इसे ईशवर परदतत बताया जाता है। वैदिक परमाणों वं विचार करने पर जञात होता है कि सृषटि की रचना होने के बाद जैविक व पराणी सृषटि हई जिसमें वनसपति जगत के बाद पराणी जगत के अनतरगत पश, पकषी तथा कीट-पतंग की अमैंथनी सृषटि हई। इनके बाद अनतिम अमैथनी सृषटि मनषयों की हई। मनषयों की अमैथनी सृषटि की न केवल समभावना है अपित इसका उललेख वैदिक साहितय में उपलबध होता है। हम आजकल देखते हैं कि मनषयेतर जीवयोनियों, पश, पकषियों, कीट व पतंगों आदि को अपना जीवन वयतीत करने के लि किसी भाषा व नैमिततिक जञान की आवशयकता नहीं होती। उनका काम ईशवर से उनहें परापत सवाभाविक जञान से चल जाता है। मनषय जब जनम लेता है तो उसे माता के दगध का पान करने व भूख व पीड़ा होने पर रोने के अतिरिकत किसी परकार का कोई जञान नहीं होता। इससे अधिक वह अपने हाथ पैरों को पटकता रहता है। माता उसे गोद में दगधपान कराने के साथ उसे पचकारती व दलारती है तथा भांति-भांति के गीत व लोरियां आदि सनाती रहती है जिससे वह अपनी माता की आवाज व भाषा से कछ कछ परिचित होना आरमभ करता है। कछ महीनों में वह माता की आवाज को पूरी तरह से समने लगता है और पिता की भी धवनि को अनभव करने लगता है। धीरे-धीरे उसका जञान बढ़ने लगता है। वह न केवल शबदों को सनकर पहचानने लगता है वरन उसे परेरित करने पर वह छोटे-छोटे शबदों को बोलने भी लगता है। आय वृदधि के साथ वह अपनी माता व पिता से कछ-कछ नई बातें सीखता जाता है परनत परिवार व समाज के लोगों के साथ समानय व विशेष रूप से जञानपूरवक वयवहार करने के लि उसे आचारयों की आवशयकता होती हैं जो उसे विदयालय में पराथमिक ककषा से आरमभ करके भिनन-भिनन विषयों का जञान कराते हैं। विदयालयों में भिनन-भिनन विषयों को पढ़कर वह नाना परकार के वयवहार, कारय व वयवसाय करने में दकष हो जाता है।

 

 à¤¸à¥ƒà¤·à¤Ÿà¤¿ के आरमभ में अमैथनी सृषटि में यवावसथा में उतपनन हमारे आदि पूरवजों के पास अपनी कोई भाषा व जञान तो होता नहीं है तो परशन यह उतपनन होता है कि वह भाषा व वयवहार करने का जञान किससे परापत करते हैं वा किससे सीखते हैं? इस परशन का उततर वेदों को जानने वालों के लि अधिक कठिन नहीं है। हम जानते हैं कि यह सृषटि जञान पूरवक बनी हई रचना है। यह सवयं कदापि नहीं बन सकती।  इसको बनाने वाली कोई पूरण बदधिमान सतता अरथात सरवजञ, जो अतल बलशाली अरथात सरवशकतिमान, निराकार, सरववयापक, सरवातिसूकषम, अनादि, अननत, अजनमा, अमर, अनपम, सरवाधार, सरवेशवर आदि गणों वाली होनी सिदध होती है। यदि वह न होती तो यह सृषटि या बरहमाणड न बनता। उसका दिखाई देना इस लि आवशयक नहीं है कयोंकि उसका निराकार, सरववयापक, सरवातिसूकषम व सरवानतरयामी होना आवशयक है और वह है भी सी ही। उसे हम अपने जञान के नेतरों अरथातः अनतरचकषओं से जान सकते हैं और आतमा में विचार व चिनतन से उसका परतयकष अथवा साकषातकार कर सकते हैं जिस परकार से हम फूलों की सगनध न देखकर भी उसका अनभव करते हैं और इसी परकार वाय को आंखों से न दिखने पर भी अपनी तवचा दवारा सपरश कर उसका अनभव करते हैं। इसी परकार हमें अपने मोबाइल की घणटी बजने पर किसी परिचित की आवाज आती है तो उस वयकति के सामने न होने पर भी हमें उसका परतयकष व परामाणिक जञान होता है कि हमारा अमक परिचित मितर, समबनधी या परिवार का सदसय बोल रहा है। अतः परमातमा का असतितव सिदध हो जाता है। उसी परमातमा ने सभी मनषयों को आदि सृषटि में बनाया था। उसी ने देखने के लि आंखें, सनने के लि कान, सवाद व शबदोचचार के लि रसनेनदरिय अरथात जिहवा व कणठ, सपरश के लि तवचा व सूंघने के लि नाक व इसके साथ सतयासतय के विवेचन के लि बदधि तथा शभ व अशभ संकलपों के लि मन आदि अवयव मनषय शरीर में बना कर लि हैं। मनषय लाख कोशिश कर ले, वह भाषा को नहीं बना सकते। भाषा के न होने पर जञान हो ही नहीं सकता चूकि जञान भाषा में ही निहित होता है। यदि भाषा न हो तो जञान व सम उतपनन नहीं हो सकती। जब मनषय इनहें नहीं बना सकता है तो फिर परशन यह है कि यह परापत किससे होती हैं। इसका सीधा व सरल उततर है कि आदि भाषा वैदिक संसकृत और जञान ‘वेद’यह इस संसार को बनाने वाली सतता “ईशवर” से मनषयों को परापत ह हैं। इन परशनों के इन उततरों के अतिरिकत हम में से किसी के पास अनय कोई विकलप है ही नहीं। हां, अनावशयक कालपनिक तरकों का सहारा लिया जा सकता है परनत सतय यही है कि यह भाषा और जञान हमें ईशवर से परापत हआ है।

 

 à¤µà¥‡à¤¦ संसकृत भाषा में है जो लौकिक संसकृत से भिनन ‘वैदिक संसकृत’है। इन वेदों का यथारथ अरथ हमें महरषि दयाननद सरसवती जी का किया हआ परापत है। अंगरेजी भाषा में भी डा. सवामी सतय परकाश सरसवती जी का किया हआ वेदों  का भाषय हमारे पास उपलबध है। इनके अतिरिकत महरषि दयाननद के अनेक गरनथ यथा सतयारथ परकाश, ऋगवेदादिभाषयभूमिका, संसकार विधि, आरयाभिविनय, गोकरूणानिधि सहित अनेक लघ गरनथ जिनका आधार वेद और वैदिक साहितय है, हमारे पास उपलबध है। वेदों पर आधारित पराचीन गरनथ मनसमृति, 6 दरशन तथा 11 उपनिषदें भी हमारे पास है जिनके परणेता ऋषि कोटि के असाधारण विदवान मनषय हैं। इतिहास के दो परमख गरनथ बालमीकी रामायण तथा वयास ऋषि कृत महाभारत भी उपलबध हैं। इनका अधययन कर वैदिक धरम, सभयता व संसकृति से परिचित हआ जा सकता है। आज भी वैदिक धरम, संसकृति व सभयता परासंगिक व उपादेय है। हमने विगत 40 वरषों में इन सभी गरनथों का अधययन किया है और हमें लगता है कि इनके आधार पर सवसथ व सखी जीवन वयतीत किया जा सकता है। इनके अधययन के साथ हम आधनिक जञान व विजञान का अधययन कर विजञान, चिकितसा, इंजीनियरिगं, शिकषा, बैंकिगं, वयापार, वाणिजय आदि किसी भी कषेतर में अपना वयवसाय चन कर सफल जीवन वयतीत कर सकते हैं।

 

आज की सामाजिक वयवसथा को भी जानने का परयास करते हैं। आज हमारे देश व संसार में अनेक मत-मतानतर, धरम, मजहब, समपरदाय आदि हैं। यह सभी संसार के लोगों को अपने-अपने मत का अनयायी बनाने का परयास करते हैं। ईशवर के क होने पर भी सबकी अपनी-अपनी भिनन-भिनन विचारधारायें, मानयतायें, सिदधानत तथा उपासना पदधतियां है। किसी को भी इस बात से कोई सरोकार नहीं दिखता कि उनके दवारा की जाने वाली करियाओं व उपासना पदधतियों से ईशवर परसनन होता है अथवा नहीं? ईशवर कया चाहता है किसी मत के दवारा जानने का परयास नहीं किया जाता है। वैदिक मत व धरम में यह परयास अवशय किया गया है। उनके अनसार ईशवर सभी जीवों का सख चाहता है इसी लि उसने सृषटि को बनाया आरै आरमभ में ही संसार की सबसे मूलयवान वसत वेदों का जञान दिया जिसमें ईशवर की ओर से मनषयों के करतवयों का उललेख है। इन वैदिक करतवयों की वयाखयायें दरशन, उपनिषद व मनसमृति गरनथों में भी दी गई है।  वेदों के जञान का महतव इस लि सरवाधिक है कयोंकि मनषय का आतमा जनम व मरण धरमा है। इसका अरथ है कि यह सृषटि काल में जनम-मृतय-जनम के चकर में बनधा हआ होता है, जनम के बाद पूरव जनमों में कि ह करमानसार आय, जाति व सख व दःखों को परापत कर भोगता है और कछ समय बाद मृतय को परापत होता है। मृतय के बाद पनः पूरव व इस जनम के शेष करमों के आधार पर नया जनम मिलता है। यह जनम किये ह करमों के अनसार होता है। यह समभव है कि हम अगले जनम में मनषय बने और यह भी समभव है कि हम पश, पकषी, कीट व पतंग में से किसी योनि या जाति परजाति में पैदा हों। हमारा भावी जनम मनषय योनि में अचछे सशिकषित व सखी परिवारों में हों जहां हम सतकरमों को करते ह धरम, अरथ, काम व मोकष को परापत करें, इसके लि ही वैदिक करतवयों का पालन करने का विधान है।

 

सृषटि के आदि काल में मनषयों की उतपतति वं वेदों के परादरभाव से ही काल गणना आरमभ कर दी गई थी जो अदयावधि जारी है। इस समय सृषटि संवत 1,96,08,53,115 चल रहा है। इस लमबी अवधि में अब से लगभग 5,100 वरष पूरव महाभारत का परसिदध यदध हआ था। यदध में बहत बड़ी संखया में जनहानि हई जिस कारण यदध के बाद सरवतर अवयवसथा फैल गई। विगत 5000 वरष में देश के जञानी वरग के आलसय, परमाद आदि अनेक कारणों से वेदों का जञान लपत हआ जिससे अनधविशवास, अवैदिक परमपरायें व करीतियां परचलित हो गईं। अजञान व कछ अनय कारणों से पूरण अहिंसातमक यजञों में पशओं की हतयायें की जाने लगीं। सतरी व शूदरों को वेदाधययन से वंचित कर दिया गया। देश भर में वेदों का अधययन समापत परायः हो गया। वेदों के अजञानतापूरण, मिथया व अशलील अरथ किये गये। सतय वेदारथ लपत परायः था जब कि वेदारथ के कछ गरनथ अषटाधयायी, महाभाषय, निरूकत व निघणट आदि गरनथ कछ लोगों के पास उपलबध थे परनत इनका उपयोग नहीं किया जा रहा था। देश व समाज का पतन इस सीमा तक हआ कि महाभारत काल तक बोलचाल व साहितय की भाषा सरवतर संसकृत ही थी परनत इसके बाद संसकृत का वरचसव समापत होकर अनय अनेक भाषायें असतितव में आ गईं। इन परिसथितियों के उतपनन होने से नये-नये मत यथा बौदध, जैन, अदवैत, दवैत, शैव, वैषणव, शाकत आदि असतितव में आयें। विदेशों में भी पारसी या जरदशत मत, यहूदी मत, ईसाई मत तथा इसलाम मत आदि असतितव में आये। यह करम चलता रहा और भारत में मतों की संखया में वृदधि होती रही। इस कारण संसार में अजञान फैल गया और क ईशवर की नाना परकार से सतति व परारथनायें की जाने लगी। ईशवर की सतति, परारथना व उपासना के सतय सवरूप को जानने का परयास ही नहीं किया गया और न अब किया जा रहा है। सब जगह अपनी अपनी ढफली, अपना अपना रागवाली कहावत चरितारथ हो रही है। अनेक मत-मतानतर, मजहब, समपरदाय व पनथों के कारण समाज में समरसता समापत हो गई है। यदा-कदा यतर-ततर देश में सामपरदायिक दंगे होते रहते हैं। सब अपने-अपने मत को शरेषठ व जयेषठ मानने लगे और हमारे विदेशी मतों ने तो धरमानतरण का कचकर भी चलाया। सी अनेक घटनायें इतिहास में अंकित है जहां शासक वरग व बलवान शतर का मत न मानने वालों की हतयायें कर दी जाती थी और यह कारय बहत बड़े पैमाने पर भारत में हआ। सभी मतों का आपस में संवाद समापत हो गया और सब अपने अपने घर में शेर बन गये। सन 1825 में महरषि दयाननद का जनम होता है। वह वेदों का अधययन करते हैं और बहृमचरय व योग के आधार पर अपूरव परूषारथ, तप वं तयाग से वेदों के सतय अरथों को जानते हैं।  उनहोंने संसार के सभी मतों का अधययन किया और पाया कि सतय धरम केवल क है और वह पराचीन वेदों का धरम है जिसे सनातन धरम भी कहते हैं। उनको इस तथय का भी साकषात हआ कि विशव शानति के लि आवशयक है कि सभी मतों का परसपर संवाद हो, वारतालाप, उपदेश, गोषठी, शासतरारथ कर सतय मत का निरणय किया जाये और उस सतय मत को सभी सवीकार करें। उनहोंने अनेक मतों के विदवानों से संवाद और शासतरारथ भी कि जिसमें वैदिक मानयतायें हीं  सतय सिदध हईं। बहत से लोगों ने सतय को सवीकार भी किया परनत यह सथिति नाममातर की ही कही जा सकती है। इस पृषठ भूमि में अब हम भारत के पतन के कारणों पर विचार करते हैं और उननति के कारकों का भी उललेख करते हैं।

 

 à¤¦à¥‡à¤¶ के पतन का पहला कारण तो वैदिक जञान का लोप तथा असतय व मिथया जञान पर आधारित मतों का परादरभाव रहा जिस कारण देश में सरवतर अजञान, अनधविशवास व करीतियां उतपनन हो गईं। इसके फलसवरूप मूरतिपूजा, मृतक शरादध, सतरी व शूदरों को वेदाधययन के अधिकार से वंचित करना, अवतारवाद की कलपना व उसका परचलन, फलित जयोतिष, जनम पर आधारित जाति वयवसथा वा आधनिक वरणवयवसथा, छआ-छत का परचलन, बाल विवाह-अनमेल विवाह व बहविवाह, सती परथा, मदिरा पान, मांसाहार, अशिकषा, वैजञानिक अनसंधान पर धयान न देना, निरधनों व दरबलों का धनिकों व बलवानों दवारा शोषण व उन पर अतयाचार आदि अनेक पतन के कारण समाज व देश में उपसथित ह। यह सब देश में चल पड़ा परनत सा कोई वयकति उतपनन नहीं हआ जो इनके विरूदध आवाज उठाता। इसका शरेय सवामी दयाननद सरसवती को मिला जिनहें उनके गरू सवामी विरजाननद सरसवती ने असतय का खणडन और सतय का मणडन कर देश व इसके पराने सतय वैदिक धरम व संसकृति की रकषा के लि परेरित किया था।  सवामी दयाननद जी ने पतन को समापत करने और देश व विशव का कलयाण करने के लि 10 अपरैल, सन 1875 को ममबई में परथम आरय समाज की सथापना की और इसके 10 सवरणिम नियम बनाये जिनमें से क सतय के गरहण करने और असतय को छोड़ने में सरवदा उदयत रहना चाहियेहै। दूसरा अति महतवपूरण नियम यह है कि अविदया का नाश और विदया की वृदधि करनी चाहिये।उनकी इस परेरणा से उनके परमख अनयायियों सवामी शरदधाननद, पं. गरूदतत विदयारथी, सवामी दरशनाननद, महातमा हंसराज, पं. बरहमदतत जिजञास आदि ने गरूकलों व दयाननद ंगलो वैदिक कालेजों का देश भर में विसतार किया। आरय समाज के सवरणिम नियमों यह नियम भी हैं कि सबसे परीतिपूरवक, धरमानसार, यथायोगय वरतना चाहिये। मनषय को अपनी ही उननति में सनतषट नहीं रहना चाहिये अपित सबकी उननति में ही अपनी उननति समनी चाहिये। समाज का उपकार करना आरय समाज का मखय उददेशय है अरथात शारीरिक, सामाजिक, बौदधिक और आतमिक उननति करनà

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