वेद सब सतय विदयाओं का पसतक है। वेद ईशवर परदतत होने के कारण ही सब सतय विदयाओं से यकत सरवांगपूरण जञान है। अतः वेदों को पढ़ना व दूसरों को पढ़ाना व परचार करना सब विचारशील मनषयों का परम करतवय और धरम है। परिवार को ससंगठित बनाने से सब लोगों का सख व समृदधि बढ़ती है और सवरग के समान वातावरण उतपनन होता है। अतः वेदों की शिकषा का परिवार में सदपयोग करना चाहिये वं विरोधी विचारों से बचना करतवय है। अथरववेद का 3/30/1 मनतर परिवार में हृदयों व मनों की कता पर परकाश डालता है। यह क परकार से सखी गृहसथ, सखी परिवार तथा धरती को सवरग बनाने का आधार है। इस मनतर का अधययन करने व इसकी शिकषाओं को आचरण में लाने से इन उददेशय की पूरति होती है। आईये, मनतर का पाठ करते हैं--ओ३म सहृदयं सांमनसयमविदवेषं कृणोमि वः। अनया अनयमभि हरयत वतसं जातांमवाघनया।। इस मनतर का शबदारथ वा पदारथ इस परकार है। हे गृहवासियो ! (वः) तमहारे लि (सहृदयम) सहृदयता अरथात परसपर सहानभूति तथा परेमपूरण हृदय का, (सांमनसयम) मन अरथात विचारों तथा संकलपों की कता का, (अविदवेषम) तथा परसपर निरवैरता का (कृणोमि) मैं परमातमा उपदेश करता हूं। (अनयो अनयम) क दूसरे की (अभि हरयत) चाहना किया करो, (जातं वतसम) उतपनन ह बढड़े की (इव) जैसे (अघनया) गौ चाहना करती है।

इस मनतर में परम पिता परमातमा पहला उपदेश यह देते हैं कि हे गृहवासियों ! तम क दूसरे के साथ सहृदयता का वयवहार करो अरथात परसपर सहानभूति और परेम का वयवहार करो। दूसरे के दःख को दूर करना और उसे सख पहंचाना, यह सहृदयता का भाव है। सहृदयता का अरथ है हृदय का क हो जाना। मानो गृहवासियों के देह तो भिनन-भिनन हैं परनत उन सब में हृदय क है--इस भावना को सहृदयता की भावना कहते हैं। दूसरे को दःख हआ तो समना कि यह मेरे हृदय को ही दःख हआ है। यह भावना सहृदयता की भावना है।

हमारे परेरणा के सरोत परमातमा हमें दूसरा उपदेश सांमनसय शबद से देते हैं। सांमनसय शबद का अरथ है मन की कता का होना। मन परतिनिधि है विचारों का और संकलपों का। विचारभेद तथा संकलपभेद परसपर के विरोध तथा विषमता के कारण बन जाते हैं। जहां हृदय मिले ह होते हैं वहां विचारों तथा संकलपों की विषमता भी कम हो जाती है, वहां क दूसरे के विचारों और संकलपो ंका उचित मान तथा आदर करने की ओर काव रहता है। गृहवासियों में क ओर जहां परसपर सहृदयता का भाव होना चाहिये वहीं उन में सांमनसय का भी भाव होना चाहिये। इससे गृहसथ सवरग धाम बनता है और गृहसथ से रोग, शोक, दःख व अशानति दूर भाग जाते हैं।

जिन परिवारों में यह दो भावनायें होती हैं वहां निरवैरता का राजय व वातावरण बन जाता है। आपस में वैर का या दवेष का भाव से वयकतियों में जड़ नहीं पकड़ता जहां कि सहृदयता और सांमनसय के बीच बो गये हों। गृहसथ के परतयेक सदसय को चाहिये कि वह क दूसरे के संग और साथ की उगर कामना करें। क दूसरे से मिलने-जलने के उतकट अभिलाषी हों। इस से परसपर परेमभाव बढ़ता रहता है और परसपर न मिलने-जलने से परेम की मातरा कम होती है। इस उगरकामना के समबनध में गाय का दृषटानत वेद मनतर में दिया गया है। गाय अपने नवजात बछड़े के साथ बहत परेम करती है। वह उसके पास रहने की उगरकामना करती है। सभी गृहवासियों को इसी परकार क दूसरे के साथ रहने के लि उगर कामना करनी चाहिये। वेदमनतर में अघनया पद आया है जिसका अरथ है हनन न करने योगय अरथात मारने वा वध न करने योगय। इससे यह जञात होता है कि परम पिता परमातव अपने जञान वेद के माधयम से गाय के हनन अरथात गोघात का निषेध करते हैं।

वेदों की उपरयकत शिकषा देश, काल में सीमित न होकर सारवभौमिक वं सारवकालिक है। यह क नमूना है। यदि हम वेदों का सवाधयाय करेंगे तो हम वेदों में बहमूलय रतनों को परापत कर सकते हैं। वेदों की सरवोपरि महतता के कारण हमारे ततववेतता ऋषियों ने वेदों को ईशवरीय जञान सवीकार किया और इसे मानवमातर के लि कलयाणपरद जानकर इसका परचार व परसार समसत भूमणडल में करने का विधान किया है। वेदों का अधययन धरम, अरथ, काम व मोकष की परापति कराता है। संसार में वेदों के समान मनषयों के लि उपयोगी व लाभपरद अनय कोई गरनथ नहीं है। इस तथय को जानकर आईये, वेदों के नियमित सवाधयाय का वरत लें और जीवन को कलयाणपरद बनायें। हमने यह मनतर पं. विशवनाथ वेदोपाधयाय जी की पसतक वैदिक गृहसथाशरम से चना है। इसकी समसत सामगरी भी उनकी पसतक से परचारारथ ली है। उनका आभार वं कृतजञता वयकत करते हैं।

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