हम जिस संसार में रहते हैं वह हमें बना बनाया मिला है। हम अपने लिये घर बनाते हैं या किराये का घर लेकर रहते हैं। अपना मकान हम स्वयं बनाते हैं या अपने धन से खरीदते हैं और किराये का मकान किसी दूसरे व्यक्ति का होता है जो उसे अपने धन और पुरुषार्थ से बनाता है। हम उसे उसके धन व पुरुषार्थ के बदले में मासिक किराये के रूप में धन देते हैं क्योंकि आजकल पुरुषार्थ को धन देकर खरीदा व बेचा जाता है। इसी प्रकार हमारी यह सृष्टि हमें बनी बनाई मिली है और कोई हमसे इसका किराया भी नहीं मांगता है।

हम इस सृष्टि का उपभोग करने के लिये किराये के रूप में उस सत्ता को जिसने यह समस्त संसार बनाया है, अपनी किस वस्तु वा धन आदि का दान दे सकते हैं? इसका उत्तर यह है कि हमारे पास अपनी ऐसी कोई वस्तु नहीं जिससे इसका ऋण चुकाया जा सके। हमारा कर्तव्य है कि हम सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता और इसके पालक को जाने। हम उसे सृष्टिकर्ता व स्रष्टा के नाम से पुकार सकते हैं। यह सृष्टि ऐश्वर्य से युक्त है। धरती, वायु, जल, अन्न, फूल, फल, पशु, पक्षी आदि एक प्रकार का धन व ऐश्वर्य है। यह सब उस सृष्टिकर्ता का ही है। सब ऐश्वर्यों के स्वामी को ईश्वर कहा जाता है। इसलिये वैदिक धर्म व संस्कृति में सृष्टि बनाने वाली सत्ता का एक नाम ईश्वर भी है। यह सृष्टि वा ब्रह्माण्ड अति विशाल व अनन्त परिमाण वाला है।

अतः उस ईश्वर को भी अनन्त व सर्वव्यापक मानना होगा। वह आंखों से दिखाई नहीं देता। इसका कारण उसका अतिसूक्ष्म होना है। अतः निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि सृष्टिकर्ता ईश्वर सर्वव्यापक एवं सूक्ष्म सत्ता है। विज्ञान का नियम है कि कोई भी वस्तु यदि बनती है तो वह अपने उपादान कारण से बनती है जो कि भौतिक व जड़ होता है। उस मूल कारण पदार्थ जिससे वस्तुयें बनती हैं वह अनादि व अनुत्पन्न होता है। उसका विनाश नहीं किया जा सकता। सत्तावान का अभाव नहीं होता और अभाव से भाव व सत्तावान पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस कारण ईश्वर अनादि व अविनाशी सिद्ध होता है।

इसी प्रकार इस सृष्टि का अनादि उपादान कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति सिद्ध होती है। इस पूरे विषय को जानने के लिये हमें वेद, दर्शन, उपनिषद, सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों की शरण लेनी पड़ती है जहां ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति का यथार्थ स्वरूप व इनके गुण, कर्म व स्वभाव हमें प्राप्त व ज्ञात होते हैं। इस ज्ञान को पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के बाद लोग अपने आलस्य, प्रमाद एवं कुछ अन्य कारणों से भूल चुके थे। ऋषि दयानन्द ने विद्याध्ययन, ब्रह्मचर्य व्रत का पालन और योगाभ्यास किया, समाधि को सिद्ध किया, घोर तप एवं पुरुषार्थ किया और साथ ही इन ग्रन्थों को प्राप्त कर इनका अध्ययन भी किया। उन्होंने अपनी सत्यान्वेषी बुद्धि से सभी अनादि व अविनाशी मूल तत्वों सहित धर्माधर्म का तर्क व युक्तिसगत ज्ञान प्राप्त किया जो वेद, दर्शन और उपनिषद आदि ग्रन्थों पर आधारित था। उन्होंने अपने ज्ञान को सत्यार्थप्रकाश के रूप में देश की जनता को प्रदान किया जिससे मनुष्य सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर सत्यासत्य का ज्ञान, बोध व विवेक प्राप्त कर सकता है।

ईश्वर ने हमें यह सृष्टि और इसके सभी पदार्थ निःशुल्क दिये हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम इसका मूल्य ईश्वर को दें क्योंकि यह सभी वस्तुयें उसी की देन हैं। इसका उपाय केवल उस ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना ही हो सकता है। स्तुति में ईश्वर के यथार्थ गुणों को जानना, उनका चिन्तन व मनन सहित उन गुणों के द्वारा ईश्वर की यथार्थ प्रशंसा, कीर्तन व गुणगान करना है। प्रार्थना में हम ईश्वर से अपनी इच्छाओं व आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायता की याचना करते हैं। उपासना का अर्थ ईश्वर के समीप बैठना होता है।

ऋषि दयानन्द के समय में इस स्तुति, प्रार्थना व उपासना के स्थान पर मूर्तिपूजा प्रचलित थी। आज भी यह पूर्ववत् व पहले से भी अधिक प्रचलित है। दिन प्रतिदिन इसमें वृद्धि हो रही है और उपास्यदेवों की संख्या में वृद्धि भी हो रही है। नये नये जीवित व मृतक देवता मूर्तिपूजा में सम्मिलित होते जाते हैं। अभी कुछ वर्ष ही हुए साईं बाबा की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा की जाने लगी। यह ईश्वर के वेद ज्ञान सहित वेदाचरण, ईश्वर भक्ति तथा योगाभ्यास से भी अपरिचित थे। मूर्ति पूजा को जिन उद्देश्यों के लिये किया जाता है उसकी पूर्ति कैसे होती है?

इसका किसी के पास कोई प्रमाण नहीं है। अन्ध आस्था व परम्परा के आधार पर मूर्तिपूजा का कृत्य किया जाता है। आस्था का अर्थ भी लोग नहीं जानते। आस्था सत्य सिद्धान्तों में विश्वास को कहते हैं। मूर्तिपूजा करने वाले कभी मूर्तिपूजा की सत्यता और इससे होने वाले लाभ व हानियों का चिन्तन व विचार नहीं करते। मूर्तिपूजा की परम्परा अधिक पुरानी न होकर जैनमत से आरम्भ हुई है। वर्तमान में भी यह विद्यमान है। महर्षि दयानन्द सत्यान्वेषी थे। उन्होंने मूर्तिपूजा की छानबीन की तो उन्हें ज्ञात हुआ कि मूर्तिपूजा से कोई लाभ नहीं होता अपितु हानि होती है। उन्होंने प्राचीन वेद, उपनिषदों व दर्शन आदि ग्रन्थों से जड़ मूर्तिपूजा की पुष्टि करनी चाही परन्तु उन्हें इसके पक्ष में कोई प्रमाण नहीं मिला।

सनातन धर्म के क्षेत्र में वेदों को ईश्वर से प्राप्त एवं सभी धार्मिक विषयों में परम प्रमाण माना जाता है। ऋषि दयानन्द के शब्दों में वेद स्वतः प्रमाण हैं और अन्य सभी ग्रन्थ मनुष्यकृत व ऋषिकृत होने से परतः प्रमाण हैं। ऋषि दयानन्द ने मूर्तिपूजा करने वाले सनातनी मत के अनुयायियों को मूर्तिपूजा को वेद, तर्क व युक्ति से सिद्ध करने की चुनौती दी थी परन्तु अनेक प्रयत्न करने पर भी काशी के शीर्ष विद्वान इसके लिये सहमत नहीं हुए थे। बार-बार चुनौती देने पर उन्हें विवश होकर शास्त्रार्थ के लिये तत्पर होना पड़ा परन्तु उन्हें वेदों में मूर्तिपूजा का कोई उल्लेख व प्रमाण नहीं मिला।

वह बीस हजार से अधिक चार वेदों के मंत्रों में से एक भी वेद मन्त्र मूर्तिपूजा किये जाने के पक्ष में प्रस्तुत नहीं कर सके। इस कारण 16 नवम्बर, सन् 1869 को काशी के आनन्द बाग में काशी के राजा श्री ईश्वरी नारायण सिंह की अध्यक्षता तथा पचास हजार जनसमूह की उपस्थिति में अकेले ऋषि दयानन्द का पौराणिक सनातन धर्म के लगभग 30 शीर्ष विद्वानों से शास्त्रार्थ हुआ जिसमें ऋषि दयानन्द की विजय हुई। काशी में हुआ यह शास्त्रार्थ मुद्रित रूप में उपलब्ध है जिसे इच्छुक व्यक्ति देख सकते हैं।

वेदों में जड़ पदार्थों वा मूर्तिपूजा का विधान नहीं है। वेदों से मूर्तिपूजा का खण्डन होता है। प्रमाण रूप में यजुर्वेद के 40/9 और 32/3 को प्रस्तुत किया जा सकता है। यह मन्त्र हैं-

अन्धन्तमः प्र विशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते। तपो भूयऽइव ते तमो यऽउ सम्भूत्यांरताः।।

न तस्य प्रतिमाऽअस्ति।

इन मन्त्रों के ऋषि दयानन्द कृत अर्थ हैं:- जो असम्भूति अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान में उपासना करते हैं वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःखसागर में डूबते हैं। और सम्भूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्यरूप पृथिवी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं वे महामूर्ख उस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् चिरकाल तक घोर दुःखरूप नरक में गिर कर महाक्लेश भोगते हैं। दूसरे मन्त्रांश का अर्थ है कि जो सब जगत् में व्यापक है

उस निराकार परमात्मा की प्रतिमा परिमाण सादृश्य वा मूर्ति नहीं है। केनोपनिषद के अनेक वचन मूर्तिपूजा के विरुद्ध हैं। उनमें से दो का तात्पर्य यहां लिखते हैं। एक श्लोक में कहा गया है कि जो वाणी की –इदन्ता, अर्थात् यह जल है लीजिये, वैसा निषय नहीं है। और जिसे धारण करने और जिसकी सत्ता से वाणी की प्रवृत्ति होती है, उसी को ब्रह्म जान और उपासना कर। जो ईश्वर से भिन्न है वह उपासनीय नहीं है। एक अन्य श्लोक में कहा है कि जो मन से ‘इयत्ता’ करके मन में नहीं आता, जो मन को जानता है उसी ब्रह्म को तू जान और उसी की उपासना कर। जो उस से भिन्न जीव और अन्तःकरण है उस की उपासना ब्रह्म के स्थान में मत कर। इन वेद और उपनिषद वचनों से जड़ मूर्ति पूजा का खण्डन हो जाता है क्योंकि मूर्तिपूजा ईश्वर की उपासना का विकल्प व पर्याय नहीं हो सकती।

मूर्तिपूजा एवं फलित ज्योतिष से भी देश को अतीत में अनेक हानियां हुई हैं और आज भी हो रही है। महर्षि दयानन्द ने विस्तार से मूर्तिपूजा की हानियों की चर्चा सत्यार्थप्रकाश में की है। विधर्मी विदेशी राजाओं से पराजय, देश की पराधीनता और विभाजन में भी अन्धविश्वास का पर्याय जड़पूजा की भूमिका रही है। ऋषि दयानन्द ने कहा है कि मूर्ति पूजा ईश्वर की प्राप्ति के मार्ग में सीढ़ी नहीं अपितु एक खाई है जिसमें गिरकर मूर्तिपूजक व उपासक नष्ट हो जाता है। हम यहां यह भी बता दे कि ऋषि दयानन्द ने मूर्तिपूजा का खण्डन इसके असत्य होने के कारण एवं इससे मनुष्य के जीवन व जीवात्मा के परजन्म में होने वाली हानियों से बचाने के लिये किया था। उन्होंने ईश्वर की यथार्थ उपासना विधि की पुस्तक भी लिखी है जो सन्ध्या के नाम से प्रसिद्ध है। वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय भी सन्ध्या व उपासना का मुख्य भाग है।

सन्ध्या, ध्यान व समाधि से मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त करता है। यही मनुष्य जीवन का मुख्य व अन्तिम लक्ष्य है। आईये, भावनाओं व परम्पराओं में न बहकर वेद और ऋषियों के वचनों सहित तर्क व युक्ति के आधार पर मूर्तिपूजा का विचार कर असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण करें। इसी में हमारा और हमारी सन्ततियों का हित है। ओ३म् शम्।

--मनमोहन कुमार आर्य

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