हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी देशभर में गणेश उत्सव को पूरे हर्ष और उल्लास के साथ मनाया गया। लेकिन 11 दिन तक चले गणेश उत्सव का जैसे ही समापन दिवस आया तो सुबह-सुबह टीवी पर पंडित बैठे थे जो बता रहे थे कि गणेश विसर्जन का शुभ मुहूर्त व विधि पंचक,राहुकाल व भद्रा समय में बिदाई कैसे करें। कोई बता रहा था कि सुबह जल्दी उठकर नहाएं और मिट्टी से बनी भगवान श्रीगणेश की प्रतिमा की पूजा का करें माला चढ़ाये और विसर्जित करें। कोई गणेशजी को चंदन, अक्षत, मोली, अबीर, गुलाल, सिंदूर, इत्र, जनेऊ आदि चढ़ाकर विसर्जित करने का ज्ञान दे रहे थे।

इसी शुभ मुहूर्त के चक्कर में इस दौरान दिल्ली, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में गणेश उत्सव के दौरान लोगों की मौत हुई है। अलग-अलग जगहों पर हुए हादसे में तकरीबन 40 लोगो की जान चली गई। यह सभी हादसे गणेश विसर्जन के दौरान हुए। राजधानी दिल्ली में ही चार छात्र जिनमें लड़के और दो लड़कियों की पानी में डूबने से मौत हो गई। इसके अलावा भोपाल में गणेश विसर्जन के दौरान नाव पलटने से 11 लोगों की मौत हो गई थी। गणेश विसर्जन के दौरान जो लोग डूबे हैं उसमे अधिकतर लोगों की उम्र 20 वर्ष के आसपास थी। वे सब के सब नौजवान थे जिनकी आखो में आने वाली जिंदगी को लेकर तरह तरह के सपने थे कि बड़ा होकर ये करूंगा, वो करूंगा, ये बनूंगा, वो बनूंगा लेकिन अब उन सभी का दाह संस्कार हो गया है और पीछे रह गए हैं तो रोते बिलखते मां बाप और परिजन जो किस्मत और उस घड़ी को कोस रहे हैं कि क्यों उन्होंने अपने घर के लाडले चिरागों को गणेश विसर्जन में जाने दिया।

हालाँकि देश में ऐसे हादसे होना कोई नई घटना नहीं है। प्रतिवर्ष विसर्जन के दौरान डूबने के हादसे होते रहे है लेकिन कोई भी इन हादसों से सबक लेने की कोशिश नहीं करता। क्योंकि दुनिया में चाहे कोई भी इन्सान हो, यह मानने को तैयार नहीं है कि वह अंधविश्वासी है। जैसे कोई अपशब्दों से दुखी या गुस्सा हो जाता है वैसे ही ही किसी को अंधविश्वासी कहने से भी वह गुस्सा हो जाता है। जबकि यह सभी मानने को तैयार हैं कि अंधविश्वास एवं धार्मिक पाखण्ड हमारी तरक्की में बहुत बड़ी बाधा हैं और इसके कारण प्रतिवर्ष न जाने कितने लोग अपनी जान गँवा रहे है।

ताजा भोपाल में हुए इस हादसे पर कई लोगों ने सवाल खड़े किये है कि मूर्ति विसर्जित करने गये ये लोग इस उम्मीद के साथ गए थे कि बप्पा मोरिया उनकी मुराद पूरी करेगा क्या इन नौनिहालों की मुराद मरने की थी अगर नहीं तो उन्हें बप्पा मोरिया ने बचाया क्यों नहीं? सवाल जायज है और ऐसे अंधविश्वास पर ऐसे सवाल खड़े करके ही अनेकों मिशनरी भारत के पिछड़े इलाकों ने सफल होती रही है। क्योंकि लोगों को मूर्ति और पाखंड थमा देने वालों कभी ये नहीं बताया कि गणों के स्वामी गणपति कोई खिलौना या मनोरंजन की चीज नहीं कि दस ग्यारह दिन उसके सामने नाज गाना किया और फिर उसे किसी नदी नाले में बहा दिया जाये।

वैदिक गणेश पुस्तक में श्री मदन रहेजा ने बहुत ही अच्छे ढंग से गणपति की उपासन को बताते हुए लिखा है कि गणपति हमारे पूजनीय इष्ट देवता है उनका आदर सम्मान करना सीखें। सही पूजा अर्चना करना सीखें उनके वैदिक, वैज्ञानिक आद्यात्मिक स्वरूप को समझने का प्रयास करें। गणपति कोई हाथी सूंड वाला नहीं है। वेदों में गणपति शब्द अनेकों बार आया है जिसका अर्थ है गणों का स्वामी अर्थात इस ब्रह्माण्ड में जितनी भी वस्तुएं विधमान है जिनकी गणना हो सकें उन सबके स्वामी को गणपति अर्थात परम पिता परमात्मा कहा गया है।

कोई भी शुभ कार्य प्रारम्भ करने से पहले गणपति की पूजा करनी चाहिए ये बात सही है क्योंकि गणपति परमपिता परमात्मा को कहा गया है। इस कारण हमें ईश्वर को याद जरुर करना चाहिए लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आप एक मूर्ति रखकर दस दिन ढोल नगाड़े बजाये फिल्मी गीतों की धुन पर नृत्य करें और ग्यारहवें दिन उस मूर्ति को विसर्जित करें।

प्रतिमा एक प्रतीक हैं हम किसी तस्वीर शिल्प कला के विरोधी नहीं क्योंकि प्रतिमा हमारी धरोहर है किन्तु यदि उनसे किसी प्रकार का अंधविश्वास फैले तो समस्या उत्पन्न होती है। धार्मिक अंधविश्वास तो फैलता ही साथ में पर्यावरण को भी हानि होती है जैसे आज भी किसी न किसी तरह से लोग नदी में मूर्तियों को फेंकना सब से पुण्य का काम मानते हैं। हालाँकि अब कई जगह पुल के करीब कूड़ादान भी रखा जाने लगा है पर इसमें मूर्तियां कोई नहीं डालता। लोगों को इस बात का डर बैठाया गया है कि कूड़ेदान में मूर्तियां डालने से उन का अहित होगा। आस्था की आड में हम अपनी नदियों को प्रदूषित कर आते है।

क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि हमारी आस्था भी जीवित रहे और साथ में प्रकृति को भी हानि ना हो। क्योंकि भारतीय संस्कृति में नदी को मां का दर्जा दिया गया है लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि हम जिसे मां कहकर सम्मान देते हैं उसे हमने इस कदर गंदा कर दिया गया है कि उसके पानी को पीने की आचमन करने की बात तो कोसो दूर गयी। सामने जो हालात दिख रहे हैं उससे ऐसा लग रहा है कि नदियों में गंदगी हमारे लिए एक बड़ी मुसीबत बनकर हमारे आसपास मंडराने लगी है। जिसके लिए सबसे आगे नदियों के घाट पर बने पूजा स्थलों के पुजारियों के साथ छोटे बडे असंख्य मंदिरों के महंत, महामंडलेश्वर,पंडितों को पहल करनी होगी। धर्म को रोजगार की बजाय आचरण का विषय मानकर बताना होगा कि जल है तो कल है जब तक ये नदियाँ है तब तक हम जीवित है। क्यों न हम ऐसा कार्य करें कि हमें अपने ह्रदय से कभी गणपति अर्थात उस ईश्वर की कभी विदाई न करनी पड़ें। इससे हमारे जल स्रोत भी निर्मल रहेंगे और विसर्जन के नाम पर हो रही असमय मौतें भी रुक जाएगी। क्यों न हम एक जागरूकता का अभियान चलायें कि अगले अगले वर्ष हम गणेश जी का नहीं इस नाम पर फैल रहे अंधविश्वास का विसर्जन करें।

 

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