मनुष्य जन्म का आधार प्रत्यक्ष रूप में माता-पिता होते हैं परन्तु अप्रत्यक्ष रूप में इस सृष्टि में व्यापक एक चेतन सत्ता जो सृष्टि की उत्पत्ति की सामर्थ्य सहित मनुष्य व अन्य प्राणियों की उत्पत्ति व रचना का ज्ञान रखती है, वह दोनों हैं। हमने माता-पिता से इतर सृष्टि में व्यापक एक अज्ञात चेतन सत्ता की बात इसलिए की है कि माता-पिता अपनी सन्तान का पूरा शरीर तो क्या शरीर का एक छोटे से छोटा अंग वा प्रत्यंग भी नहीं बना सकते। यद्यपि सृष्टि में सन्तान के जन्म लेने की प्रक्रिया ज्यादा जटिल नहीं फिर भी माता-पिता जो सन्तान के जन्मदाता होते हैं वह प्रसव के लिए किसी योग्य व अनुभवी चिकित्सक की शरण में जाते हैं जिससे किसी भी अप्रिय स्थिति से बचा जा सके। माता-पिता जो सन्तान के जन्मदाता कहलाते हैं उन्हें यह भी पता नहीं होता कि जन्म लेने वाला शिशु कन्या है अथवा बालक। अधिकांश बालक की कामना करते हैं परन्तु जब परिणाम सामने आता है तो वह अनेक बार कन्या के रूप में होता है जिससे कुछ माता-पिताओं व उनके परिवारों को मानसिक कष्ट भी होता है। अतः माता-पिता का काम केवल जन्म देना है न कि जन्म लेने वाले शिशु के शरीर का निर्माण करना व स्वेच्छया उसके कन्या व बालक के रूप में जन्म लेने वाली सन्तान के लिंग का निर्धारण करना। शरीर का निर्माण तो सृष्टि में व्याप्त सर्वज्ञ चेतन सत्ता करती है जो न केवल सन्तान के शरीर का निर्माण करना जानती है अपितु माता के गर्भ में व्याप्त होकर स्वनिर्मित सृष्टि नियमों के सन्तान का निर्माण कर उसे यथासमय जन्म देती है, उसे परमात्मा व अनेक नामों परमेश्वर, ईश्वर, सृष्टिकर्ता, ब्रह्मा, गाड आदि के नाम से जाना जाता है।

हम यदि अपने अस्तित्व पर विचार करें तो हमारा मानव शरीर पृथिवी के पंच-तत्वों पृथिवी, अग्नि, जल, वायु व आकाश का बना हुआ है। शरीर में मांस हो या नस नाड़िया, अस्थि, मज्जा, रक्त, त्वचा व अन्य पदार्थ, यह सब पृथिवीस्थ अन्न, दुग्ध एवं फल आदि खाद्य पदार्थों से मिलकर बने हैं। इनका बनना मनुष्य के अधीन नहीं अपितु परमात्मा द्वारा बनाये गये सृष्टि नियमों पर आधारित है। परमात्मा का बनाया हुआ यह एक प्रकार का स्वचालित तन्त्र व प्रणाली है। आश्चर्य है कि संसार में जन्म लेने वाले बच्चों के शरीर की आकृति मुख्यतः मुखाकृति, आचार, विचार, व्यवहार, योग्यता व क्षमता, वाणी वा आवाज की भिन्नता सभी की अलग अलग होती है जबकि मनुष्यों द्वारा बनाई गई सभी आधुनिक मशीनों से एक ही आकृति के एक ही प्रकार के उत्पाद बनते हैं परन्तु मनुष्य आदि प्राणी के रूप में जन्म लेने वाली संतत्तियां कन्या, बालक व उनके रंग-रूप गोरा, काला, सुन्दर, भद्दी शक्ल-सूरत आदि के उत्पन्न हो रहे हैं जो एक प्रकार का आश्चर्य है परन्तु कुछ अज्ञानी व अधिक पढ़े लिखे लोग जिनके पास उत्तर नहीं और वह इसे ईश्वर की कृति किन्हीं कारणों से, मुख्यतः अविद्या व स्वार्थ, मानना नहीं चाहते हैं वह इसे जड़ प्रकृति के नियम व कार्य बताकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। आजकल के पढ़े लिखे चालाक प्रकृति के लोगों के प्रभाव में चलने वाले अज्ञानी लोगों ने उनकी इस मिथ्या व असत्य मान्यता को प्रायः स्वीकार कर लिया है। उनसे कहें तो भी वह अपनी भ्रान्त धारणाओं पर विचार कर असत्य का त्याग व सत्य के ग्रहण करने को तैयार नहीं होते।

वेद और वैदिक विद्वान तथा सभी प्राचीन ऋषि मुनि जब ईश्वर व जीवात्मा की चर्चा करते हैं तो इसका आधार अविद्या, अज्ञान वा अन्प्धविश्वास नहीं होता अपितु इसका कार्य-कारण का तार्किक व वैज्ञानिक आघार होता है। हमारी पृथिवी सहित सभी पंच तत्व जड़ पदार्थ हैं। इनमें ज्ञान संवेदना व चिन्तन व मनन तथा सत्य व असत्य का विवेचन करने का गुण नहीं है। यह सभी जड़ पदार्थ चेतन गुण से रहित हैं। इन जड़ पदार्थों को किसी भी अनुपात व परिस्थितियों में मिलने या मिलाने से चेतन जीवात्मा की उत्पत्ति नहीं हो सकती फिर भी बहुत से तथाकथित शिक्षित विद्वान व वैज्ञानिक भी बिना प्रमाण जड़ पदार्थों से ही आत्मा की उत्पत्ति और मृत्यु के समय उस चेतन जीवात्मा का विनाश मान लेते हैं। यह उनका अनुमान व कल्पना तथ्यों के विपरीत है। जीवात्मा भौतिक व जड़ पदार्थों से सर्वथा रहित एक अति सूक्ष्म, अल्प प्रमाण, अनादि, अनुत्पन्न, अवनिशी, अमर, नित्य, शाश्वत, सनातन व चेतन पदार्थ है। ईश्वर की कृपा, दया व करूणा से मनुष्य आदि शरीर प्राप्त कर ज्ञान व कर्म करना ही जिसका स्वभाव है। लगभग दो अरब वर्ष पूर्व, वास्तविक गणना 1.960853 अरब वर्ष, उत्पन्न इस सृष्टि से पूर्व भी, जो इस सृष्टि की प्रलय अवस्था थी, उसमें वर्तमान के सभी प्राणियों में विद्यमान जीवात्मायें आकाश में सुषुप्ति अवस्था में विद्यमान थी। सृष्टि की रचना हो जाने पर ईश्वर की प्रेरणा व सृष्टि व प्राणी सृष्टि की सामर्थ्य से पूर्व कल्प वा पूर्व जन्मों के कर्मानुसार जीवात्माओं का माता-पिता से अ नेक योनियों में जन्म होता है।

जीवात्मा एक कर्म करने स्वतन्त्र, फल भोगने में परतन्त्र, अनादि, सनातन, अल्प-प्रमाण, अतिसूक्ष्म, ससीम, अल्पज्ञ व चेतन सत्ता है। इस जीवात्मा की न कभी उत्पत्ति हुई है और न कभी विनाश होगा। ईश्वर एक सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सच्चिदानन्द स्वरूप चेतन सत्ता हे। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व प्रलय करना, जीवों को कर्मानुसार जन्म देना व सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान देना उसका मुख्य कार्य है। उस परमात्मा से ही मनुष्य व अन्य प्राणियों को अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार जन्म व योनि प्राप्त होती है। इसका एक प्रमाण यह है कि यह सृष्टि लगभग दो अरब वर्षों से चल रही है और इसमें जीवात्माओं के मनुष्य व अन्य प्राणी योनियों में निरन्तर जन्म होते आ रहे हैं। इस सृष्टि की उत्पत्ति का कारण भी एकमात्र यही है कि जीवात्मओं को कर्मानुसार जन्म देने व फल भोग के लिए ईश्वर ने सृष्टि को बनाया है। सृष्टि उत्पत्ति का अन्य कोई प्रयोजन है ही नहीं। जीवात्माओं की आवश्यकताओं का ज्ञान भी परमात्मा को सदा से रहा है। यही कारण है कि शरीर में देखने, सुनने, सूंघने, स्वाद व रस ग्रहण करने, स्पर्श का गुण व कर्म करने के लिए हाथ, पैर सहित मन व बुद्धि आदि अवयव प्रदान किये गये हैं। इन ज्ञान व कर्मेन्द्रियों की सहायता से ही मनुष्य अपने पूर्व कर्मों के फलों को भोगता है और नये कर्म करता है। कर्मों का भोग और नये कर्मों का संचय चलता रहता है। कुछ काल बाद वृद्धावस्था में व अन्य कारणों से आकस्मिक मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के समय जिन शुभ व अशुभ कर्मों का संचय होता है, उनका साक्षी ईश्वर होता है। उसी के अनुसार वह पुरस्कार व सजा के रूप में जीवात्माओं को मनुष्य व अन्य योनियों में श्रेष्ठ व निकृष्ट जन्म देता है।

पुनर्जन्म विषयक अनेक प्रश्न किये जाते हैं जिन सभी के उत्तर वैदिक धर्मियों के पास हैं। पुनर्जन्म पर अनेक प्रमाणों से युक्त अनेक विद्वानों ने ग्रन्थ भी प्रकाशित किये हैं। ऋषि दयानन्द ने भी 17 जुलाई सन् 1875 को पूना में पूर्वजन्म-जन्म-मृत्यु-पुनर्जन्म के अस्तित्व पर प्रमाणों सहित एक सारगर्भित उपदेश दिया था जो कि प्रकाशित रूप में उपलब्ध है। इससे पुनर्जन्म विषयक सभी शंकाओं का समाधान हो जाता है। पुनर्जन्म की चर्चा करने पर पहला आक्षेप यह होता है कि यदि पुनर्जन्म होता है तो हमें अपना पूर्वजन्म याद क्यों नहीं है। इसका उत्तर यह है कि हमें समय के साथ-साथ विस्मृति होती जाती है। हम जो बातें करते हैं यदि कोई कहे कि उन्हीं शब्दों को उसी कर्म व उसी प्रकार, बिना आगे पीछे किये, उसी गति व भाव-भंगिमा सहित दोहरा दें, तो शायद ऐसा कोई नहीं कर सकता। हमने कल भोजन में किस समय क्या-क्या भोजन व पदार्थों का सेवन किया, परसो प्रातः से सायं क्या क्या पदार्थ खायें, यह भी हम भूल जाते हैं। इससे पूर्व का तो पता ही किसी को नहीं होता। परसों व उससे कुछ दिन पहले हमने कौन से वस्त्र पहने थे, किन-2 से मिले थे, कहां-कहां कब गये व रहे, इसका ज्ञान भी हमें नहीं रहता अर्थात् हम भूल जाते हैं। जब हम दो चार दिन पूर्व की घटनाओं को याद नहीं रख सकते तो विगत जन्म जिसमें हमारी मृत्यु हुई, हमारे पूर्व जन्म के शरीर को जला दिया गया, आत्मा कुछ समय आकाश में रही, फिर ईश्वरीय प्रेरणा से पिता व उसके बाद माता के गर्भ में आयी, गर्भ में हिन्दी मासों के अनुसार 10 माह रही, फिर शिशु रूप में जन्म लिया, जन्म के समय हमें बोलना नहीं आता था, माता पिता से कई वर्षों में भाषा सीखी, धीरे धीरे बोलना सीखा, अब यदि वर्षों पूर्व, इस जन्म से भिन्न शरीर में घटी घटनाओं को हम भूल चुके हैं तो इसमे किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिये। यदि हम पूर्व जन्म में किसी पशु योनि में रहे हों और इस जन्म में मनुष्य बने, तो फिर उस जीवन की बातों का ध्यान रहना भी सम्भव नहीं है। इसको इतना ही जान सकते हैं कि नया जन्मा बच्चा पूर्व जन्म के संस्कारों को लेकर पैदा होता है। वह माता का स्तनपान करता है तो उसे सिखाने की जरुरत नहीं पड़ती। वह बचपन में कभी हंसता है तो कभी रोता है, यह उसके पूर्व जन्म के संस्कार ही तो हैं अन्यथा वह हंसता क्यों हैं? कई बार सोते हुए स्वप्नावस्था में भी वह हंसता व रोता है। इसका कारण पूर्व जन्मों की कुछ स्मृतियों का होना ही सिद्ध होता है, अन्यथा मुस्कराना तो किसी बात के याद आने पर ही होता है। उसके पीछे कोई सुखद अनुभव ही हुआ करता है। यह सब पुनर्जन्म के प्रमाण ही हैं जिसे आजकल के लोग न तो जानते हैं न समझने की कोशिश करते हैं।

पूर्वजन्म की स्मृति न होने का एक कारण यह भी है कि मनुष्य को एक समय में एक ही बात का ज्ञान होता है। उसे हर क्षण मैं हूं अर्थात् अपने अस्तित्व का बोध वा ज्ञान रहता है। मन में एक साथ दो प्रकार के ज्ञान नहीं हो सकते। यदि हम स्वयं को भूलकर अन्य पदार्थों का ज्ञान करें तो पहले तो वर्तमान व कम समय पहले की प्रमुख यादें ही आयेंगी। पूर्वजन्म की स्मृतियां दो जन्मों में शरीर के बदल जाने, योनि परिवर्तन व समय की सीमा, दीर्घकाल के अन्तराल के कारण विस्मृत हो चुकी होती हैं, यह प्रमुख कारण हैं। अतः पूर्वजन्म की स्मृतियों का न होना पूर्वजन्म का निषेध नहीं करता। हम ऐसी बहुत सी बातों को मानते हैं जिन्हें हमने देखा नहीं होता। वहां हमें अपने विवेक व बुद्धि का सहारा लेना होता है। हमने अपने दादा, परदादा व उससे पूर्व की पीढ़ियों को नहीं देखा परन्तु हमारे परिवारजनों द्वारा कहने पर उन्हें बिना देखे, जाने व अनुभव किये ही मान लेते हैं। इसी प्रकार पूर्वजन्म भी एक आवश्यक व अनिवार्य जीवात्मा की अवस्था है। यदि हम अपनी आत्मा पर अज्ञान व अविद्या के आवरण तथा मिथ्या संस्कारों को हटा सकें तो हमारी आत्मा स्वतः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म दोनों को स्वीकार कर लेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।

संसार में वैज्ञानिक नियम है कि न कोई पदार्थ नष्ट होता है और न बनाया ही जा सकता है, उसका रूप परिवर्तन होता है। जीवात्मा अनादि व अविनाशी है। यह सिद्धान्त आत्मा पर भी लागू होता है। यदि हमारी व अन्यों की जीवात्माओं को यह जन्म मिला है तो इससे पूर्व भी उन सभी जीवात्माओं को जन्म मिला होगा और इसके बाद भी मिलेगा। यदि नहीं मिलेगा तो प्रश्न है क्यों नहीं मिलेगा? यह तभी सम्भव है कि जब ईश्वर जन्म न दें सके। ईश्वर सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान है। सृष्टि को चलाने के लिए पुनर्जन्म की आवश्यकता है। नित्य प्रति सभी योनियों में सहस्रों व लाखों जीवात्मायें जन्म ले रही हैं। यह मृतक जीवात्माओं के पुनर्जन्म ही तो हैं। इसका समाधान व उत्तर पुनर्जन्म न मानने वालों के पास नहीं है। यदि यह जन्म है तो इसका पूर्वजन्म भी है और पुनर्जन्म भी अवश्य होगा। यदि ऐसा न होता तो हमारा वर्तमान जन्म भी न होता। यदि हम कृषि जगत में देखें तो एक बीज बोने से एक पौधा उत्पन्न होता है। बड़े होने पर उसमें फल लगते हैं और उस फल में ही अनेक बीज होते हैं जिनसे अनेकानेक उसी जाति व आकृति-प्रकृति के पौधे व फल पैदा होते हैं। हम यह भी देखते हैं कि सृष्टि में मृत्यु का सिद्धान्त काम कर रहा है। मृत्यु के बाद यदि जन्म न हो तो यह सृष्टि समाप्त व नष्ट हो जाये। ईश्वर ने न केवल मनुष्यों योनि अपितु पशुओं व पक्षियों में भी सृष्टि को चलाने के लिए उन-उन योनियों में सन्तत्तियों की वृद्धि का नियम बना रखा है। पशु व पक्षी सृष्टि को जारी रखने के लिए ईश्वरीय व प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए इस सृष्टि को अब तक बनाये हुए हैं और आगे भी यह क्रम चलता रहेगा। नये नये बच्चों, सन्तानों व सन्तत्तियों में जो जीवात्मायें आती हैं वह उत्पन्न नहीं होती अपितु पूर्व मृत्यु के बाद जन्म लिया करती हैं। यह पुनर्जन्म की प्रक्रिया या सिद्धान्त सृष्टि में विद्यमान है। यह सदा से चलता आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा। ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप को जानने व मानने से ही जन्म व पुनर्जन्म की गुत्थी हल होती है। अतः सभी ज्ञानी व अज्ञानियों को वैदिक धर्म की शरण में आकर इसे समझना व मानना चाहिये। लेख विस्तृत हो गया है, अतः लेखनी को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।           

-मनमोहन कुमार आर्य

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