अजञान मिशरित धारमिक मानयताओं की सतय के आलोक व पराणिहित में समीकषा व संशोधन की आवशयकता

गंगा का उदगम गंगोतरी से होता है जहां इसका जल पूरण शदध व पवितर होता है। गंगोतरी से गंगा नीचे उतरती है तो ऋषिकेश तथा हरिदवार में पहंच जाती हैं। यहां आते-आते इसके जल की शदधता वह नहीं रह पाती जो गंगोतरी में होती है। इसी परकार से यदि हरिदवार से चलकर बंगाल की खाड़ी में मिलने तक गंगा के जल की शदधता का मूलयांकन करें तो पाते हैं कि हरिदवार के बाद जल परदषण में उततरोतर वृदधि होती रहती है। हरिदवार में ही हमारे परदषण विशेषजञों दवारा कहा गया है कि इसका जल आचमन अथवा पीने के योगय नहीं है। इसको पीने से सवासथय को हानि होने का खतरा है। यह बात तो जल परदूषण के सनदरभ में है। सा ही कछ-कछ धारमिक जञान व परमपराओं के सनदरभ में भी देखते हैं। सृषटि के आरमभ में ईशवर ने चार वेदों का जञान अमैथनी सृषटि में उतपनन अनेकानेक अथवा सहसरों सतरी परूषों में से 4 ऋषियों अगनि, वाय, आदितय व अंगिरा को दिया था। समभवतः इनका नामकरण भी ईशवर की परेरणा से ही हआ। ईशवर का यह जञान पूरण शदध, पवितर तथा विजञान का पोषक था तथा अजञान, अ-विजञान, अनधविशवास, मिथया विशवास, अंध-परमपरा व करीतियों से सरवथा रहित था। सा कैसे व कयों था? सा इसलिये था कि जञान देने वाली सतता ईशवर ही सृषटि का उतपततिकरता, सबका रचयिता, जनक, निरमाता, सब विदयाओं का दाता, माता व पिता है। उसी ने सृषटि बनाई है तो सवाभाविक है कि उसे सृषटि बनाने का पूरा जञान है। हमारे उदयोगों में जो पदारथ या उतपाद बनते हैं उनके वैजञानिकों, इंजीनियरों व परमख अधिकारियों को वयकतिगत या सामूहिक रूप से उस उतपाद के बनाने की पूरी जानकारी होती है।  अब यदि वहां कोई नया अनभवहीन अधिकारी या वैजञानिक भरती होता है तो उस वयकति को वह अपना समसत जञान परेरणा दवारा बोलकर अरथात वयाखयान, उपदेश व परवचन दवारा अथवा PRESENTATION और परयोगातमक परशिकषण दवारा देते हैं। सा ही परमातमा सृषटि के आरमभ में करता है। वह समसत सृषटि को बनाकर उसमें पृथिवी गरह पर अगनि, जल, वाय व आकाश की सृषटि करता है। उसके बाद अनय पराणियों को बनाता है और अनत में अमैथनी सृषटि के नियमों के अनसार मनषयों को बनाता है। इनको बनाकर वह सभी उतपनन ह मनषयों में से सबसे योगय 4 ऋषियों, जिनहें योगय व पातर वैजञानिक या अभियनता कह सकते हैं, परशिकषण के रूप में चार वेदों का जञान देता है जिससे वह अपने व अनयों के जीवन का भली परकार निरवाह कर-करा सकें। यह जञान कया होता है? यह जञान मनषय के करतवय व अकरतवयों, सृषटि के पदारथों के नाम, रूप व गणों का जिसमें ईशवर, जीव व परकृति तीनों ही सममिलित हैं व अनय समसत विदयाओं, जञान व विजञान व इससे समबनधित विषयों का जिससे कि सतय जञान व विजञान से यकत सफल जीवन वयतीत किया जा सके, होता है। महरषि दयाननद (1825-1883) ने अपने अपूरव परूषारथ व उतसाह से वेदों का जञान अरजित किया और इसमें यथा समभव पूरणता अरजित करने के बाद यह घोषणा की कि चारों वेद सब सतय विदयाओं की पसतक हैं। इन वेदों को सवयं पढ़ना, अधययन करना, दूसरों को पढ़ाना व अधययन कराना सब विदवान व ‘आरय’संजञक शरेषठ मनषयों का करतवय है। उनहोंने यह भी बताया कि सब सतय विदयायें और जो पदारथ विदया व विजञान से जाने जाते हैं, उनका सबका आदिमूल origin and root cause परमेशवर है। हम अनभव करते हैं कि यह नियम ही विजञान की आधारशिला है।

ईशवर के सवरूप का वरणन करते ह उनहोंने 3 भिनन-भिनन परकरणों में लिखा है कि ‘‘ईशवर सचचिदाननद सवरूप, निराकार, सरवशकतिमान, नयायकारी, दयाल, अजनमा, अनादि, अननत, निरविकार, अनादि, अनपम, सरवाधार, सरवेशवर, सरववयापक, सरवानतरयामी, अजर, अमर, अभय, नितय, पवितर व सृषटिकरता है। (सभी मनषयों को) उसी की उपासना करनी योगय है। ...... ईशवर कि जिसको बरहम, परमातमादि नामों से कहते हैं, जो सचचिदाननदादि लकषणयकत है जिसके गण, करम, सवभाव पवितर है, सब सृषटि का करता, धरता, हरता, सब जीवों को करमानसार सतय नयाय से फलपरदाता आदि लकषणयकत है, वह परमेशवर है, (मैं) उसी को मानता हूं। .....  जिसके गण-करम-सवभाव और सवरूप सतय ही हैं, जो केवल चेतनमातर वसत है तथा जो क, अदवितीय, सरवशकतिमान, निराकार, सरवतर वयापक, अनादि और अननत, सतय गणवाला है, और जिसका सवभाव अविनाशी, जञानी, आननदी, शदध, नयायकारी, दयाल और अजनमादि है, जिसका करम जगत की उतपतति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप-पणय के फल ठीक-ठीक पहंचाना है, उसी को ईशवर कहते हैं।“

ईशवर से भिनन क अनय चेतन ततव ‘जीवातमा’अलपजञ, कदेशी, सूकषम, आकार रहित, जनम-मरण धरमा, दःखों से निवृतति की इचछा रखने वाला, अजनमा, नितय, अनादि, वेदाधययन दवारा सतकरमों को जानकर व करके दःखों से निवृतत होकर शरेषठ गण, करम व सवभाव को धारण कर जनम मरण से छूट कर मकति को परापत करने में समरथ क ततव व पदारथ है, जिसको अगनि जला नहीं सकती, मृतय के बाद भी जिसका असतितव समापत नहीं होता, जल जिसे गला नहीं सकता, शसतर जिसे काट नहीं सकते और यह जीवातमा क सा पदारथ है कि वाय इसे सखा नहीं सकती। महरषि दयाननद जीवातमा का सा सवरूप सवीकार करते हैं जो कि वेदादि शासतरों के परमाणों से पषट है। उनहोंने अजञानियों के जञानारथ इसका परचार किया। इसी परकार से वह तीसरे ततव परकृति की दो अवसथायें बताते हैं जिनमें क कारण अवसथा है और दूसरी कारय अवसथा। कारण अवसथा में यह अति सूकषम, सतव, रज व तम गणों की सामयावसथा है तथा ईशवर के अधीन नियंतरण में रहती है। सारा आकाश इसके अति सूकषम कणों से भरा हआ होता है। इसी कारण परकृति से ईशवर रचना कर परमाण आदि अथवा महतततव, अहंकार, पांच तनमातरायें आदि बनाकर यह सृषटि व बरहमाणड जिसमें सूरय, चनदर, पृथिवी, नकषतर आदि हैं, निरमाण करता है। महरषि दयाननद व उनसे पूरव अनेकानेक पूजय ऋषियों दवारा परसतत जञान ही सतय, यथारथ व वासतविक है। यह जञान वेदों का पवितर व शदध जञान है। विगत 1,96,08,53,114 वरषों से परचलित रहने के कारण इसमें अजञान का मिशरण, परदूषण आदि होने से यह जञान विकृत हो गया। वेदों के अनसार हमारे ऋ़षि-मनि यजञ किया करते थे जो पूरण अंहिसा के नियमों का पालन करते थे परनत अजञानियों व सवारथी वयकतियों ने इसमें हिंसा करना आरमभ कर दिया व धीरे-धीरे इसका परभाव बढ़ता रहा और बौदध काल तक आते-आते यजञ ही परदूषित नहीं ह, अपित सभी मानयताओं, करतवयों-अकरतवयों आदि में भी परिवरतन हो गया जिससे साधारण मनषयों को कठिनाई होने लगी। सी विपरीत परिसथितियां उतपनन होने पर किसी समाज सधारक का कया करतवय होता है? कया उस सारे जञान को ही निषिदध कर दे या अनसंधान कर उसमें जो अजञान मिल गया है, उनहें ढूंढ कर पृथक कर दे या हटा दे? हमारे वैजञानिक भी सृषटि का अधययन कर विजञान के नये-नये नियमों को ढूंढ कर उनसे मानवता के उपकार के कारयों को करते हैं। गंगा में परदूषण है तो समदार लोग यह नहीं कह रहे हैं कि सा उपाय किया जाये कि गंगा का बहना बनद हो जाये अपित वह कह रहे हैं कि गंगा में जो परदूषण है, उसे हटाया जाये वं परदूषणकारक पदारथों को उसमें मिलने से रोका जाये। परनत अतीत में सा न कर उस समय के समाज सधारकों ने वेदों की निनदा कर डाली और उसकी अचछी बातों को भी मानना असवीकार कर दिया। उनके व उनके अनयायियों में वेद तयाजय गरनथ बन गये। यह कछ सा ही किया गया जैसे कि यदि किसी पसतक में कछ मदरण दोष या सिदधानत विरूदध काधिक कथन हो तो पूरी पसतक जिसमें अनेकानेक मूलयवान उपयोगी शिकषायें व जञान भी है, उसका पूरण बहिषकार कर दिया जाये। हमें लगता है कि सा करने वालों में जञान की अवशय कछ कमी थी वरन वह जान पाते कि वह वेदों की जिन अचछी बातों को छड़वा रहे हैं उससे मानव समाज की सी हानि होगी जिसकी पूरति किसी भी परकार से नहीं का जा सकेगी। लोगों ने उनकी ही अनचित व परमाणहीन असतय बातों को उचित मान लिया और उनका अनकरण करने लगे। समाज में जो सवारथी व अजञानी लोग थे, वह अपना मनोरथ सिदध करते रहे। आज भी पढ़े-लिखे शिकषित कहलाने वाले अपने सवारथों की पूरति के लि अनचित कारय करते हैं जिससे लाखों करोड़ों मनषयों के हितों की हानि होती है। यह सिलसिला जारी है, शायद से दषकृतय कभी रूके भी न।

वेदों के विरोध व अजञानी सवारथी लोगों के कारण महाभारत काल के बाद और मधयकाल में हमारा समाज अजञान, अनधविशवास, अनचित परमपराओं व करीतियों का दास बन गया जिसके जारी रहने से इन अकलयाणकर बातों का परभाव समय पाकर अधिक परभावशाली हो गया है। उननीसवीं शताबदी के उततरारध में महरषि दयाननद दवारा वेदों की सतय व जन-कलयाणकारी शिकषाओं के वयापक परचार को भी समा नहीं गया वा उसकी उपेकषा की गई। समाज की यह मानसिकता सवयं के लि अतयनत अहितकर व जीवन के लकषय व उददेशय को जानने व परापत करने में बाधक है। आज भी देश व समाज के बहत बड़े भाग दवारा उनहीं जञान व तरक से असिदध मानयताओं को बिना परीकषा के जीवन में माना जाकर उस पर आचरण किया जा रहा है। परिणाम की चिनता किसी को भी नहीं है। जीवन के उददेशय “साधय” व उसकी पूरति के “साधनों” से सभी मतों के अनयायी अनभिजञ हैं और अजञानियों की तरह मिथयाचार कर रहे हैं। जिस परकार अनधकार में घर की व बाहर की वसतयें सपषट दिखाई नहीं देती, सी सथिति में हमें अभयास या अनदाज से सहारा लेकर कारय करना होता है, वैसा ही कछ मधयकाल व उससे कछ पूरव हमारे पूरवजों ने किया जो धारमिक कषेतरों में अब भी यथावत विदयमान है। सरवोपरि महान ईशवरभकत, देशभकत व मानवहितैषी महरषि दयाननद सरसवती ने ईशवर दवारा वेदों के सतय जञान का परकाश कर जिन सतय मानयताओं और सिदधानतों का परचार किया, उसे हमारे देश और संसार के लोग अपने मनों में उपसथित अनधकार, अविदयादि, हठ व दरागरह आदि के कारण सम नहीं पाये और न ही उनकी इस विषय में कोई रूचि, कोशिश या परयतन है, जो कि दःखद है। मधयकाल में यजञों में होने वाली हिंसा के कारण उनके विरोध में हमारे महापरूषों ने वेदों का ही निषेध कर दिया था और यहां तक किया व माना कि ईशवर नाम की कोई सतता ही नहीं है। उनहोंने सतय को जानने का परयास ही नहीं किया जो कि उनका करतवय था। शताबदियों के बाद यह कारय महरषि दयाननद ने किया और यजञों व वेद पर जो मिथया आरोप लगे थे उनहें अपनी अपूरव विदया व योगबल से धो कर सवचछ कर दिया। उनहोंने बताया कि ईशवर का असतितव सतय है और वह तरकों व अनेक परमाणों से सिदध है। आज करोड़ों की संखया में उनके अनयायी उनके ईशवर की सतता व सवरूप विषयक तरकों व मानयताओं से परिचित हैं। मधयकालिक आचारयों के कारण समसत देशवासी पूरण या अरध व कछ नयून नासतिक बना दिये गये थे और उनकी असतय, मिथया व अजञानपूरण बातों को अजञानी लोगों ने अविवेकपूरण रूप से सवीकार किया। इस सब सथिति के जि पूरण या कछ कम व अधिक मातरा में हमारे वह वेद मतावलमबी भी दोषी हैं जिनहोंने वेदों को विकृत किया था। से लोगों ने समाज में अनेक मिथया विशवासों को जनम दिया। उनका विरोध व सधार तो अवशयमेव किया जाना था परनत इसके साथ सतय की भी रकषा करनी चाहिये थी न कि सतय को तयाग देना उनकी बदधिमतता थी। यह सा ही था कि यदि सिर दरद है तो सिर को कटवा देने की सलाह देना या बात करना। यहां इतना ही कहा जा सकता है कि मधयकाल में इस देश में जितने भी मत उतपनन ह वह सतय जञान वेद के सममख अब अनावशयक व अपरासंगिक हैं। अब केवल सारी मानव जाति के लि क ही सतय मत की आवशयकता है जिसकी हर बात व करिया जञान, सतय, बदधि, तरक, यकति, परमाण, सृषटि करम के अनकूल, अकाटय व विदया से यकत हो। यही कारय महरषि दयाननद ने अपने समय में किया। उनके दवारा परसतत वेद मत का संशेधित व परिषकृत सवरूप ही इन कसौटियों पर खरा है। यदि सा है तो फिर सभी मनषयों दवारा इसे सवीकार करने में बाधा कया है? हमें अनभव होता है कि हमारी अपनी अजञानता व सवारथ ही इसमें बाधक है, अनय कोई कारण दृषटिगोचर नहीं होता। यह कब तक चलेगा, कहा नहीं जा सकता। जिस परकार बचचे गडडे-गड़ियों व खिलौनों से खेलते हैं और बड़े होकर जञान परापत होने पर उनसे खेलना छोड़ देते हैं, सा ही मनषयों के साथ भी होना चाहिये परनत लगता है कि हमने इस उदाहरण से शिकषा गरहण नहीं की है। जब हम व हमारे सभी बनधओं को अपने अजञान का जञान हो जायेगा तभी इनका छूटना समभव है। इसके लि सचचे गरूओं जैसे कि हमारे वैजञानिक

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  • Gwwindia

    मैं आपसे सहमत हू।

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  • vedicweb

    आरय समाज को करीतिया मिटाने के कारय को गति देनी होगी

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    • मैं आपसे सहमत हू।

    • मैं आपसे सहमत हू।