सारा संसार जानता है कि वेद संसार की आदिकालीन वा सर्वप्राचीन पुस्तकें हैं जिसमें अध्यात्म, सामाजिक व्यवस्था एवं धर्म विषयक सत्य ज्ञान निहित है। यह भी सत्य सिद्धान्त है कि संसार के सभी मत-मतान्तरों व  à¤¨à¤¾à¤¸à¥à¤¤à¤¿à¤• मतों के आचार्यों व उनके सभी अनुयायियों के पूर्वज भारत निवासी एवं वेदों के मानने वाले थे। महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध पर्यन्त आर्यों का ही सारे विश्व पर चक्रवर्ती राज्य था।

 

अन्य देशों में माण्डलिक राजा रहते थे और भारत के चक्रवर्ती राजाओं को कर दिया करते थे। हमारे देश के राजा भी पूरे विश्व में शिक्षा आदि सभी प्रकार की व्यवस्थाओं की पूर्ति करते थे। महाभारत के बात भारत का सम्बन्ध धीरे धीरे पूरे विश्व से समाप्त होता गया। कालान्तर में भारत सहित सम्पूर्ण भूमण्डल में अविद्या फैल गई। ऐसे समय में भारत सहित पूरे विश्व में विद्या व अविद्या से युक्त अनेक मत-मतान्तरों का प्रादुर्भाव हुआ। ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने अपने समय में प्रचलित मत-मतान्तरों का उल्लेख कर अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में उनकी समीक्षा की है।

इसके साथ ही उन्होंने वैदिक मान्यताओं का भी अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में उल्लेख किया है जो कि विद्या, तर्क एवं युक्तियों पर आधारित होने के सहित सबके लिये कल्याणकारी एवं विश्व समाज में धर्म की दृष्टि से एकरूपता व समानता स्थापित करने में महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। यदि सारा संसार वेद की मान्यताओं व सिद्धान्तों को धर्म के रूप में अपना लें तो संसार में धर्म व मत-मतान्तर के नाम पर होने वाले सभी विवाद एवं संघर्ष समाप्त हो सकते हैं। इसके लिये सबको अपना अपना स्वार्थ त्याग करना होगा व वैदिक मत को समझना होगा जिसके लिये कोई सहमत एवं प्रवृत्त होने को तत्पर नहीं है।

 

 à¤¯à¤¹ स्थिति कब तक रहेगी, निश्चय से नहीं कहा जा सकता। एक समय ऐसा अवश्य आ सकता है कि जब उस समय की नई पीढ़ी ईश्वर व जीवात्मा आदि विषयक वेद के सत्य सिद्धान्तों को स्वीकार कर ले और मत-मतान्तरों की सच्चाई को भी जान कर स्वयं उससे मुक्त होने के लिए कटिबद्ध हो। यह संसार ईश्वर का बनाया हुआ व उसी से संचालित एवं नियंत्रित हैं। हम सभी मनुष्य तो उसकी आज्ञा का पालन अपने अपने प्रकार से कर रहे हैं। ऋषि दयानन्द व उससे पूर्व भी अनेक ऋषियों व महर्षियों ने वही कार्य किया था जो कि ऋषि दयानन्द जी ने अपने समय में किया है। सभी विद्वान सज्जन पुरुषों का कर्तव्य है कि वह सभी मतों का अध्ययन कर धर्म के सत्य सिद्धान्तों का निश्चय करें और उनका वैश्विक स्तर पर प्रचार करें जिससे पूरे विश्व में एक सत्य मत, जो अविद्या व अज्ञान से पूर्णतया मुक्त हो, स्थापित करने में सफलता मिल सके।

 

वेद और आर्यसमाज की संसार को प्रमुख देन त्रैतवाद एवं कर्म-फल व्यवस्था का सिद्धान्त है। त्रैतवाद का अर्थ है कि संसार में तीन अनादि व नित्य सत्तायें हैं। यह सत्तायें हैं ‘ईश्वर, जीव और प्रकृति’। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य पवित्र और सृष्टिकर्ता है।

 

ईश्वर अनादि सत्ता है। इसका आदि अर्थात् आरम्भ नहीं है। यह नाशरहित है। इसका कभी नाश नहीं हो सकता। इसके मूल स्वरूप में कभी किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। इस ईश्वर से ही यह विश्व ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया है। परमात्मा इस सृष्टि का निमित्तकारण हैं। अनादि, असंख्य एवं अनन्त, एकदेशी, सूक्ष्म, आंखों से अदृश्य जीवों वा जीचवात्माओं के पूर्व जन्मों के कर्मों के सुख व दुःख रूपी फल देने के लिये ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की है। ईश्वर की सत्ता, स्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव को विस्तार से जानने के लिये ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों सहित वेद, दर्शन एवं उपनिषदों का स्वाध्याय व अध्ययन करना चाहिये।

 

जीवात्मा का ईश्वर एवं प्रकृति से पृथक अस्तित्व है। जीवात्मा भी एक चेतन तत्व है जो अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, जन्म-मरण में बंधा हुआ, शुभ व अशुभ कर्मों को करने वाला तथा ईश्वर की व्यवस्था से उन कर्मों का फल भोगने वाला, मनुष्य आदि अगणित योनियों में कर्मानुसार जन्म लेने वाला एवं मनुष्य योनि में वेद का अध्ययन कर तथा उसके अनुरुप कर्म कर बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होने वाला है।

 

मनुष्य जन्म के समय केवल पूर्व जन्मों के कर्मों के संस्कार लेकर आता है और शुभ व अशुभ संस्कार लेकर ही संसार से जाता है। वह न तो कोई धन या भौतिक पदार्थ लेकर आता है और न मृत्यु के समय किसी प्रकार की सम्पत्ति या पदार्थ लेकर जाता है। यहां तक की उसका शरीर भी यहीं छूट जाता है जिसे समाज के लिये हानिकारक होने के कारण विज्ञ लोग अन्त्येष्टि कर्म करके अग्नि के समर्पित कर देते हैं। अग्नि में इस लिये समर्पित करते हैं जिससे शरीर के पांचों भूत अपने कारण तत्वों में विलीन हो जायें और मृतक शरीर के रोगकारक किटाणु नष्ट हो जायें। भूमि में गाड़ने से यह लाभ नहीं होता तथा यह क्रिया वेद विरुद्ध होने से त्याज्य है। अतः मनुष्य को अपरिग्रही, त्यागी व ज्ञान प्राप्ति में रुचि रखने सहित ईश्वरोपासना एवं परोपकार के कार्यों को करते रहना चाहिये।

 

वेदों का अध्ययन कर उसके अनुरुप आचरण एवं साधना करनी चाहिये जिससे मनुष्य वा जीवात्मा का यह जन्म व परजन्म दोनों में कल्याण हो। वैदिक दर्शन की नींव ईश्वरीय ज्ञान वेद, ऋषियों के ग्रन्थों, सत्य, युक्ति व तर्क पर आधारित है। अन्य मतों में ऐसा नहीं है। बुद्धि तर्क व वितर्क कर सत्य का निर्णय करती है। हम जिस मत को भी माने, हमें सत्य व तर्क से सिद्ध मान्यताओं व सिद्धान्तों को ही मानना चाहिये।

 

असत्य व तर्कहीन बातों का त्याग करने सहित अन्य मनुष्यों व प्राणियों को किसी प्रकार की पीड़ा व कष्ट नहीं देना चाहिये। इस दृष्टि से मांसाहार घोर पाप सिद्ध होता है। मनुष्यों को अहिंसा व पुरुषार्थ से अर्जित सात्विक भोजन का ही भक्षण व सेवन करना चाहिये। ऐसा करने से ही ईश्वर हमें जन्म जन्मान्तरों में सुख देगा अन्यथा हमें अपने अशुभ कर्मों के दुःख रूपी फल अवश्य भोगने होंगे यह निश्चित होता है। यह भी जान लें कि ईश्वर केवल एक है जबकि जीवात्माओं की संख्या अनन्त हैं। हम जीवात्माओं की संख्या न तो गणना कर सकते हैं न उनकी संख्या को अन्य किसी प्रकार से नहीं ही जान सकते। ईश्वर के ज्ञान में जीवात्माओं की संख्या की पूरी पूरी जानकारी होती है।

 

सृष्टि में तीसरा अनादि व नित्य पदार्थ प्रकृति है। यह प्रकृति सूक्ष्म है परन्तु ईश्वर सबसे सूक्ष्म तथा सूक्ष्मता की दृष्टि से जीवात्माओं का स्थान ईश्वर व प्रकृति के मध्य में है। प्रकृति त्रिगुणात्मक है। त्रिगुण सत्व, रज व तम कहलाते हैं। प्रलय के बाद प्रलय की अवधि पूर्ण होने पर परमात्मा ईक्षण व प्रेरणा द्वारा प्रकृति में हलचल उत्पन्न करते हैं जिससे सृष्टि रचना की प्रक्रिया आरम्भ होती है। प्रकृति का पहला विकार महत्तत्व बुद्धि कहलाता है।

इसके बाद दूसरा विकार अहंकार होता है। अहंकार से पांच तन्मात्रायें अस्तित्व में आती हैं। फिर सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां एवं ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओ ंसे पृथिव्यादि पांच भूत बनते हैं। इन सबके अस्तित्व में आने व सृष्टि का निर्माण पूर्ण हो जाने पर मनुष्य की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार से प्रकृति से सृष्टि वा ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आता है। यह समस्त सृष्टि निमित्त कारण परमात्मा एवं उपादान कारण प्रकृति से आविर्भूत है। यही ज्ञान व विज्ञान है। जो लोग ईश्वर को नहीं मानते वह कहीं न कहीं भूल करते हैं जिसका कारण अविद्या ही माना जा सकता है। ऐसे लोगों को यह भी नहीं पता होता कि मनुष्य में एक अविनाशी चेतन सत्ता आत्मा है जो अपने अतीत के कर्मों का फल भोगने के लिये जन्म लेती है और इस जन्म में जो नये कर्म करती है उसके अनुसार ही उसके आगे के जन्म होते हैं। ऋषि दयानन्द प्रदत्त वैदिक त्रैतवाद का सिद्धान्त पूर्णतया तर्क एवं युक्तिसंगत होने से मान्य एवं स्वीकार्य है।

 

महर्षि दयानन्द वेदज्ञ थे। उन्हें वेदों का तलस्पर्शी, सत्य, यथार्थ एवं गहन ज्ञान था। उन्होंने आर्यसमाज के दस नियमों की रचना की है। यह नियम भी सार्वभौमिक एवं सत्य नियम हैं। सबको इनका अध्ययन कर परीक्षा करनी चाहिये और इन्हें अपनाना चाहिये।

 

हम समझते हैं कि विज्ञान के सिद्धान्तों के समान ही आर्यसमाज के नियम व सिद्धान्त भी पूर्णतया सत्य हैं। इसमें शंका व भ्रम की किंचित भी सम्भावना नहीं हैं। पहला नियम अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं जो विज्ञान से सम्बन्ध रखता है। नियम है कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है। विज्ञान ईश्वर को स्वीकार नहीं करता परन्तु उसके पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है कि ज्ञान व विज्ञान से पूर्ण सृष्टि की रचना कब व किसने किस प्रयोजन से की है। इसका सही उत्तर वही है जो इस नियम में कहा गया है।

 

परमेश्वर ही सब सत्य विद्याओं और जो पदार्थ विद्या से संयुक्त होकर बने हैं, उनका आदि व मूल है। दूसरा नियम ईश्वर विषयक है जिसका उल्लेख हम उपर्युक्त पंक्तियों में कर चुके हैं। तीसरा नियम अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इस नियम में कहा गया है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों (वा मनुष्यों) का परम धर्म है। विचार करने पर यह नियम भी पूर्ण सत्य सिद्ध होता है।

 

सृष्टि के आरम्भ में यदि परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न किये गये बिना माता-पिता व आचार्यों वाली सन्तान व शिष्यों को चार ऋषियों के द्वारा वेदों का ज्ञान न दिया होता तो मनुष्य कभी भी ज्ञानवान नहीं हो सकते थे। इन्हीं वेदों को ईश्वर से प्राप्त कर व इनके अर्थ जानकर हमारे आदि पूर्वज विद्वान बने थे।

 

वेद की प्रत्येक बात सत्य है तथा इसका प्रत्येक शब्द व उसके अर्थ अलौकिक अर्थात् ईश्वर से प्राप्त हुए हैं। आर्यसमाज का चौथा नियम है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। सारा संसार इस नियम को मानता है परन्तु इस पर आचरण बहुत कम लोग करते हैं। इसी कारण से संसार में दुःख व मनुष्यों के जीवन स्तर, शिक्षा व बल आदि में अन्तर है। पांचवा नियम है कि सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहियें। यह नियम भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और इसके लिये सभी मनुष्यों को वेद, ऋषियों के ग्रन्थों तथा विद्वान आचार्यों की शरण लेनी चाहिये।

 

 à¤…न्य पांच नियम भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं एवं मानवमात्र के लिये कल्याणकारी हैं। हम पाठकों से आग्रह करेंगे कि वह सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों और वेद, दर्शन, उपनिषद, विशुद्ध मनुस्मृति आदि का अध्ययन करें। वह पायेंगे कि वेद की जो मान्यतायें हैं वही आर्यसमाज की भी हैं। यही वैदिक मान्यतायें सत्यधर्म की पर्याय हैं।

 

वेदों एवं ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों में निहित सभी मान्यतायें सत्य एवं सार्वभौमिक हैं। इन ग्रन्थों व इनकी मान्यताओं के पालन से ही विश्व में शान्ति एवं संसार के सब मनुष्यों सहित सभी प्राणियों का कल्याण हो सकता है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

 

--मनमोहन कुमार आर्य

 

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