आजकल यदि धरम संजञक देशी विदेशी मत-मतानतरों या संसथाओं की संखया गिनने लगें तो यह अतयनत कठिन व जटिल शरम साधय कारय होगा। समभवतः सभी धारमिक संसथाओं की गणना की भी न जा सके। यदि गणना कछ कछ कर ली जाये तो इन सबकी मानयतायें कया-कया हैं, उनमें दूसरों से कया अनतर है, यह जानना भी कठिन कारय है। क मौलिक परशन है कि कया यह सभी संसथायें या मत-मतानतर धरम हैं ? यदि यह सभी धरम मान लिये जायें तो फिर यह परशन उतपनन होगा कि धरम क होता है व अनेक? आईये, धरम वसततः है कया, इस पर विचार करते हैं। कहा जाता है कि अगनि का धरम जलाना है। इसी परकार से कहा जाता है कि वाय का धरम सपरश, जल का शीतलता, पृथिवी का गनध आदि है। आकाश का गण शबद कहा जाता है जो कि वैजञानिक आधार पर भी सिदध है। किसी वसत के गण ही वसततः धरम कहलाते हैं। यदि अगनि का धरम जलाना है तो कया सथान सथान पर जो अगनियां हैं, उनके धरमों व गणों में कहीं नयूनाधिक अनतर है? सा नहीं है, अगनि चाहे हमारे घर में हो, या पड़ोसियों के यहां या सदूर सथान पर, सब जगह उसके गण वा धरम क समान होते हैं। किसी भी पदारथ के गणों को ही उसका धरम कहा जाता है। यदि सा है तो मनषयों का धरम कया हो सकता है। मनषय कोई जड़ पदारथ न होकर क चेतन पराणी है जो सोच सकता है, विचार, चिनतन, मनन, ऊहापोह, विशलेषण आदि कर सकता है। से मनषय या पराणी का धरम कया हो सकता है। इसका निरधारण या तो ईशवर कर सकता है या फिर कोई बहत बदधिमान मनषय कर सकता है। हम यह भी जानते हैं कि महाभारत काल तक भारत व संसार के अनेक देशों में वैदिक धरम व संसकृति का परचार व परसार रहा है। देश में ऋषियों, विदवानों, जञानियों, चिनतकों व विचारकों की बड़ी संखया रही है। से लोगों को ही धरम चरचा करने व धरम निरणय करने का जञान व सलीका आता है।

इन लोगों के विचारों को पढ़ने पर यह जञात होता है कि सतय का आचरण ही मनषय धरम है। यह सतयाचार न केवल भारत के किसी क या वयकति समूहों का धरम है अपित सारी दनियां के मनषयों का धरम है। संसार में क भी सा बदधिमान मनषय नहीं मिलेगा जो धरम की इस परिभाषा से सहमत न हो। इसमें अनय अनेक बाते भी जोड़ी जा सकती हैं जो सतयाचार की विरोधी न होकर पूरक हों। जैसे कि इस संसार को बनाने वाले सृषटिकरता ईशवर की उपासना करना। यजञ व हवन करना जिसमें शदध घृत व ओषिधियों से वैदिक ऋषियों दवारा बनाई गई परकरिया या विधि से अगनिहोतर करने से वाय मणडल की शदधता व पवितरता में वृदधि होती है, सवासथय के लि हानिकर किटाणओं का नाश होता है, जञात व अजञात शारीरिक रोगों की निवृतति व मानसिक विकार दूर होकर चरितर निरमाण होता है और यहां तक की सभी शभकामनायें भी पूरण होती हैं। इसी परकार से माता-पिता की शरदधा पूरवक सेवा करना, जञानियों, अतिथितियों व साध सनयासियों का सतकार करना तथा पश-पकषियों आदि की रकषा व उनको भोजन दवारा तृपत करना भी सतयाचार के अनतरगत सममिलित किया जा सकता है। माता-पिता का करतवय है कि वह अपनी सनताओं को परा व अपरा विदया की शिकषा व संसकार देकर उनहें योगय बनायें। यह तो धरम की बात हई। अब वेद कया हैं वह वेदों का आचरण धरम कैसे हैं इस पर विचार करते हैं।

वेद के बारे में पराचीन गरनथों में यह उललेख पाया जाता है कि वेद आदिकालीन अरथात सृषटि के आरमभ से विदयमान हैं। फिर इनका रचयिता कौन है? इसका उततर है कि आदि कालीन होने से इनका रचयिता कोई मनषय या विदवान न होकर इस संसार को रचने वाला सृषटिकरता ही इसका तथा आधयातमिक जञान व विजञान का भी रचयिता है। इसको सिदध भी किया जा सकता है। हमने विचार करने पर पाया है कि पराचीन काल में मनषय को उसी सतता ने जनम दिया जिसने की इस सृषटि को बनाया है। विजञान व हमारे देशी व विदेशी वैजञानिक इस तथय को सवीकार करें या न करें परनत यह शत-परतिशत सतय है कि इस सृषटि की रचना ईशवर से हई है। यदि ईशवर न हो और वह सृषटि की रचना न करे, तो सृषटि असतितव में नहीं आ सकती। सवतः सृषटि का निरमाण वैजञानिक नियमों से ही असतय सिदध होता है। अतः सृषटि का उतपततिकरता तथा मानव जीवन के निरवाह के लि उतकृषट जञान का देने वाला कमातर ईशवर ही सिदध होता है। यहां जञान, जञान देने वाला व जञान लेने वाला तीन पृथक सततायें हैं। सृषटि में समसत जञान का आदि मूल ईशवर है। इसका तातपरय है कि जञान रहित जड़ परकृति का उपयोग कर इससे सृषटि यथा सूरय, चनदर, पृथिवी व गरह-उपगरह तथा इस बरहमाणड की रचना करने वाला ईशवर है। ईशवर जञानवान, सरवजञ, अनादि, अननत, निराकार, सरववयापक, सरवशकतिमान, दयाल व नयायकारी सतता है। सृषटि की रचना करने के जञान, बल, सरवातिसूकषम व सरववयापक सतता की आवशयकता है जो कि ईशवर है। इसको जानने व समने का क ही उपाय है कि वेदों का अधययन और योग विधि से ईशवरोपासना करना। हमारे वैजञानिक कयोंकि यह दोनों ही कारय न तो जानते हैं और न ही करतें हैं, अतः वह ईशवर को जानने व समने में सरवथा असमरथ रहे हैं। जब वह अपने वैजञानिक विषयों के अधययन में धयान का सहारा लेते हैं तो ईशवर को जानने में भी यदि धयान विधि से चिनतन करें, तो सफलता अवशय मिल सकती है। रामायण व महाभारत गरनथों से सिदध है कि मरयादा परूषोततम राम तथा योगेशवर शरी कृषण महाराज ईशवरोपासना व यजञ आदि करम किया करते थे। उनके बाद उतपनन आदि शंकराचारय भी ईशवर के असतितव में पूरी तरह विशवास रखते थे। उनके गरनथ वेदानत दरशन, गीता व उपनिषदों के भाषय से उनकी ईशवर विषयक मानयताओं को जाना जा सकता है। इसी परकार महरषि दयाननद भी आदरश ईशवर उपासक थे। उनहोंने ईशवर के सवरूप का वरणन वेद वं वैदिक साहितय के आधार पर किया है जो सतय व वयवहारिक है, कालपनिक कदापि नहीं। सा अनभव अधयेता व ईशवर उपासना करने वालों का है। हमारा अनमान है कि यदि बड़े-बड़े वैजञानिक योग, धयान विधि से वैदिक सिदधानतों को जानकर उपासना करने का परयास करें तो उनहें ईशवर की सतता का जञान हो जायेगा। वैजञानिकों का ईशवर को न मानना कछ इस परकार का है कि कोई विदवान किसी पतर का असतितव सवीकार करता है परनत समीप में पिता के उपसथित न होने पर उसके असतितव से इनकार करता है। इसी परकार वैजञानिक सृषटि को तो सवीकार करते हैं परनत इस सृषटि के रचयिता को असवीकार कर देते हैं। उनका यह कथन अजञान व अवैजञानिक ही कहा जा सकता है। सृषटि है तो सृषटिकरता अवशय है उसी परकार से जिस परकार से पतर है तो उसके माता-पिता अवशय ही है ।

वेद ईशवरीय जञान है। सृषटि के आरमभ में ईशवर ने अमैथनी सृषटि में उतपनन सहसरों मनषयों में चार ऋषि अगनि, वाय, आदितय व अंगिरा को करमशः ऋगवेद, यजरवेद, सामवेद वं अथरववेद का जञान दिया था। उनहोंने यह जञान अनय परूष बरहमा जी को कराया। वेदों के जञानी होने से यह पांचों महान आतमायें ऋषि की उपाधि से अलंकृत हैं। वेदों में परा व अपरा, आधयातमिक और सृषटि विदयायें हैं। इनकी सहायता से मनषय की सरवांगीण उननति होती है। ईशवर, ईशवर का सवरूप, ईशवर के कारय तथा इसी परकार जीवातमा, इसका सवरूप व इसके कारयों पर वेदों में विसतार से चरचा है। इनके साथ ही सृषटि व परकृति का भी जञान वेदों में विदयमान है। मनषय के सभी करतवयों का जञान भी वेदों में दिया गया है। कृषि, यदध, राजधरम, गोपालन, अंहिसा, ईशवरोपासना, यजञ, सतरी का गौरव, विवाह, शिकषा, संसकारों का जञान व इनके संकेत भी वेदों में दिये गये जिस पर धयान केनदरित कर मनषय इन विदयाओं का विसतार कर सकता है जैसा कि आज के वैजञानिकों ने किया है। अतः वेदों का अधययन व उसकी शिकषाओं के अनसार आचरण ही सभी मनषयों का धरम है। यदि इनका परचार किया जाये तो उसे वेद परचार कहेंगे। इसी परकार से वैदिक शिकषाओं का परचार ही धरम का परचार कहलाता है। आजकल जो धरम नाम से कारयरत संसथायें व मत आदि हैं, उनहोंने कछ वेदों का और कछ व अनेक कहानी किससे आदि बना कर नये नाम से मत, धरम, समपरदाय आदि बना लिये हैं। वैदिक शिकषा, जञान, व करतवयों की शिकषा अपने आपमें पूरण हैं। इससे जीवन का उददेशय -धरम, अरथ, काम व मोकष अरथात भोग व अपवरग की परापति होने से यही सारी दनियां के लोगों के लि करतवय व आचरण करने योगय है। इसके विपरीत यदि वह मत-मतानतरों के अनयायी बनते हैं तो वहां आधी-अधूरी व कछ धरम विरूदध बातें व कारय से हैं, जिससे मनषय के जीवन के बनधनों के कटने के सथान पर बनधनों का परिमाण बढ़ता है। यह बातें वेदाधययन करने के बाद परापत शदध बदधि से ही जानी जा सकती हैं।

लेख की समापति पर हम यह निवेदन करना चाहते हैं कि वेद परचार और धरम परचार क दूसरे के पूरक वं परयाय हैं। मनसमृति में भी मन महाराज ने कहा है कि ‘वेदाखिलो धरममूलम’ अरथात धरम का मूल वेद है। मूल को छोड़कर यदि पततों को पानी दिया जायेगा तो वृकष या पौधा सूख जायेगा। आईये, मत-मतानतरों की सोच से ऊपर उठकर ईशवर के सचचे सवरूप तथा वेदों की समगर शिकषाओं को जान कर उसका पालन करें और अपने जीवन को सफल करें। वेदों का जञान व उसकी शिकषायें ही धरम हैं, अनय जो भी है यदि वह वेदों के अनकूल हैं तो वह धरम, अनयथा धरम नहीं हैं। हमें विचार करना चाहिये और सतय को सवीकार करना चाहिये। कहीं सा न हो कि समय आगे निकल जाये और हम मत-मतानतरों के चककर में फंस कर अपना जीवन बरबाद कर लें। वेद क सा महावृकष है जिसके नीचे अकषय छाया है और जिसमें बैठने से ही जीवन का कलयाण होता है व हो सकता है।

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