प्रमोशन में आरक्षण को लेकर फिर तकरार

आरक्षण को लेकर एक बार राजनितिक बयानबाजी की तलवारें इस कारण तन गयी है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में इस बात का जिक्र किया है कि सरकारी नौकरियों में पदोन्नति के लिए कोटा और आरक्षण कोई मौलिक अधिकार नहीं है और राज्य सरकार आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। ऐसा कोई मौलिक अधिकार नहीं है, जो किसी व्यक्ति को पदोन्नति में आरक्षण का दावा करने के लिए विरासत में मिला हो अत: अदालत द्वारा राज्य सरकारों को आरक्षण प्रदान करने के लिए कोई निर्देश जारी नहीं किया जा सकता है।

बताते चलें कि साल 2018 में पांच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ ने कहा था कि क्रीमी लेयर यानि मलाईदार परत को सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकता है। पीठ ने कहा था कि जिस तरह सम्पन्न लोगों को क्रीमी लेयर के सिद्धांत के तहत आरक्षण के लाभ से वंचित रखा जाता है, उसी तरह एससी-एसटी के सम्पन्न लोगों को प्रमोशन में आरक्षण के लाभ से क्यों वंचित नहीं किया जा सकता? तब केंद्र सरकार ने पीठ से इसकी समीक्षा करने का अनुरोध किया था।

देखा जाये तो राजनितिक, सामाजिक और न्यायिक परिवेश में यह लड़ाई पिछले तीन दशकों से चल रही है। साल 2006 में एम नागराज बनाम भारत सरकार मामले की सुनवाई करते हुए पांच जजों की ही संविधान पीठ ने फैसला दिया था कि सरकारी नौकरियों में प्रमोशन के मामले में एससी-एसटी वर्गों को आरक्षण दिया जा सकता है। पर आरक्षण के इस प्रावधान में कुछ शर्तें जोड़ते हुए अदालत ने यह भी कहा कि प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए किसी भी सरकार को नीचे लिखे मानदंडों को पूरा करना होगा। ये मापदंड थे, समुदाय का पिछड़ापन, प्रशासनिक हलकों में उनका अपर्याप्त प्रतिनिधित्व एवं कुल प्रशासनिक कार्यक्षमता। एससी-एसटी वर्गों के लिए प्रमोशन में आरक्षण का प्रावधान करने से पहले सरकार को ये आंकड़े जुटाने होंगे कि ये वर्ग कितने पिछड़े रह गए हैं, प्रतिनिधित्व में इनका कितना अभाव है और प्रशासन के कार्य पर इनका क्या फर्क पड़ेगा। हालाँकि इस निर्णय के बाद से ही सर्वोच्च न्यायलय में दायर कई जनहित याचिकाओं में इस पर पुनर्विचार की मांग उठती रही थी।

उस समय उत्तरप्रदेश में इसका विरोध करते हुए 18 लाख सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर चले गए थे और देश भर में विरोध के स्वर गूंज उठे थे। कुछ ने इसे न्याय तो कुछ ने अन्याय बताया था कि पदोन्नति में आरक्षण से एक दिन ऐसी स्थिति पैदा होगी कि प्रोमोशन के सभी पदों पर आरक्षित वर्गों के लोग ही आ जाएंगे। ऐसा होने से देश के युवा वर्ग में यह सोच पैदा हो जाएगी कि भारत में उनकी योग्यता के हिसाब से नौकरी और प्रोमोशन नहीं मिलेगा। यह संविधान में समानता की मूल विचारधारा के खिलाफ है यानि प्रमोशन में आरक्षण समानता के अधिकार का उल्लंघन बताया था। दूसरी ओर पदोन्नति में आरक्षण के पक्ष में आवाजें लगाने वालों ने तर्क दिया था कि कि सरकारी और निजी क्षेत्र में पदोन्नति बड़ी जातियों के लोगों को ही दी जाती है।

अगर इस मसले को आरम्भ से समझे तो क्रीमी लेयर यानि मलाईदार परत शब्द का इस्तेमाल ओबीसी जातियों के उन व्यक्तियों के लिए होता है जो अपेक्षाकृत ज्यादा समृद्ध और पढ़े-लिखे हैं। इस शब्द का प्रयोग पहली बार सत्तनाथन कमीशन ने 1971 में किया था। जिसका कहना था कि सरकारी नौकरियों में साधन संपन्न लोगों को आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए। बाद में इसका इस्तेमाल जस्टिस रामनंदन कमेटी ने 1993 में भी किया था। इसके बाद ओबीसी समुदाय के पढ़े लिखे और समृद्ध लोगों के लिए शब्द तो बन गया, लेकिन जब इसे लागू करने की बारी आई तो इसका पैमाना पारिवारिक इनकम को माना गया। 1993 में जब क्रीमी लेयर पहली बार लागू हुआ तब 1 लाख से ऊपर सालाना आय वाले परिवारों को इसमें रखा गया। बाद में साल 2004 में इसे बढ़ाकर 2.5 लाख कर दिया गया। 2008 में यह 4.5 लाख हुआ तो 2013 में 6 लाख हो गया। आखिरी बार इसमें परिवर्तन 2017 में हुआ और इसे 8 लाख कर दिया गया था।

साल 2015 में नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लासेज ने प्रस्ताव दिया कि सीलिंग को बढ़ाकर 15 लाख कर दिया जाना चाहिए। आयोग ने तब ओबीसी जातियों में भी कैटेगरी बनाने की वकालत की थी। आयोग ने कहा था कि ओबीसी जातियों में पिछड़ा अन्य पिछड़ा और अधिक पिछड़ा की श्रेणियां बनाई जानी चाहिए और 27 प्रतिशत का कोटा इन सभी में जरूरत के आधार पर बांटना चाहिए। आयोग का तर्क था कि इससे मजबूत ओबीसी जातियां आरक्षण का पूरा लाभ खुद ही नहीं उठा पाएंगी। अन्य कमजोर जातियों को भी इसका लाभ मिल पाएगा।

हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने 8 सितंबर 1993 को जारी भारत सरकार के ज्ञापन के आधार पर इसकी व्याख्या की थी। सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर यानि मलाईदार परत की व्याख्या करते हुए कहा था कि आरक्षण का लाभ संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों (जैसे राष्ट्रपति, सुप्रीम के न्यायाधीश, हाईकोर्ट के न्यायाधीश, केंद्र और राज्य के ब्यूरोक्रेट, पब्लिक सेक्टर के कर्मचारी, सेना और अर्द्धसैनिक बलों में कर्नल रैंक से ऊपर के अधिकारी) के बच्चों को नहीं मिलना चाहिए। हालांकि तब इससे पिछड़ा अतिपिछड़ा समुदाय को बाहर रखा गया था।

यानि 30 सितंबर 2018 के पहले तक पिछड़ा अतिपिछड़ा समुदाय को क्रीमी लेयर से बाहर रखा गया था। लेकिन इसके बाद  क्रीमी लेयर के दायरे में ये समुदाय भी आ गया। हालांकि इस समुदाय पर क्रीमी लेयर का इस्तेमाल आर्थिक आधार पर नहीं किया गया है। इन जातियों के लिए पिछड़ापन और छुआछूत को आधार बनाया गया है। इसके अलावा इसका इस्तेमाल प्रमोशन में आरक्षण पर भी होता है। दरअसल पिछड़ा अतिपिछड़ा समुदाय को क्रीमी लेयर के दायरे में लाने का निर्णय सुप्रीम कोर्ट ने दिया था. पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 2018 में कहा था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के समृद्ध लोग यानी कि क्रीमी लेयर को कॉलेज में दाखिले तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा सकता क्योंकि वह आर्थिक और सामाजिक रूप से सम्पन्न समझे जाने चाहिए। किन्तु अब जिस तरह फिर अब एक बार सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के पक्ष विपक्ष में लोग खड़े दिख रहे है तो देखकर लगता है आने वाले दिनों में प्रोमोशन में आरक्षण के नाम पर सड़क से संसद तक शोर मचता दिखाई देगा।

 


 

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