मनुष्य जीवन में सबसे महत्वपूर्ण क्या व कौन है, इसका विचार करने पर जो उत्तर मिलता है वह यह कि हमें अपने शरीर व स्वास्थ्य का ध्यान रखना है। इस शरीर को आसन-प्राणायाम-व्यायाम तथा आहार-निद्रा-ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्वस्थ रखना है। मनुष्य जीवन में सबसे महत्वपूर्ण ईश्वर है और उसके बाद हमारे माता-पिता और आचार्यों का स्थान आता है। हमें यह मनुष्य जीवन ईश्वर ने प्रदान किया है। हमारे इस मनुष्य जीवन का आधार हमारे पूर्व जन्मों के वह कर्म हैं जिनका हमने भोग नहीं किया व अब इस जीवन में करना है। बहुत से कर्मों का भोग हम जीवन में कर चुके हैं तथा शेष जीवन में भी करना है। पूर्वजन्मों के हमारे जो अभुक्त कर्म हैं वह आधे से अधिक शुभ व पुण्य कर्म हैं, वहीं कर्म हमारे इस मनुष्य जीवन का आधार बने हैं। हमें यह मनुष्य जन्म परमात्मा ने अपनी दया व कृपा से दिया है। हम उसके ऋणी हैं। शरीर रूपी भेंट जीवात्मा को केवल मनुष्य ही दे सकता है। सुख व दुःख शरीर से ही भोगे जाते हैं। इसके बाद माता-पिता की भूमिका है। वह हमें जन्म देने में तो ईश्वर के सहायक हैं ही, साथ ही हमारा पालन-पोषण व हमारी शिक्षा की व्यवस्था कर भी उन्होंने हमारे प्रति उपकार किया है। यदि वह न होते तो न हमारा जन्म होता और न हम जीवन में भोगे गये सुखों को भोग पाते और हमने अपने इस जीवन में अगले जन्म के लिये जो शुभ व अशुभ कर्म किये हैं वह न कर पाते। माता-पिता के बाद आचार्य व आचार्यों की हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। माता-पिता हमें जन्म अवश्य देते हैं, पालन पोषण भी करते हैं परन्तु हमें ज्ञान व आचरण की शिक्षा अपने आचार्यों से ही मिलती है। एक कवि ने लिखा है कि शिक्षा के बिना मनुष्य पशु के समान होता है। यह बात पूर्णतः सत्य है। अतः हमें पशु से मनुष्य व ज्ञानी पुरुष बनाने में हमारे आचार्यों का योगदान होता है। अतः ईश्वर, माता-पिता तथा आचार्यों का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण योगदान है।

ईश्वर ने हम व हमारे जैसे अनन्त जीवात्माओं के लिए इस सृष्टि को बनाया है। उसने हमें यह शरीर व इसमें विद्यमान सभी ज्ञान व कर्मेन्द्रियां देने के साथ मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार नामक चार अन्तःकरण भी दिये हैं। मात-पिता, बन्धु आदि भी उसी ने हमें दिये हैं तथा इससे बढ़कर वायु, जल, अग्नि, आकाश सहित अन्न, दुग्ध, फल, ओषधियां आदि भी प्रदान की हैं। वह सर्वव्यापक होने के साथ हमारी हृदय गुहा में विद्यमान है और हमें बुरे काम करने पर उन्हें न करने की प्रेरणा करता है और हम जब परोपकार, दान आदि अच्छे काम करते हैं तो वह हमें उन्हें करने के लिये उत्साहित करता है। ईश्वर हमारी हर क्षण रक्षा करता है। जीवन में कई बार हम दुर्घटनाओं का शिकार होते हैं और बाल-बाल व संयोगवश बच जाते हैं। हमें लगता है कि ऐसी दुर्घटनाओं में ईश्वर ने हमारी रक्षा की है। ईश्वर के उपकारों के दृष्टिगत हमारे भी ईश्वर के प्रति कुछ कर्तव्य बनते हैं। हमें ईश्वर, जीवात्मा और इस सृष्टि के यथार्थ स्वरूप को जानना है। इसके लिये हमें ऋषियों के ग्रन्थों सहित वेद के अध्ययन में प्रवृत्त होना होगा। इन ग्रन्थों के अध्ययन से ही ईश्वर का सत्य स्वरूप ज्ञात होता है। संसार के मत-मतान्तरों के जितने भी ग्रन्थ हैं वह ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को बताने में समर्थ नहीं हैं। उन ग्रन्थों से मनुष्यों को भ्रान्तियुक्त ज्ञान होता है जबकि ऋषियों के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, 11 उपनिषद, 6 दर्शन तथा वेदादि ग्रन्थों का अध्ययन कर हमें ईश्वर, जीवात्मा तथा सृष्टि का यथार्थ ज्ञान होता है। ईश्वर को जान लेने के बाद ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व धन्यवाद ज्ञापित करना हमारा कर्तव्य बनता है। इसके लिए हमें ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव का ध्यान करते हुए अपने गुण, कर्म, स्वभाव व आचरण को सुधारने का प्रयत्न भी करना होता है अन्यथा हम भटक सकते हैं और हमें इस जीवन व परजन्म में भारी दुःख उठाने पड़ सकते हैं। हम ईश्वर को जानकर उसकी स्तुति करें। उससे अपने लिये उत्तमोत्तम ज्ञान, राज्यादि ऐश्वर्य, सुख, बल, आत्मज्ञान व ईश्वर का साक्षात्कार करने की प्रार्थना करें और इन्हें प्राप्त करने के लिये अपने उद्देश्य के अनुरूप आचरण भी करें। परमात्मा ने वेदों में गोघृत व यज्ञीय पदार्थों से अग्निहोत्र यज्ञ करने की आज्ञा भी दी है। उसका पालन भी हमें करना है। इस प्रकार से ईश्वर से हमें अनेक लाभ होते हैं जिससे ईश्वर सभी जीवात्माओं के लिये सर्वतोमहान सिद्ध होता है। ईश्वर से महान संसार में कोई भी नहीं है।

माता-पिता के हमारे ऊपर जो उपकार हैं उनका भी हमें पूर्ण ज्ञान होना चाहिये। जब हम अपने माता-पिता के उपकारों को स्मरण करते हैं तभी हमें उनका हमारे जीवन में योगदान का अनुमान होता है। हमें ज्ञात होता है कि हम अपने बच्चों से जो आशा व अपेक्षायें करते हैं वैसी ही उम्मींदे व अपेक्षायें हमारे माता-पिता भी हमसे करते हैं। विद्वान कहते हैं कि कोई सन्तान अपने माता-पिता की कितनी भी सेवा कर ले, परन्तु वह उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकती। रामायण में राम चन्द्र जी का उदाहरण हमारे सामने है। अपने पिता के वचनों को निभाने के लिये राम राजा के उत्तराधिकारी होने पर भी सब कुछ त्याग कर 14 वर्ष के लिये वन में चले जाते हैं और पूरी अवधि व्यतीत कर ही वापिस लौटते हैं। जिस सौतेली माता ने उन्हें वनवास भेजा था उसके प्रति भी उनके मन में कभी वैर भाव का कोई चिन्ह दिखाई नहीं देता। वनवास के प्रकरण में राम अपने पिता दशरथ को कहते हैं कि आप मुझे अपने दुःख व निराशा का कारण बताईये। यदि आप मुझे जलती हुई अग्नि में कूदने के लिये कहेंगे तो भी मैं बिना विचार किए अग्नि में कूद जाऊंगा। एक पल के लिये भी उसके परिणामों पर विचार नहीं करूंगा। यह एक आदर्श पुत्र का कार्य है व होना चाहिये। राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे, वह न परमात्मा थे और न ही ईश्वर का अवतार। आज न राम जैसे पुत्र हैं और न दशरथ जैसे पिता। इसका एक कारण राम को ईश्वर का अवतार मानना है। यदि हम राम को मर्यादा पुरुषोत्तम मानकर उनके जीवन का अनुकरण करते तो हम भी चरित्र में उनके जैसे होते। सन्तान के निर्माण में माता-पिता के योगदान के आधार पर ही हमारे ऋषियों ने पितृ यज्ञ का विधान किया है। पितृ यज्ञ में सन्तान को माता-पिता की धर्मानुकूल आज्ञा पालन करने सहित उन्हें भोजन, वस्त्र, ओषधि, सेवा आदि से सन्तुष्ट रखना होता है। यह तभी हो सकता है कि जब हम वेदादि साहित्य का अध्ययन कर इन बातों को समझे और आर्यसमाज आदि के सत्संगों में जाकर विद्वानों के प्रवचन आदि सुनते रहे। यदि सन्तानें अपने माता-पिता की सेवा करेंगी तो उन्हें उनका आशीर्वाद मिलेगा। परमात्मा भी सन्तानों द्वारा माता-पिता की सेवा से प्रसन्न होते हैं और उन्हें उनकी माता-पिता की सेवा-सुश्रुषा के प्रतिकार के रूप सुख, उत्तम स्वास्थ्य, धन एवं समृद्धि आदि प्रदान करते हैं।

आचार्य का सभी मनुष्यों के जीवन में उल्लेखनीय योगदान होता है। यदि आचार्य न हों तो हम शिक्षित और ज्ञानी नहीं बन सकते। आचार्य हमें भाषा का ज्ञान देने सहित हमें शास्त्रीय ज्ञान देते हैं और सांसारिक ज्ञान के अर्न्तगत हिन्दी साहित्य, अंग्रेजी साहित्य, गणित, विज्ञान, कला, कम्प्यूटर, इंजीनियरिंग व चिकित्सा आदि विषयों का ज्ञान कराते हैं जिससे हम पशु से मनुष्य बनते हैं। आज हम जो कुछ भी हैं वह ईश्वर, माता-पिता व आचार्यों की देन हैं। यदि हमें और अच्छे आचार्य मिलते तो हम वर्तमान से भी कहीं अधिक योग्य व विद्वान होते। आचार्य के ऋणों से भी कोई शिष्य कभी ऋणी नहीं हो सकता। इसके लिये हमें उनकी पितृ व अतिथि यज्ञ के समान सेवा व सत्कार करना चाहिये। आचार्यों का सेवा सत्कार यदि उत्तम रीति से किया जायेगा तो आचार्य भी अपने शिष्यों के प्रति अत्यधिक स्नेह भाव रखेंगे और उन्हें अपने आशीर्वाद सहित अधिक अच्छी शिक्षा व ज्ञान देकर श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न करेंगे। ऐसा होने पर हमें, हमारी सन्तानों, देश तथा समाज को लाभ होगा। अतः आचार्यों के प्रति कृतज्ञता के भाव रखने सहित उनका सम्मान व सेवा करना प्रत्येक शिष्य का कर्तव्य है। ऐसा करके हम अपने ऊपर इनके ऋणों से कुछ सीमा तक उऋण हो सकते हैं।

हमारा जीवन ईश्वर, माता-पिता तथा आचार्यों के उपकारों से ऋणी हैं। हमें इसका ज्ञान होना चाहिये और अपने कर्तव्यों का निर्वाह जैसा हमारे ऋषियों ने शास्त्रों में किया तथा सत्यार्थप्रकाश, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु आदि ग्रन्थों में जो विधान हैं, उसके अनुरूप करके कृतघ्नता के दोष से मुक्त होना चाहिये। इससे हमारा यह जीवन तथा परजन्म भी श्रेष्ठ बनेगा। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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