मनुष्य योनि सभी प्राणी-योनियों में सर्वश्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि मनुष्य को परमात्मा ने बुद्धि व हाथ आदि अंग देने के साथ शरीर की रचना इस प्रकार की है जिससे वह प्रायः स्व-इच्छित सभी कार्यों को कर सकता है। मनुष्य जो कार्य कर सकता है वह अन्य प्राणी योनियों के शरीरधारी नहीं कर सकते। यह मनुष्य योनि व अन्य योनियों में अन्तर है। पशु आदि प्राणी मनुष्य की भांति बोल नहीं सकते, अपनी व्यथा नहीं बता सकते और न ही अपनी सुख सुविधाओं के अनुसार अपने लिये घर, वस्त्र एवं भोजन ही प्राप्त कर सकते हैं। परमात्मा ने हमें मनुष्य योनि इस लिये दी है जिससे कि हम अच्छे, श्रेष्ठ, वेदानुकूल, पुण्य व परोपकार के कर्म करें। पहले भी हमने इसी प्रकार के कुछ व अधिकांश कार्य किये थे जिस कारण हमें इस जन्म में मनुष्य का शरीर व माता-पिता आदि मिले हैं। इस जन्म में हमारे जैसे कर्म होंगे उसी के अनुरूप ही हमारा अगला जन्म होगा। यदि हमने लोभ व सुख सुविधाओं का ही वरण किया और वेदानुकूल परोपकार सहित ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना व यज्ञादि कर्म नहीं किये तो हमारा अगला जन्म जरुरी नहीं की मनुष्य का होगा। यह पूरी सम्भावना है कि वेद विहित कर्म न करने पर हमारा व आपका जन्म अनेक व असंख्य पशु व पक्षियों में से किसी एक योनि में भी हो सकता है।

एक स्वाभाविक प्रश्न यह होता है कि हम ईश्वर की उपासना क्यों करें? हम अपने वर्तमान जीवन में जिससे कोई लाभ व सुविधा प्राप्त करते हैं तो उसे धन्यवाद करते हैं। जब हम छोटी-छोटी सेवाओं व कार्यों के लिये दूसरों का धन्यवाद कर सकते हैं तो जिस परमात्मा ने हमें यह मानव शरीर जिसका एक अंग भी करोड़ों रुपये व्यय कर कोई देने को तैयार नहीं होता, वह हमें परमात्मा से बिना कुछ भुगतान किये मिला है। न केवल मानव शरीर ही मिला अपितु हमारे माता-पिता, भाई-बहिन, दादी-दादा, नानी व नाना एवं अन्य परिवारजन जो हमें स्नेह देते हैं, ममता करते हैं, हमारा पोषण करने सहित हमें सुख देते हैं, वह सब परमात्मा द्वारा प्रदान किये गये हैं। हमारे शरीर में ज्ञान व कर्म करने की जो शक्ति है, उसे देने में भी परमात्मा का ही योगदान व कृपा है। अतः सब मनुष्य व प्राणी ईश्वर के आभारी व ऋणी है। ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन ईश्वर के प्रति सच्चे भावों से उसका धन्यवाद व प्रेम भावना का प्रकाश कर ही किया जा सकता है। ईश्वर अपनी उपासना करने के लिये किसी को बाध्य नहीं करता। हम जब किसी से उपकृत होते हैं तो वह हमें यह नहीं कहते कि हमारा धन्यवाद करो, हम स्वयं ही उनका धन्यवाद करते हैं क्योंकि ऐसा करना उचित होता है। अतः परमात्मा को जानना, उसके गुणों का वर्णन करना, चिन्तन व मनन करना, उसके अनुरूप स्वयं को बनाना, कोई असत्य व दूसरों के अहित का काम न करना, दूसरों को सुख देना, परिश्रमी जीवन व्यतीत करना व दूसरों को ज्ञान देना व सत्य मार्ग दिखाना मनुष्य के कर्तव्य हैं। ऐसा करने से ही ईश्वर का धन्यवाद होता है व ईश्वर हम पर सुख की वर्षा करते हैं। जो मनुष्य यह कार्य करता है वह समाज में यश व कीर्ति को प्राप्त होता है। महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज जी, स्वामी दर्शनानन्द जी आदि हमारे आदर्श हैं। हम इन ईश्वरभक्त व वेदभक्त महात्माओं वा महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को उनके जैसा बना सकते हैं। हमें उनके जैसा बनना ही हमारे जीवन की सार्थकता है।

ईश्वर को जानने के लिये वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन व स्वाध्याय भी आवश्यक है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर का सत्य ज्ञान कराना बहुत आसान बना दिया है। इसके लिये हमें सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला, आर्यसमाज के नियम आदि ग्रन्थों को पढ़ना है। प्रतिदिन एक घण्टा भी यदि हम स्वाध्याय करें तो इन ग्रन्थों को पढ़ सकते हैं और सभी आध्यात्मिक, सामाजिक व देश के शासन के संचालन व्यवस्था का ज्ञान व अन्य बहुत कुछ जान व प्राप्त कर सकते हैं। इससे ईश्वर के स्वरूप, गुण, कर्म व स्वभाव सहित उपासना करने की विधि का भी ज्ञान प्राप्त होने सहित उपासना करने की प्रेरणा मिलती है। अतः हमें स्वाध्याय की रुचि बनानी चाहिये और प्रतिदिन न्यूनतम एक घण्टा ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ आदि कर्म सहित एक घण्टा व अधिक समय तक स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये। ऐसा करके आप भविष्य के वैदिक विद्वान बन सकते हैं, आपके समस्त सन्देह दूर हो सकते हैं, इसके किंचित सन्देह नहीं है।

यदि हम वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करने के साथ ईश्वर की उपासना करेंगे तो हमारे सभी दुःख व कष्ट दूर हो जायेगें। हमारा यह जीवन तो सुखी व सम्पन्न होगा ही, हम निरोग व दीर्घायु होंगे और इसके साथ ही हमारा अगला जन्म भी सुधरेगा। अनुमान प्रमाण से यह कहा जा सकता है कि हमारा अगला जन्म व बाद के जन्म भी सर्वश्रेष्ठ मनुष्य योनि में ही प्राप्त होंगे। इतना अधिक लाभ जिस कार्य को करने से हमें होगा, जो लोग उसे नहीं करते व करने को सहमत नहीं होते उन्हें मूर्ख व महामूर्ख ही कहा जा सकता है। यदि हम भी नहीं करते तो हम भी ईश्वर के प्रति कृतघ्न और महामूर्ख ही सिद्ध होते हैं। अतः हमें ईश्वर के अस्तित्व व स्वरूप सहित अपनी आत्मा के स्वरूप, अपने अतीत व भविष्य के जन्मों व सुख-दुःख एवं हानि लाभ पर विचार करना चाहिये। ऐसा करने से हम बाद में पछतायेंगे नहीं और हमारी मृत्यु व जीवन भी सुखों से पूरित होगें। यह अनुभूति वेदाध्ययन व अनुशीलन से ज्ञात होती है।

वेद ईश्वर प्रदत्त सत्य ज्ञान है। ऋषि दयानन्द ने अपने अमर ग्रन्थों सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि में इस बात को सत्य सिद्ध किया है। यही कारण था कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारतकाल तक के 1.96 अरब वर्षों से अधिक समय तक पूरे संसार में वैदिक धर्म और संस्कृति का ही प्रचार व प्रचलन था। आज जो विधर्मी हैं इन सबके पूर्वज वेदों का अध्ययन व आचरण करते थे और ईश्वर व वेद के भक्त थे। अब अविद्या के कारण वह वेदों व ईश्वर के सच्चे स्वरूप से दूर हो गये हैं। स्वामी दयानन्द जी ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ, ब्रह्मचर्य व योग आदि की शक्तियों से हमें वेदों का ज्ञान सुलभ करा दिया है। हम ऋषि दयानन्द जी के आभारी हैं। विगत 150 वर्षों में ऋषि दयानन्द द्वारा प्रदत्त व प्रचारित ज्ञान से करोड़ों लोगों ने लाभ उठाया है और अपने जीवन को संवारा है। हम भी ऐसा कर सकते हैं।

मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर की वेदों में दी गई शिक्षा वा आज्ञा का पालन करना है। इसी में हमारा कल्याण निहित है। दूसरा अन्य मार्ग मनुष्य के कल्याण का नहीं है। आईये, वेद व ऋषियों द्वारा प्रदर्शित मार्ग पर चलने का व्रत लें। प्रतिदिन ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय करें। सत्यार्थप्रकाश का अवश्य ही अध्ययन करें व दूसरों को करने की प्रेरणा करें। इससे हमें धर्म लाभ होगा और हमारा इहलोक व परलोक दोनों संवरेंगे। इति ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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