कलप के आरमभ से पूरव ईशवर ने परलय अवसथा को समापत कर सत, रज व तम गणों वाली परकृति के सूकषम कणों से पूरव कलप के सदृशय इस सृषटि का निरमाण किया तथा जीवातमाओं को उनके पूरव कलप में पणय व पाप करमों के करमाशय के अनसार मनषय व अनय पराणी योनियों में जनम दिया। मनषयों को जञान की आवशयकता थी, अतः परमातमा ने अपने मनषयोचित जञान ऋगवेद, यजरवेद, सामवेद व अथरववेद को आदि चार अगनि, वाय, आदितय व अंगिरा नामी ऋषियों को दिया। यह चार ऋषि पूरव कलप के चार सबसे अधिक पवितरातमा मनषय थे। ईशवर परदतत इस वेदजञान से मनषय, सृषटि के आरमभ से ही, जञान समपनन होकर वेद-आजञानसार जीवन वयतीत करता रहा। इस परकार आदि चार ऋषियों को वेदों का जञान देने से ईशवर को वेदों का परचारक कहा जा सकता है। वेद परचारक का अरथ सतय जञान का परचार करने वाला होता है और वह सरवपरथम ईशवर ही है। सृषटि में देखने में आता है कि सभी मनषय समान रूप से जञानी नहीं हो सकते। अतः ईशवर ने परथम चार सबसे अधिक पवितर ऋषियों की आतमाओं में वेदों का जञान दिया और उन पर परेरणा दवारा यह उततरदायितव सौंपा कि वह वेदों का जञान बरहमा जी को दें और यह सब मिल कर इस जञान को अनय सभी सतरी व परूषों सहित आगामी पीढ़ी दर पीढ़ी सौंपते जायें। यहीं से मनषयों वा ऋषियों दवारा वेदाधययन व वेद परचार का शभारमभ सृषटि के आरमभ में ही हो गया था। आदि चार ऋषियों तथा बरहमा जी का मखय कारय वेदों का परचार करना ही था। वेदों के परचार के लि सबसे परथम करतवय मनषय की सनतानों को आचरण व वयवहार सहित ओ३म का उचचारण वं अरथ सहित गायतरी मनतर सीखाना होता है। इसके पशचात सनतानों के 8 वरष व कछ अधिक आय में गरूकल में आचारय व आचारयाओं के पास भेजकर उनहें वरणमाला का जञान कराकर वयाकरण आदि गरनथों पढ़ाया जाता है। इस परकार उततरोततर अधययन करते ह वेदों का अधययन कराना ही वेदों का परचार है। इस परकार गरूकलों के सभी आचारय व आचारयायें भी क परकार से वेद परचारक ही होते थे। बालक बालिकाओं के अतिरिकत समाज के यवा व परौढ़ आय के वेद जञान विहीन लोगों को उपदेश व सतयारथ परकाश के समान पसतकों के दवारा जञान परदान करना भी वेद परचार ही है। महरषि दयाननद ने अपने समय में इन दोनों परकारों से लोगों को वेदों का जञान कराया।

उपलबध वैदिक साहितय के आधार पर यह पता चलता है कि सृषटि के आरमभ से महाभारत काल परयनत जो वरतमान समय से 5,240 वरष पूरव हआ था, ऋषि परमपरा से वेदों का परचार-परसार देश व विशव में सामानय रूप से चलता रहा। इस वेद परचार का ही परिणाम था कि सारे संसार में क ही मत वा धरम अरथात वेद-वैदिक धरम ही सरवतर परचलित था। महाभारत यदध में सभी देशों के सैनिकों ने यधिषठिर व दरयोधन के पकष में भाग लिया जिससे जान व माल की भारी कषति हई। इस महाभारत यदध से आरयावरतत-भारत व विशव के अनय सभी देशों में शिकषा वयवसथा अरथात वेदाधययन बाधित हआ और ऋषि परमपरा समापत होकर अविदया व अजञान का विसतार होने लगा। ऋषि परमपरा के अवरदध होने से वेद परचार व वेदाधययन बनद हो गया जिसका परिणाम यह हआ कि अजञान व सवारथवश लोगों ने वैदिक मानयताओं को तोड़ा-मरोड़ा जिससे अवैदिक व वेद विरूदध मानयताओं का परचार-परसार होने लगा और करीतियों का विसतार होने लगा। इस अजञान व करीतियों के कारण देश विदेश में मूरतिपूजा, अवतारवाद, मृतक शरादध, फलित जयोतिष, सामाजिक विषमता, जनमना जातिपरथा आदि करीतियां उतपनन हो गईं। यदयपि महाभारत काल के बाद देश में महातमा बदध, महावीर सवामी, सवामी शंकराचारय आदि अनेक आचारय ह परनत वह सतय वेदारथ को परापत करने में कृतकारय न हो सके जिसका परिणाम यह हआ कि अविदया का परसार होता रहा। इसी के परिणामसवरूप देश पराधीन भी हआ और अनेक मत-मतानतर देश व विशव में उतपनन ह जिनसे मनषय ईशवर की परापति व धरम-करम से दूर होता गया और धरम-करम के सथान पर मिथया विशवासों के जाल में फंसता गया। सा होते होते-सन 1825 का आंगल वरष आ गया।

12 फरवरी 1825 को गजरात परानत के राजकोट नगर से लगभग 50 किमी. दूरी पर टंकारा नाम के गराम में क बराहमण परिवार में क बालक का जनम हआ जिसे माता-पिता ने मूलशंकर नाम दिया। यही बालक बाद में महरषि दयाननद के नाम से परसिदध हआ। महरषि दयाननद ने अपने गरू परजञाचकष दणडी सवामी विरजाननद सरसवती की परेरणा व आजञा से वेद परचार को ही अपने जीवन का लकषय बनाया। वेद परचार के अनतरगत उनहोंने देश भर में घूम-घूम कर वेदों वा वैदिक धरम का परचार किया और अवैदिक असतय व अजञान पर आधारित मानयताओं का खणडन किया। खणडन की गई मानयताओं में मूरतिपूजा, अवतारवाद, मृतक शरादध, फलित जयोतिष, बेमेल विवाह, बाल विवाह व तरक व यकति रहित मत-मतानतरों की अनय अनेक मानयतायें थीं। असतय के खणडन के कारय में केवल पौराणिक सनातन धरम ही नहीं था अपित संसार के सभी मत, समपरदाय, पनथ व मजहब आदि थे। उनहोंने वेदों व धरम का सतय सवरूप जहां अपने मौखिक वयाखयानों, वारतालापों, शासतरारथों आदि में परसतत किया, वहीं उनहोंने सतयारथ परकाश, ऋगवेदादिभाषयभूमिका, संसकार विधि, आरयाभिविनय आदि गरनथ लिख कर भी वैदिक जञान का परकाश व परचार किया। वह शायद से परथम धारमिक महापरष हैं जिनहोंने वेदों व उनकी विरोधी मानयताओं के खणडन में कही व लिखी गई अपनी मानयताओं को मौखिक व गरनथ रूप में लिखकर परसतत किया। वह सभी मत-मतानतरों के आचारयों व विदवानों से शासतरारथ करने के लि सदैव ततपर रहते थे और सवयं भी आमनतरण व चनौती देते थे। यही काम अपने-अपने समय में सवामी शंकराचारय जी और अनय मत परवतरकों व उनके परचारकों ने भी किया। बड़ी संखया में उनहोंने विभिनन मतों के आचारयों से शासतरारथ व शासतरारथ चरचायें कीं जिनका परिणाम सदैव उनके पकष में ही रहा। वह पहले से महा-ऋषि थे जिनहोंने वैदिकधरम के दवार संसार के सभी मनषयों अरथात मतावलमबियों के लि खोले। जो वयकति वैदिक धरम में आना चाहता था उसका सवागत किया। देहरादून में जनम से मसलिम मोहममद उमर नामक क मसलिम परिवार की उसके निवेदन करने पर उसकी शदधि कर उसे वैदिक धरम में दीकषित किया और उसे अलखधारी नाम दिया। यह वयकति सारा जीवन आरयधरम में रहा और वैदिक आचरण करता रहा। पूरव मत वा धरम के इस अलखधारी बनध को जिन लोगों ने हतोतसाहित किया था उनका भी उततर इस वयकति ने अपने जञान व विवेक तरक व परमाणों से दिया जिससे सबके मंह बनद हो गये थे।

 à¤®à¤¹à¤°à¤·à¤¿ दयाननद को देख कर हमें जञात होता है कि उनका मखय कारय वेदों के सतय अरथों से संसार के सभी लोगों को परिचित कराना। इसके लि उनहोंने सतयारथपरकाश, ऋगवेदादिभाषयभूमिका आदि अनेक गरनथ लिखे और मौखिक परचार भी किया। यही बात हम सृषटि के आरमभ में महाभारत काल तक ह सभी ऋषियों में देखते है। यह सभी ऋषि बरहमचारियों को वेद का जञान पढ़ाया करते थे, आवशयकतानसार गरनथ लिखा करते थे तथा मौखिक परचार व शासतरारथ आदि किया करते थे। इनके इन कारयों के कारण देश व विशव में कहीं कोई अवैदिक मत व पनथ सिर नहीं उठाता था। इसका परमाण है कि महाभारत काल तक संसार में केवल क मत वैदिक धरम ही था। महरषि वेदवयास व महरषि जैमिनी के यग में इस ऋषि-परमपरा का अनत होने पर सरवतर अजञान का अनधकार छा गया। देश व संसार में अनेक अवैदिक मत उतपनन ह जिनका मखय कारण अजञान था। इन मतों के अनयायियों व परवतरकों में सा कोई मनषय नहीं था जो वेदों का जञानी रहा हो और जो सभी मत परवतरकों व आचारयों को उचित परामरश देकर मतों की अजञान व अनधविशवासपूरण मानयताओं को दूर कराता। यह कारय महरषि दयाननद जी ने किया जिससे वह कमातर ईशवरीय दूत सिदध होते हैं कयोंकि उनहोंने अपने सममान, परशंसा, लोकैषणा व विततैषणा से परभावित होकर यह कारय नहीं किया अपित लोकोपकार की भावना से परेरित होकर किया। ईशवर दूत शबदों के परयोग का यह अरथ कदापित नहीं है कि दयाननद जी कोई विशिषट आतमा थे। दयाननद जी व सभी मनषयों की आतमायें यहां तक की पश व पशओं की आतमायें भी क समान हैं परनत जञान व कारय की दृषटि से उनहें ऋषि वा ईशवर का वेदसनदेश संसार में परकाशित करने के कारण सचचा दूत कहा है। उनहोंने सा कोई कारय नहीं किया जो उनके अपने अनयायियों व देश के हित में हो व अनय देशवासियों का अहित होता हो जैसा कि आजकल के परायः सभी मत हैं जो सवहित को महतव देते हैं और परहित की हानि भी करते हैं। अतः ईशवर से आरमभ वेदजञान व वेद परचार की परमपरा जो ऋषियों के माधयम से महाभारतकाल व कछ बाद तक चली, उसी परमपरा को उनहोंने पनरजीवित किया। हम उनके दवारा परदतत वैदिक जञान की निषपकष आधार पर विवेचना करने पर यह पाते हैं कि आज विशव में सतय व सरवांगपूरण क ही मत है और वह वेद मत व महषि दयाननद दवारा परचारित वैदिक धरम ही है। सभी मतों की अचछी बातों का इसमें समावेश है और जिन बातों का समावेश नहीं हो सका उसका कारण उनका सतय न होना है। यहां यह भी उललेख कर देते हैं कि वेद परचार का मखय उददेशय व अरथ संसार के लोगों को शरेषठ गण-करम-सवभाव व विचारों वाला, वैदिक भाषा में इसे हीआरयकहते

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