हम संसार में मनुष्य जन्म और मृत्यु दोनों को समय समय पर होते देखते हैं। यदि हम अपने परिवार के सदस्यों पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि हमारे माता, पिता हैं, उनके माता-पिता भी होते हैं या रहे होंगे और जिन्हें हम दादा-दादी कहते थे उनके भी माता-पिता अर्थात् परदादी व परदादा थे। आज जब हम इन सभी संबंधियों को देखते हैं तो किसी परिवार में दादा-दादी यदि हैं भी तो परदादा व परदादी तो बहुत ही कम परिवारों में होने की आशा की जाती है। वह और उनसे पूर्व के सभी सम्बन्धी मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं। इससे हमें यह ज्ञान मिलता है कि संसार में जन्म और मृत्यु का चक्र चल रहा है। यह चक्र कब से आरम्भ हुआ ? यदि इस पर विचार करें तो विवेक से ज्ञात होता है कि यह जन्म-मृत्यु का चक्र तभी से चल रहा है जब से कि यह सृष्टि बनी है और पृथिवी पर अमैथुनी प्राणी सृष्टि हुई। उसके बाद से मैथुनी सृष्टि हुई और अमैथुनी के सभी प्राणी अपनी आयु पूरी होने पर मृत्यु को प्राप्त हुए। मैथुनी सृष्टि के प्राणी भी जन्म लेने के बाद अपनी-अपनी आयु भोग कर मृत्यु को प्राप्त होते आ रहे हैं। आज भले ही हम स्वस्थ हों, परन्तु हम यह नहीं कह सकते कि हम मरेंगे नहीं। मृत्यु तो एक दिन आनी ही है, वह कब आयेगी यह निश्चित रूप से वर्ष, महीने व दिन के रूप में नहीं बता सकते परन्तु यह कभी भी आ सकती है।

जन्म व मृत्यु का चक्र अन्य प्राकृतिक नियमों की तरह परमात्मा ने बनाया है। जन्म व मृत्यु की यह व्यवस्था सृष्टि की अटल व्यवस्था है। संसार में यह नियम काम कर रहा है कि जिसका जन्म व उत्पत्ति होती है उसकी मृत्यु व नाश अवश्य होता है। संसार में भौतिक पदार्थों से जो भी वस्तुयें बनी हैं, वह बनने के बाद से ही पुरानी व क्षीण होने लगती हैं और कुछ काल बाद वह नष्ट हो जाती हैं। हम अपने लिये अच्छे वस्त्र सिलवाते हैं। यह बनने के समय नवीन व आकर्षक होते हैं। दिन प्रतिदिन हम इनका उपयोग करते हैं। इससे यह पुराने होते जाते हैं और जीर्ण होकर नष्ट हो जाते हैं। इसी को इनका नाश होना ,कहते हैं। ऐसा ही अन्य सभी भौतिक पदार्थों के विषय में होता है। हमारी यह सृष्टि भी 1.96 अरब वर्ष पहले बनी है। इसकी कुल आयु 4.32 अरब वर्ष है। जब इसका काल पूरा हो जायेगा तो परमात्मा इसकी प्रलय व नाश कर देंगे। प्रलय के बाद यह पुनः अपने मूल स्वरूप सत्व, रज, तम की साम्यावस्था को प्राप्त होती है और इतनी ही अवधि तक प्रलय अवस्था में रहकर ईश्वर के द्वारा इससे पुनः नई सृष्टि का सृजन किया जायेगा। सृष्टि में सृष्टि-प्रलय-सृष्टि का क्रम व चक्र अनादि काल से चल रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा। कभी इस सृष्टि-प्रलय क्रम का अन्त होने वाला नहीं है। इसी को सृष्टि का प्रवाह से अनादि होना कहते है।

मनुष्य का शरीर जड़ है और यह प्रकृति के परमाणुओं व कणों से बना हुआ है। शरीर को बनाने वाला परमात्मा है। कोई भी ज्ञानपूर्वक रचना किसी निमित्त चेतन ज्ञानवान सत्ता से ही होती है। जीवात्मा स्वयं अपने व दूसरों के शरीर की रचना नहीं कर सकते। हां, वह इस कार्य में सहायक हो सकते हैं। परमात्मा जीवात्माओं को सुख व उनके कर्मों का भोग कराने के लिये उनके पूर्व जन्म के कर्मानुसार शरीर को बनाते है। यदि पूर्वजन्म में हमने आधे से अधिक शुभ व पुण्य कर्म किये हैं तो जीवात्मा को मनुष्य का शरीर मिलता है अन्यथा पशु, पक्षी आदि प्राणियों के शरीर मिलतें हैं। मनुष्य योनि उभय योनि हैं जहां वह शुभाशुभ कर्म करने के साथ पूर्व किये हुए कर्मों का फल भी भोगता है जबकि सभी मनुष्येतर योनियों में जीवात्माओं को अपने कर्मों का भोग करना होता है। वह स्वतन्त्र कर्ता नहीं होते जिसका कारण यह है कि उनके पास विचार शक्ति वा बुद्धि नहीं है। उनके पास कर्म करने के लिये हाथ भी नहीं हैं और न ही बोलने व अपनी बात को किसी दूसरे पशु को कहने के लिए वाणी ही है। यही कारण है कि कोई मनुष्य पशु बनना नहीं चाहता परन्तु ज्ञान व संकल्प की कमी के कारण वह अशुभ व पाप करते है जिससे उन्हें परजन्मों में पशु-पक्षियों आदि अनेकानेक यानियों में जन्म लेना पड़ता है। मनुष्यों को पशु आदि निम्न योनियों व मनुष्यों में भी अशिक्षित व अज्ञानी तथा निर्धन व दुर्बल माता-पिता के यहां जन्म मिले, इसके लिये सृष्टिकर्ता ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में ही वेद ज्ञान दिया था। वह ज्ञान आज भी सुरक्षित एवं उपलब्ध है। उस ज्ञान को पढ़कर व उन पर ऋषियों के भाष्य व टीकायें पढ़कर तथा उनके अनुसार अपना जीवन बनाकर हम पशु-पक्षी योनियों में जाने से बच सकते हैं और मनुष्य योनि में भी अच्छे ज्ञानी व वेद धर्मनिष्ठ माता-पिता से जन्म लेकर अपने जीवन को वेद मार्ग पर चला कर सुखी व सम्पन्न रहकर सुख भोग सकते हैं।

मनुष्य का जन्म हमें पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर मिलता है। हम इस जन्म में मनुष्य बने हैं, अतः हमारा कर्तव्य है कि हम अपने कर्तव्यों व अकर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करें। वेद और ऋषि मुनियों के वेदानुकूल ग्रन्थों जैसा निर्भ्रान्त ज्ञान मत-मतान्तरों के ग्रन्थों से प्राप्त नहीं होता। इसके लिये मुख्य आश्रय केवल वेद व वेदानुकूल ग्रन्थ हैं जो ऋषियों के बनाये हुए हैं। इनका स्वाध्याय कर इनसे लाभ उठाया जा सकता है। इसका लाभ यह होता है कि मनुष्य इन ग्रन्थों में उपदिष्ट कर्तव्यों का पालन करके शुभ व पुण्य कर्मों का संग्रह कर सकता है जिससे उसे इस जीवन में सुख मिलता है और उसका परजन्म भी श्रेष्ठ मनुष्य योनि में होने के साथ माता-पिता भी वेद ज्ञानी व देव कोटि के मिलते हैं।

हमारा मानव शरीर पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश इन पंच भौतिक तत्वों से बना है। यह शरीर अमर नहीं हो सकता। यह अधिक से अधिक 1 सौ या तीन चार सौ वर्ष ही जीवित रह सकता है जिसका आधार जीवात्मा का प्रारब्ध और इस जन्म में उसका ज्ञान व कर्म होते हैं। महाभारत काल में 100 वर्ष व उससे अधिक 200 वर्ष तक की आयु के मनुष्य रहे हैं। भीष्म पितामह की आयु लगभग 180 वर्ष थी। आजकल भी 100 व 150 वर्ष की बीच की आयु के मनुष्य जापान व चीन आदि देशों में हैं। इससे अधिक आयु के मनुष्य वर्तमान में किसी देश में नहीं हैं। अतः मनुष्य कितना भी ध्यान रखे, उसे 100 व 150 से अधिक वर्ष की आयु प्राप्त नहीं हो सकती। इस बीच तो मृत्यु आयेगी और आत्मा को अपने शरीर को छोड़कर जाना ही होगा। वेदों में बताया गया है कि परमात्मा ही जीवात्मा को शरीर से युक्त करता है व मृत्यु के समय पर उसे शरीर से वियुक्त करता है। शरीर से वियुक्त करने का कारण यह है मानव शरीर जीवात्मा के रहने योग्य नहीं रहा। उसमें अनेक विकार आ चुके हैं। अब जीवात्मा शरीर में रहकर कर्मों का भोग नहीं कर सकता। यही मृत्यु का कारण प्रतीत होता है। मृत्यु होने के बाद जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार परमात्मा की कृपा से नये माता-पिता, परिवार व नया देह प्राप्त करता है और शिशु अवस्था में जन्म से उन्नत होता हुआ पुनः युवा व वृद्धावस्था तक जाता है। इस नये जीवन में उसे पुनः शिशु, किशोर, कुमार, युवा आदि अवस्थाओं में मिलने वाले सुख पुनः प्राप्त होते हैं जो पूर्वजन्म के शरीर में सम्भव नहीं थे। इससे मनुष्य का पुनर्जन्म भी सिद्ध होता है। जिस प्रकार रात्रि के बाद दिन और दिन के बाद रात्रि अवश्य आती है उसी प्रकार जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म भी निश्चित रूप से होता है। जब तक कर्मों का क्षय और मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार होकर विवेक प्राप्त नहीं होगा, जन्म व मरण का चक्र चलता ही रहेगा। जन्म मरण का चक्र मोक्ष पर विराम पाता है। मोक्ष मिलने पर मनुष्य का जन्म व मरण लम्बी अवस्था के लिये बन्द हो जाता है और जीवात्मा ईश्वर के सान्निध्य में रहकर आनन्द का भोग करता है। यही जीवात्मा की चरम सुख की अवस्था होती है। इसके बाद जीवात्मा की कोई अभिलाषा शेष नहीं रहती। समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार होने पर उसे जीवन का सबसे बड़ा सुख व आनन्द मिलता है। यह आनन्द सभी भौतिक सुखों से परिमाण व अनुभव में सर्वश्रेष्ठ होता है।

जीवात्मा के विषय में यह भी जानना है कि ईश्वर ही इसका सनातन व शाश्वत साथी है। ईश्वर जीवात्मा का पिता, माता, बन्धु व सखा है। वही जीवात्मा का वरणीय व उपासनीय है। जीवात्मा को ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का ध्यान कर उसे अपनाना और अपने दुष्ट कर्मों का त्याग करना ही जीवात्मा की उन्नति है। इसके विपरीत जीवात्मा दुःख व अवनति को प्राप्त होकर अपना परजन्म बिगाड़ता है। जीवात्मा का अपने परिवारजनों व सामाजिक व्यक्तियों से शारीरिक सम्बन्ध होता है परन्तु दो जीवात्माओं का आपस में माता-पिता-भाई-बहिन-मित्र व अन्य कोई सम्बन्ध नहीं होता। मृत्यु होने पर मृतक की जीवात्मा के अपने परिवार व देशवासियों से सभी सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। परिवार के जो लोग जीवित रहते हैं उनका भी मृतक जीवात्मा से कोई सम्बन्ध शेष नहीं रहता। अतः अन्त्येष्टि संस्कार के बाद मृतक की जीवात्मा के लिये कुछ भी किया जाना उचित नहीं होता और न ही वेदों में इसका कहीं विधान है। हां, परिवार के जीवित व्यक्तियों के सुख व शान्ति के लिये हम ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, परोपकार व दान आदि के काम कर सकते हैं। यह भी जान लें कि ईश्वर व जीवात्मा स्वरूप से सत्य, चित्त, अनादि, नित्य हैं। इनका परस्पर सर्वज्ञ-अल्पज्ञ, व्याप्य-व्यापक, स्वामी-सेवक का सम्बन्ध है। ईश्वर अजन्मा है तथा जीव जन्म-मरण में फंसा हुआ है। मनुष्य ईश्वरोपासना, यज्ञ, दान व परोपकार आदि कर्म करके बन्धनों से मुक्त होता है व ऐसा न करने से बन्धनों में फंसता है। ईश्वर सदा मुक्त और आनन्द से युक्त रहता है। जीवात्मा के जीवन का उद्देश्य वैदिक विधि से उपासना करके ईश्वर को पाना है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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