कया कोई ईशवर तथा सृषटि की आदि व महाभारत काल से सन 1883 तक ह ऋषियों का कोई परतिनिधि व योगयतम उततराधिकारी हआ है?  इसका उततर है कि हां, इनका उततराधिकारी हआ है और वह केवल महरषि दयाननद सरसवती हैं। इसका कया परमाण है कि महरषि दयाननद इन सबके और मरयादा परूषोततम शरी राम तथा योगेशवर शरी कृषण के भी परतिनिधि और उततराधिकारी थे? हम तो यहां तक कहेंगे कि आदि शंकराचारय जी के असली उततराधिकारी भी महरषि दयाननद सरसवती ही थे। इसका परमाण है कि ईशवर ने सृषटि की आदि में अगनि, वाय, आदितय व अंगिरा नामक 4 वैदिक ऋषियों को चार वेदों, ऋगवेद, यजरवेद, सामवेद और अथरववेद का जञान दिया था। इस जञान की इनके बाद बरहमा, महाराज मन आदि अनेक ऋषि व राजरषियों व उनके बाद महरषि पतंजलि, महरषि कपिल, महरषि कणाद, महरषि गौतम, महरषि वेद वयास, महरषि जैमिनी, महरषि याजञवलकलय, महरषि विशवामितर, महरषि वसिषठ आदि ने रकषा, परचार व परसार, उपदेश, वयाखयान व परवचन आदि किया। इसके साथ यह सभी ऋषि वेदों के जञान के अनसार ही यौगिक पदधति से अपना जीवन वयतीत करते थे। सा ही मरयादा शरी परूषोततम राम और योगेशवर शरी कृषण के जीवन में पाया जाता है। इसी का अनसरण व अनकरण महरषि दयाननद (1825-1883) ने अपने जीवन काल में किया। महरषि दयाननद ने न केवल वेदों की शिकषाओं को जीवन में धारण किया अपित उनके समय में वेद विलपति के कगार पर थे। यह भी कह सकते हैं कि वेदों के सतय-अरथ विलपत परायः हो चके थे। यतर-ततर कछ हसतलिखित मनतर संहितायें विदयमान थी जिनके अरथ जानने वाले विदवान देश भर में कहीं थे, इसका जञान भी किसी को नहीं था। वेदों के मनमाने, असतय, अजञान से पूरण मिथया अरथ पणडितों व जन सामानय में परचलित थे। इस मिथया जञान के कारण समाज व देश में मूरति पूजा, फलित जयोतिष, अवतारवाद, गरूडम, जनम के आधार पर भेदभाव, विषमता व असमानता, सतरी व शूदरों का विदया का अधिकार छीन लिया जाना वं अनेक परकार की अजञान की मानयतायें परचलित थीं जिससे समाज अतयनत कमजोर हो गया था। यहां तक सथिति हो गई थी कि ईशवर के सतय सवरूप तक का जञान उस समय के पणडितों व विदवानों को, न तो देश में था और न ही विशव के किसी अनय सथान पर था। मृतय का वासतविक सवरूप कया है, यह कयों होती है, कया इससे बचा जा सकता है, मनषय का जनम कयों होता है, ईशवर कैसा है, कहां रहता है, कया करता है, यह सृषटि किसने बनाई है या सवयं बन गई है, किसी ने बनाई है तो किसने व कैसे बनाई तथा यदि सवयं बन गई है तो कया यह समभव है? इन परशनों के उततर देने वाला कोई नहीं था। महरषि दयाननद ने 21 वरष की आय पूरण करके बाइसहवें वरष में गृह तयाग कर इन सब परशनों के उततरों को खोजा, अनसंधान किया, उस समय के बड़े-बड़े विदवानों, योगियों, महापरूषों से समपरक कर इन परशनों के उततर पता किये और ईशवर की कृपा से वह इस कारय में सफल ह। गरू विरजाननद जी दणडी की कृपा से उनहें इन परशनों, संसकृत की आरष वयाकरण का जञान सहित वेदों के मनतरों का शबद, अरथ व समबनध सहित सतय व यथारथ जञान परापत करने की योगयता परापत हई व वह इसमें सफल ह।

इस योगयता को परापत करने के पशचात वह गरू की आजञा से मानवता के सबसे बड़े ‘अजञान’नामी शतर से लड़ने के लि मैदान में उतरे। उनहोंने विचार, चिनतन व गरू से परामरश करके योजना को अनतिम रूप दिया और असतय व अजञान पर आधारित मानयताओं, सिदधानतों, करमकाणडों व करियाकलापों का खणडन करना आरमभ किया। इसके साथ ही वह सतय व जञान पर आधारित मानयताओं व सिदधानतों का मणडन भी करते थे। उनहोंने मूरतिपूजा पर काशी की पणडित मणडली से अकेले शासतरारथ किया जहां विरोधी पकष में सममिलित काशी के मूरधनय लगभग 33 पणडित मूरतिपूजा को वेद सममत, बदधि सममत, जञान सममत व मनषय जीवन के लि उपयोगी सिदध न कर सके। इसके बाद भी जीवन भर उनहोंने अनेकानेक विषयों पर शासतरारथ, वारतालाप, चरचा, शंका-समाधान, उपदेश, परवचन व वयाखयान आदि दिये। सतयारथ परकाश, ऋगवेदादि भाषय भूमिका, संसकार विधि, आरयाभिविनय, वेद भाषय आदि अनेकानेक गरनथों का परणयन किया जिसमें उनहोंने वैदिक सिदधानतों व अनेकानेक गपत व विलपत रहसयों का परकाश किया। अपने सभी गरनथ हिनदी भाषा में लिखने के कारण देश के साधारण लोग वेदों से गहराई से परिचित हो गये। जो कारय सृषटि के आरमभ से दयाननद जी के जीवन काल तक पूरव के किसी विदवान व पणडित ने नहीं किया था, वह कारय, हिनदी में धरमगरनथों की वयाखया करके सवामी दयाननद ने अभूतपूरव वं तिहासिक कारय किया। विदेशी विदवान परो. फरैडरिक मैकसमूलर, सनत रोमारोला, करनल अलकाट, मैडम बैलेवेटसकी, पादरी सकाट, योगी अरविनद, वीर सावरकर, दादा भाई नौरोजी, सर सैयद अहमद खान, नेताजी सभाषचनदर बोस, देवेनदर नाथ मखोपाधयाय आदि अनेकानेक हसतियां उनके कारयों वं वयकतितव की परशंसक थीं। सवामी दयाननद जी ने लपत वेदों की खोज कर उनहें उनके सतय व यथारथ अरथों सहित परकाशित कराया। सतयारथ परकाश जैसा कालजयी गरनथ लिखा जिससे संसार में परचलित नाना मत-मतानतरों में से सतय मत को आसानी से जाना व समा जा सकता है।

सतयारथ परकाश से अरजित जञान को जीवन में धारण करने व इस पर आचरण करने से मनषय का जीवन उननत व सफल होता है। महरषि दयाननद ने ईशवर का सचचा सवरूप बताने के साथ जीवातमा व परकृति के सतय व यथारथ सवरूपों का चितरण भी किया। उनहोंने योग विधि को सरल बनाया और ईशवर की उपासना के लि ‘वैदिक सनधया’गरनथ लिखा जिसके अनसार ईशवर की सतति, परारथना व उपासना कर जीवन को सफल बनाया जा सकता है।  अगनिहोतर की शदध व सही विधि व पदधति उनके समय में या तो विलपत थी या अजञानता व उददेशयहीन करमकाणडों से मिशरित थी। उसका भी उनहोंने सतय व सरलतम रूप सामानय मनषयों के लि परसतत किया जिसका दूसरा उदाहरण सृषटि के इतिहास में नहीं है। इसी परकार से पंच महायजञों के अनय अवशिषट यजञों व उनकी विधियों का परकाश भी उनहोंने अपनी अपूरव परतिभा से अपने गरनथों में किया। आज गायतरी मनतर का घर-घर में पाठ किया जाता है। इसका सरवपरथम परचार व परसार करने का शरेय भी महरषि दयाननद जी को है। संकषेप में यह कह सकते हैं कि महरषि दयाननद ने ईशवरीय जञान वेद के अनसार जीवन के परतयेक पहलू पर विसतार से परकाश डाला और उन वेदों को जिन पर चिरकाल से हमारे पणडितों ने बराहमणेतर जातियों के लि ताले लगाये ह थे, उनकी कंजी को ढूंढ कर उसे सरवजनसलभ कर मानवमातर व सबको उनका उततराधिकारी बना दिया। उनहोंने व उनके शिषयों ने गरूकल व पाठशालायें खोलकर समाज के सभी वरण व वरगों को बिना किसी भेदभाव व समानता के आधार पर वेदों का अधययन कराया जिससे बराहमणेतर जातियों में बड़े-बड़े वेदों के विदवान वं भाषयकार उतपनन ह जिनमें से कछ विदवानों, यथा पं. बरहमदतत जिजञास, डा. आचारय रामनाथ वेदालंकार, पं. यधिषठिर मीमांसक आदि को वेदों की विदवता के लि राषटरपति सममान भी परापत हआ।

हमने आरमभ में महरषि दयाननद को आदि शंकराचारय जी का भी उततराधिकारी लिखा है। इस समबनध में हमारा कहना है कि सवामी शंकराचारय जी ने जिस अदवैतमत का परचार किया था, वह उनहोंने बौदध व जैन मत दवारा नासतिकता के परचार को समापत करने के लि किया था। बौदध व जैन मत की मानयता थी कि ईशवर का कोई असतितव नहीं है। उनके अनसार ईशवर विषयक मानयतायें वैदिक धरमियों की कपोल कलपित मानयतायें हैं। इसका समचित उततर देने के लि सवामी शंकराचारय जी ने अपना मत परसतत किया कि संसार में केवल ईशवर का ही कमातर असतितव है। यह जो सृषटि हमें दिखाई देती है इसका अपना कोई असतितव नहीं है। यह तो ईशवर की अपनी ही माया है वं उसी के अनतरगत है, पृथक व सवतनतर असतितववान नहीं है। जीवातमा अरथात मनषयों व पराणियों की आतमाओं को उनहोंने ईशवर का अंश बताकर उसे भी ईशवर में सममिलित माना। बौदध व जैनियों से शासतरारथ में सवामी शंकराचारय जी की विजय हई जिससे इन दोनों समपरदायों का ईशवर की सतता के न होने का सिदधानत कट गया और वैदिक सतय मत की रकषा हो सकी। महरषि दयाननद ने सवामी शंकराचारय जी के मत को अमानय out right reject नहीं किया अपित कहा कि ईशवर का सवतनतर असतितव है। शंकराचारय जी की यह मानयता उचित व सतय है। सवामी  दयाननद ने सृषटि के बारे में कहा कि सवामी शंकराचारय जी जिसे ईशवर से जड़ी माया मानते हैं वह पृथक क निरजीव, जड़ ततव है जो कि ईशवर से पृथक व सवतनतर है परनत ईशवर के वश में है।

इसी परकार से सवामी दयाननद ने जीवातमा को ईशवर का अंश सवीकार न कर उसे पृथक अनादि, नितय, अजनमा व अमर पदारथ सवीकार किया व उसके वेद व वेद सममत होने को परमाणों, यकति व तरकों से सिदध किया। इस परकार से उनहोंने सवामी शंकराचारय के मत को क नया सवरूप परदान किया जो कि पराचीन वैदिक मत ही है। आज तक सवामी दयाननद जी के तरैतवाद के सिदधानत को अदवैतवादी व अनय किसी मत के आचारय दवारा खणडित नहीं किया गया और न ही उसे कभी लिखित या मौखिक चनौती दी है जिससे वैदिक तरैतवाद का मत अपनी पूरण सतयता से संसार में विदयमान होने के कारण परचलित है। हमारा मत है कि यदि आज सवामी शंकराचारय जी जीवित होते तो वह महरषि दयाननद के मत की वैदिकता व सतयता पर अपनी महर अवशय लगाते। उनहोंने अदवैतवाद मत की सथापना देश, काल व परिसथितियों के अनसार की थी जिसका उददेशय वैदिक धरम की रकषा करना था। अतः उनका वह मत भी आज सवामी दयाननद के सतय मत में परिवरतित हो कर परचलित है। अतः सवामी दयाननद ने सवामी शंकराचारय के अदवैतवाद मत में सधारकर उसे वैदिक तरैतवाद मत के रूप में परचलित करने के कारण सीमित अरथों में क परकार से वह उनके अनवरती ही हैं, विरोधी नहीं।

से अनेकानेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जिसके अनसार महरषि दयाननद ने वेदों की आजञा के अनसार सवयं को वेदों की शिकषाओं का पालन व धारणकरता होने के साथ जन-जन में वेदों के सतय सवरूप का परचार व परसार किया जो ईशवर व वेदों की आजञा है। उनके जैसा व उनके जितना कारय अनय किसी महापरूष ने नहीं किया इस कारण महरषि दयाननद ऋषि परमपरा के सरवोततम विदवान, ऋषि व महरषि के गौरवमय पद पर परतिषठित है। उनकी शिकषाओं का लाभ उठाकर संसार का कोई भी मनषय अपने जीवन का कलयाण कर सकता है। इन सब कारणों से महरषि दयाननद ईशवर व अब तक उतपनन सभी ऋषियों के योगयतम परतिनिधि वं उततराधिकारी सिदध होते हैं। आईये, महरषि दयाननद के साहितय के अधययन का वरत लें और अपने जीवन को सफल सिदध करें।

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