Shri Krishn Ashtami

Birthday of Arya King Shri Krishna
26 Aug 2024
Bhadrapad Krishna 8, 2081
: 26 Aug 2024
: Gazetted

( भादरपद बदि अषटमी)

           

            धनय है दिन आज का, शभ कृषण-भादव अषटमी।

            आज ही मां देवकी तो, कृषण बालक थी जनी ।। १ ।।

            रोहिणी नकषतर रजनी मधय, अति अभिराम में।

            आज ही बरजचनदर परकटे, शरी यशोदा-धाम में ।। २ ।।

            नाश करने को उनहें, जो दःखद आठों याम थे।

            आज ही भारत मही में, आ पधारे शयाम थे ।। ३ ।।

            उमड़ आये घनं चहं दिशि शयामता थी छा गई।

            मानो परकृति देवी सवयं, सवागत मनाने आ गई ।। ४ ।।

 

                                                            -शरी अमरनाथ पाणडे

 

परतयेक देश और जाति में से समय आया करते हैं जब कि उन में से परष उतपनन होते हैं। जो ईरषया, दवेष, सवारथ कदाचार तथा कायरता के भावों से भरपूर होते हैं। वे समय उस देश और जाति के पतन के सूचक होते हैं। यह कब समभव था कि आरय जाति, जिस की उननति सभयता और विदवतता का सिकका संसार पर जम चका था और जिसका उतकरष चरम सीमा को पहंच चका था, कराल काल के चकर में न आती। गत दवापर यग का अनत भारत में सा ही समय था। अब आरय जाति का जञानकाल वयतीत हो गया था और उसके सथान में पराकृतिक वैभव का सामराजय वरतमान था। अब भरत और राम के सथान कंस और दरयोधन जैसे राजयलोलप कलकलंकों ने ले लिया था। अब राजय इनदरिय वासनाओं की तृपति और शवरय परदरशन का साधन मातर रह गया था। सरवतर हिक उननति और बाहय आडमबर का परसार दिखाई देता था। भारत के चारों ओर ईरषयाल अनेक छोटे-बड़े सवतनतर राजय फैले ह थे। वे धन धानय आदि सखोपभोग की सभी सामगरियों से समृदध थे। और उन के नरेश शसतरविदयापारंगत और वीर होते ह भी मदयपान और दयूतकरीड़ा आदि दरवयसनों में रत रहते थे। उन में कोई चकरवरती राजा न था। यदयपि उस समय मगध नरेश जरासनध की शकति की धाक बैठी हई थी। उस ने बहत से राजाओं को अपने यहां बनदी बना रखा था। सब राजा उसके अतयाचार से डरते रहते थे और उस के बल का लोहा मानते थे। चेदिदेश का राजा शिशपाल भी उस समय महाशकतिशाली समा जाता था। परागजयोतिष ( आसाम ) का राजा नरकासर भी बड़ा दराचारी और बलवान माना जाता था। उस ने अपने दराचार के लि असंखय सनदरी कमारियां अपने यहां बनदी बनाकर रकखी हई थीं। तथापि कोई सरवोपरि समराट उस समय विदयमान न था। उसी समय शूरसेन ( मथरा ) के राजा कंस की राजयलोलपता इस सीमा तक बढ़ चकी थी कि वह अपने वृदध पिता महाराज उगरसेन को बनदी बनाकर सवयं सिंहासनारूढ़ हो गया था। हसतिनापर के विशाल राजय में सिंहासन के लि कौरव और पाणडवों में भयंकर गृह-कलह मच रहा था। उस समय राजाओं, राजघरानों का चरितर बहत ही गिर चका था। सतयवती और कनती के कानीन पतरों की उतपतति, दरौपदी के सवयंवर के अवसर पर राजपतरों की मठभेड़, कौरवों का लाकषागृह, यधिषठिर की दयूतकरीडा, दरौपदी का भरी सभा में अपमान और अरजन का सभदराहरण इस के जवलनत उदाहरण है। जब राजा, राजपरष ही चरितरहीन हो जायें तो परजा का चरितर कैसे उचच रह सकता है? उन में भी इनदरियासकति  à¤”र दरयोधनादि के अतयाचारों के परति विरकति तथा कायरता परसार पा चकी थी। ‘यथा राजा तथा परजा’ के अनसार जनता भी अपने परभओं का अनकरण करती थी। उन में विलासिता और अरथलोलपता दिनोंदिन बढ़ रही थी। अनेक विदयाविशारद बराहमण अरथ के दास होकर राजकल की सेवा सवीकार करने लगे थे। जैसा कि गर दरोणाचारय कौरवों के अरथकरीत दास बनकर उन के दरौपदी के परति कि ह महान अतयाचार पर भी चप रहे थे और उन की ओर से महाभारत-यदध में सेनापति बनकर लड़े थे। वैशय शूदर और सतरियों को हीन समा जाने लगा था। जिस का कि शरीमदभगवदगीता में उललेख पाया जाता है। कलवय को केवल शूदर होने के कारण दरोणाचारय ने धनरविदया नहीं सिखलाई थी। वेद का पठन-पाठन भी शनैः शनैः घट रहा था। भीषम पितामह जैसे परम जञानी भी वेद में विशेष परवेश न रखते थे, इस का उललेख शानति-परव में विदयमान है। महाभारत यदध की कई घटनां बता रही हैं कि उस समय धरम का हनास और अधरम की वृदधि हो रही थी? से धरम-रकषाकारिणी वयवसथा के अनसार धरमोदधारक महापरषों का जनम हआ करता है। जिन के असाधारण कारयों की देखकर जनता में उन के नितय शदध, बदध, विभ, मकत, अकाय, अजनमा, परम बरहम के अवतार होने (शरीर धारण करने) का मिथयाजञान संसार में फैल जाता है। यदि अवतार का अरथ परमेश की विभूतियों से विशिषट (कयोंकि उपासक अपने उपासय देव की विभूतियों और गणों को उपासना दवारा सदैव गरहण करते रहते हैं।) अनेक जनम की संसकार-समपनन आतमाओ के धराधाम पर पनः अवतीरण होने वा जनमने को लिया जा तो इस में वैदिक सिदधानत की कछ भी कषति नहीं है। से ही जनम जनमानतर के संसकृतातमा तथा विविध विभूतिविशिषट क महापरष का लोकाभयदयकारक आविरभाव आज (संवत १९८१ वि.) से ५१५२ वरष पूरव भादरपद कृषण-अषटमी, बधवार, रोहिणी नकषतर में उततर भारत के शूरसेन देश की राजधानी मथरा में हआ था। इसी शूरसेन देश के राजा उगरसेन को उस का दराचारी पतर कंस गददी से उतार कर आप राजा बन बैठा था, यह ऊपर कहा जा चका है। कंस को जरासनध की दो पतरियां असति और परापति नामक बयाही थीं और अपने अतयाचारी शवसर के बूते पर वह हजारों अतयाचार करता था। परजा उस के पीड़न से तंग आ गई थी। परजा को कंस के अतयाचारों से बचाने का जो लोग उदयोग करते थे, उन का अगरगनता यादववंशावतंस वसदेव नामक क वीर नयायपरिय परषरतन था। इसलि कंस उस से सदैव जलता रहता था और भयभीत भी रहता था। उगरसेन के कनिषठ भराता देवल की कनया अरथात कंस की चचेरी भगिनी देवकी थी जो वसदेव को बयाही थी। कंस वसदेव तथा देवकी की तेजिसवता से आशंकित रहकर उन के नाश के परयतन में सदा ततपर रहता था। अनत को उस ने वसदेव और देवकी को उन के गृह में अवरदध (नजरबनद) कर दिया। किसी ने उस को यह सा दिया था कि देवकी के पतर के हाथ से तमहारा वध होगा। इसलि उसने देवकी के छः पतरों को जनमते ही मार डाला। सातवें गरभ का भावी नाश के भय से मधय में ही पात हो गया। शरी वसदेव जी अपनी जयेषठा गरभवती भारया रोहिणी को कंस के अतयाचार की आशंका से गोकल निवासी अपने मितर ननद नामक गोपाधिपति के घर पहचा आये थे।

भादरपद कृषणाषटमी की अंधियारी आधी रात को घनघोर वृषटि के समय देवकी के आठवें पतर का जनम हआ। वरषा की शीतल वाय ने पहरेदारों को थपकी देकर घोर निदरा की गोद में सला दिया। उसी समय बसदेव उस बालक को रातेां रात यमनापार करके ननद के यहां गोकल में पहंचा आ और उसी रात ननद के यहां उस की सतरी यशोदा की कोख से तरनत जनमी हई कनया को उसके बदले में उठा ला और उसको देवकी के पास लाकर लिटा दिया। कंस ने उस को देवकी की कनया समकर मार डाला। इस के पहले ही ननद के यहां रहने वाली वसदेव की जयेषठा भारया रोहिणी के यहां भी पतर का जनम हो चका था। इस का नाम बलराम रकखा गया था। देवकी का पतर भी कृषण नाम से गोकल में ननद के यहां गोपों में पलता रहा। उस समय भारत में नगरों के निकट बड़े-बड़े वन वरतमान थे। जिन में लाखों गौ चर कर भवय भारत को घृत और दगध के परभाव से आपयायित करती रहती थीं। मथरा राजधानी के चारों ओर भी सा ही विशाल वन विदयमान था। उसी में गोपाधिप ननद का अगणित गौओं का कल रहता था और वह सथान अपने अनवरथ नाम से गोकल विखयात था। वसततः गौओं के बरज (समूह) के आवास के कारण ही मथरा के चारों ओर की वनसथली की बरज वा बरज-मणडल संजञा हो गई थी। गोप लोग उसी बरजमणडल के निवासी थे। वे अपने गोसमूह को साथ लिये ह यतर-ततर कछ-कछ दिन बसते ह घूमते रहते थे। ये सवभाव के सरल, सहृदय तथा शरीर के हृषट-पषट और बलिषठ होते थे। मन और आतमा को आननदित करके उननति देने वाला संगीत (गीत वादय) शारीरिक विकास के अदवितीय साधन गोदगध और दयृत का आहार तथा मलल-कला का अभयास उन के अहरनिश के समय-यापक परिय वयापार थे। से  à¤²à¥‹à¤—ों में पलकर शरीकृषण दिनोंदिन चनदरमा के समान वृदधि को परापत होने लगे। गोपों का निषकपट परेम-वनों का बलपरद यमनातीरवरती सवतनतर धीर समीर और आननदमय सरल जीवन का निषपाप वायमणडल इन बातों ने मिलकर सहज सनदर शयाम शरीर शरीकृषण को निषकपट परेमी और अतल पराकरमी बना दिया। बलराम और शरीकृषण दोनों भराता अनय गोपबाल-बालिकाओं के साथ करीड़ा में रत रह कर ननद, यशोदा, रोहिणी और गोकल के गोपमातर को अपनी बाललीला से हरषित करते रहते थे। गोपों के साथ रहकर शरीकृषण मललकला और वेणवादन वा वंशी बजाने में अति परवीण हो गये। उन की सरीली मरली के कारण ही उनका नाम मरली मनोहर वा मरलीधर पड़ गया था। वे मललकला में भी पूरण सिदधहसत हो ग थे। संगीत और मललकला में वे सब गोपों में अगरणी माने जाने लगे। शरीकृषण अपने इन गणों तथा परेम और पराकरम से गोपों के अतीव परेमपातर बन ग। बालयकाल में ही उनहोंने शारीरिक बल का अदभत परिचय दिया। बरज के उततर की ओर यमना के क हनद में क महाभयंकर काला अजगर रहता था जो कालिय नाम से परसिदध था। उस के भय से आस-पास के पश-पकषी यमना के तट पर नहीं जाते थे। किशोर शरीकृषण ने उस अजगर को वहां से मार भगाया।


गोवरधन परवत के उततर और यमना के तट पर तालवन में वनगरदभ बड़ा उपदरव मचाते थे। इन में से क बड़े बलवान धेनक नामक गरदभराज को बलराज ने अपनी मललकला के बल से मार डाला, जिस से वह वन उन वनगरदभों के उपदरव से रहित हो गया। शरीकृषण की उनमतत बैलों के यदध देखने की बड़ी रचि थी। अनय गोप भी से दृशयों से बड़े परसनन होते थे। यदि कोई अतयनत उनमतत बैल बेकाबू होकर दरशकों पर पलटता था तो शरीकृषण ही उस को अपने बाहबल से वश में लाते थे। इसी परकार कृषण तथा बलराम के शारीरिक बल की खयाति चारों ओर फैलने लगी और वह धीरे-धीरे कंस के कानों तक भी जा पहंची। उस के गपतचरों ने खोज करके पता पा लिया कि शरीकृषण और बलराम वसततः वसदेव के पतर हैं और उस ने उन को ननद के यहां गपत रूप में सरकषित रख छोड़ा है। यह जानकर कंस को बड़ी चिनता हई और उसने ननद के यहां ही कृषण के वध के अनेक उपाय कि, पर वे विफल ह। किसी कवि ने कया ही ठीक कहा है।

            यदरथं कषतरिया सूते तसय कालोऽयमागतः।

            शरीकृषण ने कौरवों की राजसभा में जाकर कहा-

            अपरणाशेन वीराणाम तदयाचितम आगतः।।

अरथ-हे दरयोधन ! वीरों के नाश के बिना ही कौरवों और पाणडवों की शानति हो जाये, मैं यह याचना करने के लि आया हू किनत दरयोधन ने इस पर कछ भी कान न दिया और यही कहा-

 

<p style="&quot;text-align:" center;"=""> सूचयगरं न परदासयामि विना यदधेन केशव!

 

अरथ-हे केशव! बिना यदध के मैं सई की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूंगा।

अनत में विवश होकर शरीकृषण वापस चले आये और दोनों सेनां मारकाट करने के लि करकषेतर (हरियाणा) के मैदान में आमने-सामने आ डटीं।शरीकृषण ने अरजन के शवेत घोड़ों वाले रथ के सारथि बन कर उस को पाणडव सेना के अगरभाग में ला खड़ा किया। कौरववाहिनी के सेनापति १७० वरष के वृदध भीषमपितामह भी अपने रथ में अपनी सेनाओं के आगे आ उपसथित ह। दोनों सेनाओं ने अपने-अपने जयघोष से सवसेनापतियों का सवागत किया। बहत से शंखों के नादों, भेरियों और नगाड़ों की धवनियों, हाथियों की चिंघाड़ों और घोड़ों की हिनहिनाहटों से आकाश परतिधवनित हो उठा। दोनों सेनाओं में वीररस का पूरण संचार हो रहा था। इतने में अरजन को कौरव सेना में भीषम, दरोण आदि पूजयों और निकट समबनधियों को यदध में मरने-मारने के लि उदयत देखकर मोह उतपनन हो गया। उसने शरीकृषण से कहा कि जिस यदध में अपने महामानयों और परियों को अपने हाथ से म को हनन करना पड़ेगा, उस में मैं परवृतत न हूंगा। इस अवसर पर शरीकृषण ने उस को उस के मोहनिवारण के लि जो करमयोग का उपदेश दिया है, वही सारी उपनिषदों का