महरषि दयाननद को 13, 15 और 17 वरष की आय में घटी शिवरातरि वरत, बहिन की मृतय और उसके बाद चाचा की मृतय से वैरागय उतपनन हआ था। 22 वरष की अवसथा तक वह गजरात  परानत  के  मोरवी नगर के टंकारा नामक गराम में सथित घर पर रहे और मृतय पर विजय पाने की ओषधि खोजते रहे। जब परिवार ने उनकी भावना को जाना तो विवाह करने के लि उनहें विवश किया। विवाह की सभी तैयारियां पूरण हो गई और इसकी तिथि निकट आ गई। जब कोई और विकलप नहीं बचा तो आपने गृह तयाग कर दिया और सतय जञान की खोज में घर से निकल पड़े। आपने देश भर का भरमण कर सचचे जञानी विदवानों और योगियों की खोज कर उनकी संगति की और संसकृत व शासतरों के अधययन के साथ.साथ योग का भी करियातमक सफल अभयास किया। योग की जो भी सिदधियां व उपलबधियां हो सकती थी | उनहें परापत कर लेने के बाद भी उनका आतमा सनतषट न हआ। अब उनहें क से गरू की तलाश थी जो उनकी सभी शंकायें और भरमों को दूर कर सके। मनषय की जो सतय इचछा होती है और उसके लि वह उपयकत परूषारथ करता है तो उसकी वह इचछा अवशय पूरी होती है और ईशवर भी उसमें सहायक होते हैं। सा ही सवामी दयाननद के जीवन में भी हआ और उनहें परजञाचकष दणडी गरू सवामी विरजाननद सरसवती का पता मिला जो मथरा में संसकृत के आरष वयाकरण वं वैदिक आरष गरनथों का अधययन कराते थे। सन 1860 में आप उनके शरणागत ह और अपरैल 1863 तक उनसे अधययन व जञान की परापति की। अधययन पूरा कर गरू दकषिणा में सवामीजी ने अपने गरू को उनकी परिय लौंगे परसतत की। गरूजी ने भेंट सहरष सवीकार की और दयाननद जी को कहा कि वेद और वैदिक धरम, संसकृति व परमपरायें अवनति की ओर हैं और विगत 4.5 हजार वरषों में देश व दनियां में मनषयों दवारा सथापित कलपित, अजञानयकत अनधविशवास से पूरण मानयतायें व परमपरायें परचलित हो गईं हैं। हे दयाननद ! तम असतय का खणडन तथा सतय का मणडन कर सतय पर आधारित ईशवर व ऋषियों की धरम-संसकृति व परमपराओं का परचार व उनकी सथापना करो। सवामी दयाननद ने अपने गरू की आजञा को सिर काकर सवीकार किया और कहा कि गरूजी ! आप देखेंगे कि यह आपका अंकिचन शिषय व सेवक आपसे किये गये अपने इस वचन को पराणपण से पूरा करने में लगा हआ है। सा ही हम अपरैल 1863 से अकतूबर 1883 के मधय उनके जीवन में घटित घटनाओं में देखते हैं।

इस घटना के बाद सवामी दयाननद ने देश भर का भरमण किया। वेदों पर उनहोंने अपना धयान केनदरित किया। उसे परापत करने के लि परयास किये। उनहोंने इंगलैणड में परथम बार परोण फरेडरिक मैकसमूलर दवारा परकाशित चारों वेद मंगाये। उनहोंने चारों वेदों का गहन अधययन किया और पाया कि वेद ईशवरीय जञान हैं जो सृषटि के आरमभ में अमैथनी सृषटि में उतपनन चार ऋषियों अगनि वाय, आदितय व अंगिरा की आतमाओं में सरववयापक और सरवानतरयामी ईशवर दवारा परकट, परेरित,  à¤ªà¤°à¤µà¤¿à¤·à¤Ÿ व सथापित किये गये थे। उनहोंने यह भी पाया कि वैदिक संसकृत वं लौकिक संसकृत में भारी अनतर है। लौकिक संसकृत के शबद रूढ़ हैं जबकि वेदों के सभी शबद नितय होने के कारण घातज या यौगिक हैं। उनहोंने यह भी जाना कि वेदों के शबदों के रूढ़ अरथों के कारण अरथ का अनरथ हआ है। उनहोंने पाणिनी की अषटाधयायी काशिका पंतंजलि के महाभाषय महरषि यासक के निघणट और निरूकत आदि गरनथों की सहायता से वेदों के पारमारथिक वं वयवहारिक अरथ कर क अपूरव महाकरानति को जनम दिया और अपने पूरववरती पौरवीय व पाशचातय वैदिक विदवानों के वेदारथों की निररथकता व अपरमाणिकता का अनावरण कर सतय का परकाश किया। महरषि दयाननद ने अपनी वेद विषयक मानयताओं और सिदधानतों, जो कि शत परतिशत सतय अरथों पर आधारित हैं, का परकाश किया और इसके लि उनहोंने सतयारथ परकाश ऋगवेदादिभाषय भूमिका, संसकार विधि, आरयाभिविनय गोकरूणानिधि, संसकृत वाकय परबोध, वयवहारभान आदि अनेकानेक गरनथों का सृजन किया। महरषि दयाननद सरसवती का यह कारय मरयादा पालन के साथ.साथ मरयादाओं की सथापनाओं का कारय होने से इतिहास में अपूरव है जिस कारण वह मरयादाओं के संसथापक होने से मरयादा परूषोततम विशेषण के पूरी तरह अधिकारी है। इतना ही नहीं, उनहोंने वैदिक मरयादा की सथापना के लि वेदों के संसकृत व हिनदी में भाषय का कारय भी आरमभ किया। सृषटि के आरमभ से उनके समय तक उपलबध वेदों के भाषयों में आरष सिदधानतों मानयताओं व परमपराओं से पूरी तरह से समृदध कोई वेद भाषय संसकृत वा अनय किसी भाषा में उपलबध नहीं था। मातर निरूकत गरनथ सा था जिसमें वेदों के आरष भाषय का उललेख व दिगदरशन था। महरषि दयाननद ने उसका पूरण उपयोग करते ह क अपूरव कारय किया जो उनहें न केवल ईशवर की दृषटि में अपित निषपकष संसार के जञानियों में सरवोचच सथान पर परतिषठित करता है।

 à¤µà¥‡à¤¦à¥‹à¤‚ का परचार परसार ही मनषय जीवन का मखय उददेशय सिदध होता है। धन कमाना व सख भोगना गौण उददेशय हैं परनत मखय उददेशय वेदों का अधययन व अधयापन परचार व परसार उपदेश व शासतरारथ सतय का मणडन व असतय का खणडन मूरतिपूजा फलित जयोतिष, अवतारवाद, ऊंच-नीच की भावनाओं से मकत होकर सबको समान मानना व दलित व पिछड़ों को जञानारजन व धनोपारजन में समान अधिकार दिलाना, अछूतोदधार व दलितोदधार आदि कारय भी मनषय जीवन के करतवय हैं, यह जञान महरषि दयाननद के जीवन व कारयों को देख कर होता है। आज देश व समाज में वेदों का यथोचित महतव नहीं रहा जिस कारण समाज में अराजकता, असमानता, विषमता, अजञानता अनधविशवास, परोपकार व सेवा भावना की अतयनत कमी, दखियों, रोगियों व निरधनों, भूखों, बेरोजगारों के परति मानवीय संवेदनाओं व सहानभूति में कमी, देश भकति की कमी या हरास आदि अवगण दिखाई देते हैं जिसका कारण वेदों का अपरचलन अपरचार व अवैदिक विचारों का परचलन परचार व परभाव है। यह बात सम में नहीं आती कि जब वेद सृषटि के आरमभ में उतपनन ह, वेदों से पूरव संसार में कोई गरनथ रचा नहीं गया और न परापत होता है, वेदों की भाषा व उसके विचारों व जञान का अथाह समदर जो मानव जाति के लि कलयाणकारी है, फिर भी उसे भारत व संसार के लोग सवीकार कयों नहीं करते हम संसार के सभी मतावलमबियों से यह अवशय पूछना चाहेंगे कि आप वेदों से दूरी कयों बनाये ह हैं “ कया वेद कोई हिंसक पराणी है जो आपको हानि पहंचायेगा,  à¤¯à¤¦à¤¿ नहीं फिर आपको किस बात का डर है  à¤¯à¤¦à¤¿ है तो वह निःसंकोच भाव से कयों नहीं बताते  à¤®à¤¹à¤°à¤·à¤¿ दयाननद का मानना था जिसे हम उचित समते हैं कि यदि सारे संसार के लोग वेदों का अधययन करें समीकषातमक रूप से गण.दोषों पर विचार करें और गणों को सवीकार कर लें तो सारे संसार में शानति सथापित हो सकती है। अशानति व विरोध का कारण ही विचारों व विचारधाराओं की भिननता है,  à¤•à¤› सवारथ व अजञानता है तथा कछ व अधिक विषयलोलपता वं असीमित सखभोग की अभिलाषा व आदत है। महरषि दयाननद यहां क आदरश मानव के रूप में उपसथित हैं और वह हमें इतिहास में सभी बड़े से बड़े महापरूषों से भी बड़े दृषटिगोचर होते हैं। अतः यदि उनहें मरयादा परूषोततम कहा जाये तो यह अतयकति नहीं अपित अलपयकति है। उनहोंने सवयं तो सभी मानवीय मरयादाओं का पालन किया ही साथ हि सभी मनषयों को मरयादा में रहने वा मरयादाओं का पालन करने के लि परेरित किया और उससे होने वाले धरम, अरथ, काम व मोकष” के लाभों से भी परिचित कराया।

आईये अब सवामी दयाननद जी के योगेशवर होने के सवरूप पर विचार करते हैं। हम जानते है कि संसार में क सरववयापक सरवशकतिमान सरवजञ, सृषटिकरता ईशवर है और वही योगेशवर भी है। उसके बाद हमारे उन योगियों का सथान आता है जिनहोंने कठिन योग साधनायें कीं और ईशवर का साकषातकार किया। यह लोग सचचे योगी कहला सकते हैं। अब विदया को परापत करने के बाद विदया का दान करने का समय आता है। यदि कोई सिदध योगी योग विदया का दान नहीं करता व अपने तक सीमित रहता है तो वह सवारथी योगी ही कहला सकता है। महरषि दयाननद ने देश भर में घूम.घूम कर योगियों की संगति की योग सीखा और उसमें वह सफल रहे। इतने पर ही उनहें सनतोष नहीं हआ। इसके बाद भी उनहोंने विदया के से गरू की खोज की जो उनकी सभी शंकायें व भरानतियां दूर कर दें। इस कारय में भी वह सफल ह और उनहें विदया के योगयतम गरू परजञाचकष दणडी सवामी विरजाननद सरसवती परापत ह। उनसे उनहें पूरण विदया का दान परापत हआ और वह पूरण विदया और योग की सिदधि से महरषि के उचच व गौरवपूरण आसन पर विराजमान होकर “ न  à¤­à¥‚तो न भविषयतिश संजञा के संवाहक ह। सवामी शरदधाननद ने उनहें बरेली में परातः वाय सेवन के समय समाधि लगाये देखा था। महरषि जहां.जहां जाते व रहते थे,  à¤‰à¤¨à¤•à¥‡ साथ के सेवक व भृतय रातरि में उनहें योग समाधि में सथित देखते थे। उनके जीवन में से उदाहरण भी है कि वेदों के मनतरों का अरथ लिखाते समय उनहें जब कहीं कोई शंका होती थी तो वह क कमरे में जाते थे, समाधि लगाते थे, ईशवर से अरथ पूछते थे और बाहर आकर वेदभाषय के लेखकों को अरथ लिखा देते थे। जीवन में वह कभी डरे नहीं, यह आतमिक बल उनहें ईशवर के साकषातकार से ही परापत हआ क गण था। अंगरेजों का राजय था, सन 1857 का परथम सवाधीनता संगराम हो चका था, उस समय वह 32 वरष के यवा संनयासी थे। उनहोंने उस संगराम में गपत कारय किये जिसका विवरण उनहोंने कभी परकट नहीं किया न उनके जीवन के अनसंधानकरता व अधयेता पूरणतः जान पाये। इसके केवल संकेत ही उनके गरनथों में वरणित कछ घटनाओं में मिलते हैं। इस आजादी के आनदोलन के विफल होने पर उनहोंने पूरण विदया परापत कर पनः सकरिय होने की योजना को कारयरूप दिया और अनततः वेद परचार के नाम से देश में जागृति उतपनन की। अनतोगतवा 15 अगसत 1947 को देश अंगरेजों की दासता से सवतनतर हआ। उनके योगदान का अनमान इसी से लगाया जा सकता है कि सवराजय को सराजय से शरेषठ बताने वाले परथम परूष सवामी दयाननद थे और उनके आरय समाजी विचारधारा के अनयायियों की संखया आजादी के आनदोलन में सरवाधिक थी। लाला लाजपत राय, भाई परमाननद, महादेव रानाडे, करानति के परोधा शयामजी कृषण वरमा, पंण राम परसाद बिसमिल, शहीद सखदेव आदि सभी उनके अनयायी व अनयायी परिवारों के वयकति थे। महरषि दयाननद को इस बात का भी शरेय है कि उनहोंने योग को गृहतयागी संनयासी व वैरागियों तक सीमित न रखकर उसे परतयेक आरय समाज के अनयायी के लि अनिवारय किया। आरय समाज के अनयायी जो “ईशवर का धयान व सनधया” करते हैं वह अपने आप में पूरण योग है जिसमें योग के आठ अंगों का समनवय है। सवयं सिदध योगी होने और योग को घर.घर में पहंचाने के कारण सवामी दयाननद “योगेशवर” के गरिमा और महिमाशाली विशेषण से अलंकृत किये जाने के भी पूरण अधिकारी है।

 à¤®à¤¹à¤°à¤·à¤¿ दयाननद के वासतविक सवरूप को जानने व मानने का कारय इस देश के लोगों ने अपने पूरवागरहों, अजञानता व किनहीं सवारथों आदि के कारण नहीं किया। इससे देश वासियों व विशव की ही हानि हई है। उनहोंने वेदों के ईशवर परदतत जञान को सारी दनियां से बांटने का महा अभियान चलाया लेकिन संकीरण विचारों के लोगों ने उनके सवपन को पूरा नहीं होने दिया। आज आधनिक समय में भी हम परायः रूढि़वादी बने ह हैं। आतम चिनतन व आतम मंथन किये बिना किसी धारमिक व सामाजिक विचारधारा पर विशवास करना रूढि़वादिता है जो देश, समाज व विशव के लि हितकर नहीं है। हम अनभव करते हैं कि शिकषा में मजहबी शिकषा की पूरण उपेकषा कर वैजञानिक परमाणों के साथ तरक, यकति, सृषटिकरम के अनकूल ईशवर, जीवातमा व परकृति के सवरूप का अधययन सभी देशवासियों को अनिवारयतः कराया जाना चाहिये। मनषय ईशवर को कैसे परापत कर सकता है, उसे परापत करने की योग की विधि पर भी परयापत अनसंधान होकर परचार होना चाहिये जिससे हमारा मानव जीवन वयरथ सिदध न होकर सारथक सिदध हो। लेख के समापन पर हम मरयादा परूषोततम और योगशवर दयाननद को कोटिशः नमन करते हैं।

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