आज कल की खबरों में एक नाम बड़ा मशहूर हो रहा है ये नाम है भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित पहले कश्मीरी युवक शाह फैसल का. शाह फैसल कोई ऐसा नाम नहीं है जो हम पहली बार सुन रहे है नहीं साल 2009 में उस समय पूरे देश में खुशी मनायी गयी थी जब शाह फैसल भारतीय सिविल सेवा परीक्षा टॉप करने वाले पहले कश्मीरी बने थे.

यही नहीं उस के तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने भी व्यक्तिगत तौर उनकी सफलता पर उन्हें बधाई दी थी और कहा था कि वह जम्मू और कश्मीर राज्य में यूथ आइकॉन की तरह उभरे हैं. किन्तु कश्मीर के इस यूथ आइकन ने 9 जनवरी को अचानक अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया. और अपने इस्तीफे का कारण बताते हुए कहा कि घाटी में कथित हत्याओं मामलों में केंद्र की ओर से गंभीर प्रयास न करना हैं.

हमें नहीं पता शाह फैसल ने किन हत्याओं से दुखी होकर अपना इस्तीफा दिया आतंकियों की, सेना पर पत्थर बरसाते पत्थरबाजों की या फिर हर रोज कश्मीर में शहीद हो रहे भारतीय सेना के जवानों की? कुछ भी हो यह इस्तीफा उनका दुःख सेना के जवानों की शाहदत से तो कतई नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि उनका आरोप एक पढ़ें तो दर्द एक आईएएस अफसर के मुकाबले किसी मस्जिद के मुल्ला की तरह छलका

वह कहते है कि हिंदूवादी ताकतों द्वारा करीब 20 करोड़ भारतीय मुस्लिमों को हाशिये पर डाले जाने की वजह से उन्होंने इस्तीफा दिया तथा भारत में अति-राष्ट्रवाद के नाम पर असहिष्णुता एवं नफरत की बढ़ती संस्कृति के विरुद्ध उन्होंने इस्तीफा दिया है. बिलकुल ऐसा ही बयान कुछ समय पहले उप-राष्ट्रपति पद का कार्यकाल पूरा होने से पहले हामिद अंसारी ने एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा था कि देश के मुस्लिमों में बेचैनी और असुरक्षा की भावना दिखाई पड़ती है.

कुल मिलाकर यदि सारे मामले का निचोड़ देखें तो शाह फैसल अब राजनीति में आकर कश्मीर के युवाओं की किस्मत पलटने वाले है. भारतीय प्रशासनिक सेवा में 10 वर्ष गुजारने के बाद अब कश्मीर यूथ आइकन एक मुल्ला बनने की दौड़ में शामिल हो गया हैं. इस पूरे प्रकरण से क्या यह साबित नहीं दिख रहा कि कश्मीर के युवाओं को रोजगार से ज्यादा राजनीति या आतंक पसंद है?

सवाल थोडा कड़वा लगेगा लेकिन मीठा सवाल कहाँ से लाये जो दिख रहा है उससे मुंह मोड़कर मीठा सवाल वही लोग कर सकते है जिन्हें कश्मीर को युवाओं का बुद्धू बनाकर वोट चाहिए. अब वह लोग क्या जवाब देंगे जो अरसे से यह गीत गा रहे है कि घाटी में एक व्यापक रोजगार योजना की जरूरत है.

क्योंकि कश्मीर यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहे मोहम्मद रफी अचानक यूनिवर्सिटी छोड़ देते है और आतंक का रास्ता पकड़ लेते हैं. इसके बाद शम्स-उल हक नाम का एक डॉक्टर जकौरा कैंपस में यूनानी मेडिसन और सर्जरी में डॉक्टरी की पढ़ाई करते हुए आतंक को महिमामंडित कर आतंक का रास्ता चुन लेता हैं. पिछले साल अप्रैल में सेना की नौकरी छोड़कर इदरीस सुल्तान और न जाने कितने जवान एक के बाद एक करके आतंक का रास्ता पकड लेते हैं.

फिर हमें याद आता है राहुल गाँधी का वह बयान जब वह जर्मनी के हैमबर्ग में दिए गए अपने भाषण में कहते है कि बेरोजगारी ही आतंकी पैदा करती है. क्या कोई बता सकता है कश्मीरी डॉक्टर प्रोफेसर और सेना के जवान जो आतंकी बने क्या ये लोग बेरोजगार थे.?

कुछ लोग सोच रहे होंगे कि यह लोग राजनीति या आतंक का रास्ता क्यों चुन रहे है दरअसल कश्मीर में दो ही लोगों का महिमामंडन किया जाता है एक तो आतंकी दूसरा राजनेता चाहे उसमे मुफ्ती परिवार हो, अब्द्दुला परिवार हो या फिर तथाकथित आजादी की जंग लड़ने वाले हुर्रियत और उसके समर्थकों द्वारा आतंकवादियों को महिमामंडित करना भी हो सकता है. आतंकियों के जनाजे में जुटने वाली भारी भीड़, नारेबाजी और समर्थन का प्रदर्शन अन्य युवाओं को भी इसी रास्ते पर चलने के लिए उकसाता है.

हो सकता है शाह फैसल को भी यही रास्ता रास आया हो वरना अपने पद पर रहते हुए वह ज्यादा बेहतर तरीके से कश्मीरी युवाओं को मुख्यधारा की शिक्षा, कश्मीर में पर्यटन की नई संभावनाओं के द्वार खोलने के साथ प्राइवेट सेक्टर अन्य सरकारी नौकरियों में शामिल होकर कश्मीर और राष्ट्र के विकास के प्रेरित कर सकते थे. किन्तु दुखद की उनके दिमाग में भी मुस्लिम राष्ट्रवाद का उदय, कट्टर धार्मिक विचार और सुरक्षा बलों के प्रति वही विचार उपजे जो वहां की एक मस्जिद के मुल्ला के दिमाग में उपजते हैं...

 

ALL COMMENTS (0)