मनुष्य जीवन दुःखों को दूर करने और सुखपूर्वक स्वहित व परहित के कार्य करने के लिये परमात्मा से मिला है। मनुष्य जीवन में हम अपने पूर्वजन्मों के कर्मों का भोग करते हैं और नये शुभ व अशुभ कर्म भी करते हैं। पूर्व कर्मों का भोग तो हमें अवश्यमेव करना ही है, इससे हम बच नहीं सकते। इसे इस प्रकार से समझ सकते हैं कि हमने जो कर्म कर रखे हैं उसका पुरस्कार व दण्ड तो हमें ईश्वरीय व्यवस्था से भोगना ही होगा। ईश्वर न्यायकारी व सभी जीवों का राजा है। वह हमारे प्रत्येक कर्म का साक्षी होता है और हमें उसका फल सुख व दुःख के रूप में देता है। हमारे पास वर्तमान व भविष्य में करने के लिये शुभ व अशुभ कर्म ही हैं। सत्य, शुभ व पुण्य कर्मों का परिणाम सुख तथा असत्य, अशुभ व पाप कर्मों का परिणाम दुःख है। जो सत्य है वही पुण्य और जो असत्य कर्म है वही पाप कर्म हैं। कर्मों के स्वरूप व परिणाम को जानने के लिये हमें ईश्वरीय ज्ञान वेद सहित ऋषि-मुनियों के वेदों पर आधारित ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। स्वाध्याय करना हमारे लिये आवश्यक एवं लाभदायक है। यदि हम स्वाध्याय नहीं करेंगे तो हमें अपने कर्तव्यों का ज्ञान नहीं होगा। आज के संसार ने कल्पनातीत भौतिक उन्नति की है परन्तु स्वाध्याय न करने के कारण हमारे वैज्ञानिक व अन्य सभी ज्ञानीजन ईश्वर व जीवात्मा के ज्ञान तथा अपने कर्तव्य-कर्मों से अनभिज्ञ है। स्वाध्याय में प्रमुख ग्रन्थ तो वेद हैं। इसके साथ हमें वेदों पर आधारित सत्यासत्य का ज्ञान कराने वाले अन्य ग्रन्थों का स्वाध्याय भी नित्य करना चाहिये। इससे हमारा आध्यात्म व भौतिक जगत् से सम्बन्धित विषयों का ज्ञान हो सकेगा और हम दोनों का सदुपयोग करके अपने जीवन को दुःखों से पृथक व सुखों से युक्त कर सकेंगे।

स्वाध्याय अपने आप अर्थात् अपनी आत्मा और अपने मनुष्य जीवन को जानने को भी कहते हैं। आत्म चिन्तन करना और आत्मा की उन्नति के उपाय सोचना व उन्हें करना भी स्वाध्याय में ही आता है। आत्म चिन्तन में वेदों का ज्ञान सहायक होता है। अतः सभी मनुष्यों को वेदों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये। वेदों के स्वाध्याय की आवश्यकता की पूर्ति के लिये ऋषि दयानन्द ने वेदों का हिन्दी में भाष्य किया है। उनके वेदभाष्य से हम वेद के मन्त्रों का हिन्दी में अर्थ जान सकते हैं। स्वामी दयानन्द जी के वेदभाष्य की विशेषता यह है कि उन्होंने वेदमन्त्रों के सभी पदों व शब्दों के अर्थ अपने वेदभाष्य में दिये हैं और पदार्थ व शब्दार्थ देने के साथ मन्त्र का भावार्थ भी समझाया है। उनकी शिष्य परम्परा के विद्वानों ने भी उनकी वेदभाष्य पद्धति का अनुकरण किया है। इसे पढ़कर हम ईश्वर के मनुष्यों के हित के दिये गये वेद-ज्ञान को जान व समझकर ईश्वरीय इच्छा के अनुसार वेद निर्दिष्ट कर्तत्यों का पालन करते हुए हम अपने जीवन को सफल कर सकते है।

वेदों के स्वाध्याय के बाद हमें वर्तमान समय में सर्वाधिक लाभ ऋषि दयानन्द जी के सत्यार्थप्रकाश व अन्य ग्रन्थों को पढ़ने से होता है। हम सत्य व असत्य को जानने में सफल होते हैं। सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग ही मनुष्य का कर्तव्य है। यदि हम सत्यार्थप्रकाश नहीं पढ़ेगे तो हमें सत्यासत्य का ज्ञान नहीं होगा। इससे हम सत्य को प्राप्त न होने से अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर सकते। मनुष्य को ईश्वर व जीवात्मा के यथार्थ ज्ञान सहित अपने प्रमुख कर्तव्य ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, मातृ-पितृ की नित्य सेवा, अतिथि सत्कार करने सहित सृष्टि के पशु पक्षियों आदि के प्रति दया व करूणा का भाव रखना चाहिये। इन्हें करके हमारे सद्कर्मों में वृद्धि होगी जिससे हमें सुख अधिक मात्रा में प्राप्त होंगे। वेद आदि ग्रन्थों के स्वाध्याय के साथ हमें योगदर्शन का भी अध्ययन करना चाहियें। इस अध्ययन से हम अपनी आत्मा व परमात्मा को अच्छी प्रकार से जान सकेंगे जो हमारे शरीर स्वस्थ एवं दीघार्य करने सहित हमें ईश्वर को प्राप्त करने व ईश्वर साक्षात्कार करने भी सहायक होगा।

आत्मा चेतन सत्ता है। ज्ञान व कर्म ही इसके स्वभाविक कर्म हैं। मनुष्य जितना अधिक सत्य ज्ञान प्राप्त करता है उसका आचरण करता है, उतना ही वह सुखी होता है। परमात्मा ने मनुष्य की आवश्यकतायें बहुत ही कम बनाई हैं। हमें दो समय भोजन चाहिये। कुछ वस्त्र चाहिये। एक घर चाहिये जहां हम नित्य कर्म अर्थात् पंचमहायज्ञ कर सकें। हमें एक निवास गृह भी चाहिये जिससे हमारे सभी नित्य कर्म व व्यवहार हो सकें। हमें कुछ धन भी चाहिये जिससे हमारी आवश्यकतायें पूरी हो सकें। इन सब आवश्यकताओं की पूर्ति करना बुरा नहीं है। हम इसके साथ यदि एषणाओं व लोभ आदि में फंसते हैं तो इससे हमारा पतन होता है। हमारा स्वाध्याय व ईश्वरोपासना आदि कर्म गौण हो जाते हैं, वह मुख्य नहीं रहते। इसी कारण योगदर्शन में यम व नियमों को प्रथम स्थान दिया गया है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह यम हैं और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर-प्रणिधान नियम हैं। इसके बाद आसन व प्राणायाम आते हैं। हमें इन चारों को अपने जीवन में महत्व देना चाहिये। हम इन्हें जितना महत्व देंगे उतनी ही हमारी आध्यात्मिक व भौतिक प्रगति होगी। वर्तमान में लोग भौतिक प्रगति के मोह व लोभ में फंस कर आध्यात्मिक उन्नति की उपेक्षा कर रहे हैं जिससे उनका यह जीवन व परजन्म दोनों बिगड़ रहा है। हमें इस पर विवेक बुद्धि से निर्णय कर उसका अनुसरण करना चाहिये।

स्वाध्याय हमें भौतिक उन्नति के साथ ईश्वर की प्राप्ति भी करा सकता है। सत्यार्थप्रकाश का स्वाध्याय करने से हमें कुछ घंटो व दिनों में ही जीवात्मा व ईश्वर का सत्य स्वरूप विदित हो जाता है। इसे हम आंशिक आत्म दर्शन व ईश्वर दर्शन कह सकते हैं। इस क्रम में योगदर्शन के अनुसार साधना कर हम ईश्वर के निकट पहुंचना आरम्भ हो जाते हैं। ईश्वर प्राप्ति में ईश्वर, आत्मा और प्रकृति के ज्ञान सहित साधना का महत्व निर्विवाद है। बिना साधना के ईश्वर को जाना तो जा सकता है परन्तु उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार वैज्ञानिक पुस्तक पढ़ कर ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और उसके बाद उसका प्रयोगशाला में प्रयोग कर वह सिद्धि करते हैं। प्रयोग से सिद्ध ज्ञान प्रामाणिक होता है। कुछ ऐसा ही हमें भी साधना के द्वारा करना है। साधना का अर्थ है कि आत्मा को सत्कर्मों से पवित्र बनाकर ध्यान व चिन्तन से समाधि को प्राप्त करना। यह कितने समय बाद प्राप्त होगी, यह कहा नहीं जा सकता। स्वामी दयानन्द जी को समाधि प्राप्त थी। वह प्रतिदिन इसका अनुभव व आनन्द लेते थे। अतः समाधि प्राप्त करना कठिन हो सकता असम्भव नहीं। हमें ध्यान व समाधि के लिये साधना तो करनी ही चाहिये। हम जितना, कम व अधिक, प्रयत्न करेंगे हमें उससे लाभ ही होगा।

स्वाध्याय मनुष्य को मनुष्य बनाने के साथ साथ विवेकशील भी बनाते हैं। इससे अनेकानेक लाभ हैं। हम नियमित स्वाध्याय का व्रत लें और अपना व समाज का कल्याण करने का प्रयत्न करें। इति ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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