हम संसार में मनुष्य व पशु-पक्षी आदि अनेकानेक जीव-जन्तुओं को देखते हैं। इन सब प्राणियों में मनुष्यों की ही भांति एक-एक जीव अर्थात् चेतन सत्ता विद्यमान है। मनुष्य की गणना की अपनी सीमायें हैं। एक सीमा तक तो मनुष्य गणना कर सकते हैं परन्तु उसके बाद गणना तो हो सकती है परन्तु उस गणना को संख्या में समझना अनन्त कहने के समान होता है। इसी प्रकार से जीवात्माओं की इस ब्रह्माण्ड में संख्या अनन्त है। यह सभी जीवात्मायें ईश्वर का परिवार है। ईश्वर की स्थिति एक माता, पिता, आचार्य, मित्र व बन्धु सहित एक न्यायकारी सर्वेश्वर व राजा की है। वह जीव रूपी अपनी सभी सन्तानों को उनके शुभ व अशुभ कर्मों का यथावत् सुख व दुःख रूपी फल देता है। यदि हम शुभ वा पुण्य कर्म करते हैं तो हमें सुख की प्राप्ति होती है और यदि हम अशुभ या पाप कर्म को करते हैं तो हमें दुःख की प्राप्ति होती है। परमात्मा का नियम है कि जीवात्मा को अपने किये प्रत्येक शुभ व अशुभ कर्मों के फल अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। मनुष्य बुरे कर्मों का प्रायश्चित अथवा शुभ कर्मों को बड़ी मात्रा में करके अपने सुखों को बढ़ा सकता है परन्तु उसने अतीत में जो अशुभ व पाप कर्म किये हैं, उसका दुःख रूपी फल उसे भोगना ही पड़ता है। मनुष्य दुःख को शान्तिपूर्वक भोगे या फिर दुःखों को रोकर भोगे, दुःख तो भोगने ही होते हैं। परमात्मा किसी मनुष्य के पाप कर्मों को क्षमा नहीं करता है। न केवल वैदिक धर्मी अपितु जितने मत-मतान्तर हैं, उन सबके अनुयायियों को अपने किये पाप कर्मों को भोगना ही होता है भले ही कोई पाप कर्मों को अपने मत की पुस्तक के विधान को मानकर करे। सच्चे धार्मिक लोग ईश्वर की व्यवस्था को जानते व समझते हैं, अतः वह दुःख आने पर शान्ति, सन्तोष व धैर्य आदि गुणों को बनाये रखते हैं जिससे उनका दुःख भोगना अन्यों की तुलना में सामान्य व सरल होता है।

संसार में मनुष्यादि जितनी भी योनियां हैं उसमें मनुष्य सबसे अधिक भाग्यशाली है। मनुष्य को परमात्मा ने ज्ञान प्राप्ति के लिये बुद्धि, सत्य ज्ञान के पर्याय वेद, वाणी तथा हाथ आदि इन्द्रियां दी हैं। इन इन्द्रियों का सदुपयोग कर मनुष्य अपने जीवन को सुखी बना सकता है व बनाता भी है। हमारे देश में सृष्टि के आरम्भ से महाभारतकाल तक ऋषि परम्परा रही है। सभी ऋषि वेदों के यथार्थ अर्थों के ज्ञानी व विद्वान होते थे। उनका जीवन वेदमय होता था। वह अपना समय वेदों के अध्ययन, योगाभ्यास व उपासना, अग्निहोत्र यज्ञ आदि कर्म, अध्यापन, परोपकार, चिन्तन-मनन-ध्यान आदि कार्यो में व्यतीत करते थे। वह ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। शुद्ध शाकाहारी भोजन जिसमें गोदुग्ध तथा फलों की उचित मात्र होती थी, सेवन करते थे। सूती वस्त्र धारण करते थे। अपने आचार्यो व गुरुओं को माता-पिता व उनसे भी अधिक सम्मान देते थे। इन सब कार्यो को करके वह प्रायः सुखी रहते थे। उन्हें शारीरिक रोगादि बहुत कम हुआ करते थे जिसका आयुर्वेदिक उपचार वह जानते थे और कुछ समय में ही स्वस्थ भी हो जाते थे। महाभारत काल के बाद भी अनेक विद्वान व ज्ञानी पुरुष हुए हैं जो वैदिक परम्पराओं का ही पालन जीवन भर करते रहे और उन्होंने पुण्य व यश अर्जित किया है। ऐसा ही अनेक नामों में से एक नाम ऋषि दयानन्द सरस्वती जी का है। ऋषि दयानन्द ने भी अपना जीवन वैदिक मान्यताओं का पालन करते हुए व्यतीत किया। उनका जीवन आदर्श मनुष्य जीवन था। उनका जीवन अनेक पूर्व महापुरुषों से अनेक बातों में अधिक महत्वपूर्ण व मानवता की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी था। उन्होंने अपने प्राणों का मोह त्याग कर व अनेक मत-मतान्तरों व अंग्रेजी विदेशी सरकार के कोप की भी परवाह न कर देश, समाज व मनुष्यता के लिये अपना जीवन अर्पित किया और उसी के लिये वह बलिदान भी हुए। यदि हम उनकी शिक्षाओं का पालन करते हुए अपना कुछ जीवन उनके जैसा बना लेते हैं तो यह हमारे वर्तमान व भविष्य के लिये उन्नति व सुख का कारण हो सकता है। ऋषि दयानन्द जी के प्रमुख अनुयायियों स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी तथा महात्मा हंसराज जी आदि का जीवन भी अनुकरणीय एवं प्रशंसा के योग्य है। हमें उनके जीवन एवं कार्यों का अध्ययन कर उनसे प्रेरणा लेनी चाहिये।

परमात्मा ने जीवों को न्याय प्रदान करने के लिये अपना कर्म-फल सिद्धान्त बनाया हुआ है जिसके अनुसार वह सभी जीवों का न्याय करता है। ईश्वर की न्याय प्रणाली सनातन एवं शाश्वत है। ईश्वर की न्याय-प्रणाली आदर्श न्याय-प्रणाली है जिसमें कभी कोई परिवर्तन व सुधार की आवश्यकता नहीं होती। इसका एक कारण ईश्वर का सर्वज्ञ होना है। मनुष्य अल्पज्ञ, एकदेशी, सुख-दुःख व रोगादि से ग्रस्त रहता है। उसका ज्ञान भी न्यूनाधिक होता है। अतः उसके सभी कार्य पूर्णतया निर्दोष नहीं हो सकते। इसके लिये उसे ईश्वर के ज्ञान वेदों का आश्रय लेना चाहिये। महाराज मनु आदि ऋषियों ने अपने जो ग्रन्थ रचे हैं उसमें उन्होंने वेदों का आश्रय लिया है। इस कारण से उनके ग्रन्थ पूर्णता को लिये हुए हैं। महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में वेदानुकूल सिद्धान्तों का ग्रहण एवं वेद विरुद्ध मान्यताओं का त्याग करने का आह्वान किया है। यह उचित ही है। इसका पालन करने से मनुष्य का कल्याण होता है और वह ईश्वर की न्याय व्यवस्था से वेदविरुद्ध कार्यों को करने से दण्ड से बच जाता है। परमात्मा ने इस जन्म में जिन जीवात्माओं को मनुष्य का जन्म दिया है उसका कारण उनके पूर्वजन्म के शुभ कर्म हैं। पूर्वजन्म में उन्होंने 50 प्रतिशत से अधिक शुभ व पुण्य कर्म किये थे जिस कारण परमात्मा ने जीवों को मनुष्य जन्म दिया है। पशु, पक्षियों एवं अन्य जीव-जन्तुओं के कर्म 50 प्रतिशत व उससे अधिक अशुभ व पाप-कर्म थे, जिस कारण से वह मनुष्य योनि पाने से वंचित हुए हैं। अपनी-अपनी योनियों में सभी प्राणी अपने पूर्व जन्मों का फल भोग रहे हैं। मनुष्यों का कर्तव्य हैं कि वह मनुष्यों सहित सभी योनियों के प्राणियों के अपने कर्म-फल भोग के कार्यों में सहयोगी बनें। ऐसा करना शुभ कर्मों को करना है। पशुओं की हत्या व मांसाहार करना ईश्वर के कर्म-फल भोग की व्यवस्था के कार्य में बाधा पहुंचाना है जिसका दण्ड मनुष्यों को इस जन्म व परजन्मों में मिलता है। जो मनुष्य कर्म-फल व्यवस्था का अध्ययन करते हैं, उसे समझते हैं तथा पाप कर्मों का त्याग करते हैं, वह मनुष्य वस्तुतः सौभाग्यशाली हैं। उनका वर्तमान व भावी दोनों जन्म उन्नति व सुख को प्राप्त होंगे, ऐसा तर्क, युक्ति व वैदिक साहित्य के अध्ययन से सत्य प्रतीत होता है। अतः संसार के सभी मनुष्यों को मत-मतान्तरों की मिथ्या मान्यताओं का त्याग कर वेद के सिद्धान्तों व मान्यताओं का पालन करना चाहिये। इसी में सब मनुष्यों का कल्याण हैं।

समस्त जीव जगत परमात्मा का अपना एक परिवार है। यह परिवार ऐसा ही है जैसे कि जगत में माता-पिता, सन्तान, आचार्यगण, राजा आदि होते हैं। परमात्मा ही माता-पिता, आचार्य एवं आदर्श राजा है। वह सब जीवों का कल्याण व उन्हें सुख ही देता है। किसी व्यक्तिगत आधार पर अकारण व अपनी मर्जी से वह किसी मनुष्य व जीव को दुःख व किसी को सुख नहीं देता अपितु इस कर्म-फल व्यवस्था में वह पूर्णतः निष्पक्ष रहते हुए जीवों के पूर्व किये हुए कर्मों के अनुसार समान व समदर्शी होकर न्याय करता है। परमात्मा ने हमें मनुष्य जन्म दिया, अपनी कृपा से हमें मानव का श्रेष्ठ शरीर दिया, शरीर में भी पांच ज्ञानेन्द्रिया, पांच कर्मेन्द्रियां, मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार सहित शरीर के भीतर भोजन को पचाने व उससे अष्ट-धातु बनाने के अनेक पुष्ट यन्त्र दिये हैं। इसका वह किसी से कोई शुल्क नहीं लेता। यह शरीर व सृष्टि के पदार्थ उसने हमें त्यागपूर्वक भोग करने के लिये दिये हैं। ईश्वर व ऋषियों की शिक्षा है कि हमें परिग्रही न होकर अपरिग्रही होना चाहिये। यदि हम वेद के नियमों का पालन करते हैं तो फिर ईश्वर हमें धर्म, अर्थ, काम सहित मोक्ष की प्राप्ति भी कराता है। मोक्ष ही संसार में मनुष्य का सबसे उत्तम धन वा सम्पत्ति है जो सच्चे ईश्वर ज्ञानी, ईश्वर उपासना को सिद्ध करने वाले योगी तथा वेद की शिक्षाओं से देश व विश्व का हित करने वाले मनुष्यों वा योगियों को प्राप्त होता है। हमारे सभी ऋषि व उपासना करने वाले योगी मोक्ष को ही अपना लक्ष्य मानकर साधना करते थे। वर्तमान युग में भी दुःखों की सर्वथा निवृत्ति वा मोक्ष, ईश-साधना व वैदिक साधनों से ही प्राप्त किया जा सकता है।

हमें ईश्वर को अपना माता-पिता, आचार्य, राजा और न्यायाधीश मानकर उसके द्वारा वेद में वर्णित कर्तव्यों का पालन करना चाहिये। सभी जीव अर्थात् मनुष्य व सभी प्राणी हमारे बन्धु बान्धव हैं। हम इन सभी जीवों के अतीत के जन्मों में अनेक अनेक बार बन्धु, माता-पिता, आचार्य, मित्र व शत्रु रहे हैं। यह वस्तुतः हमारे समान व हमारी दया, करूणा, प्रेम, स्नेह आदि की अपेक्षा रखते हैं। हमें इन्हें अपने परिवार के सदस्य के समान ही आदर सत्कार देना चाहिये। अहिंसक जीवों के प्रति अहिंसा का ही भाव रखना चाहिये। हिंसक जीव जिनसे हमें हानि पहुंचती हैं उनके प्रति शास्त्रीय मर्यादा व यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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