Lekhram Veer Tritiya

Martyrdom Day of Pandit Lekhram
12 Mar 2024
Falgun Shukl 3, 2080
: 12 Mar 2024
: Gazetted

संसार भावमय है। संसार केवल भाव का परसार है। भाव ही संसार में शासन करते हैं। मानव मन में परथम भाव का ही आविरभाव होता है, उन के अनसार ही वह करिया में परवृतत होता है। साधारण मनषयों के मानसरोवर में भावों के आविरभाव-तिरोभाव की तंरगें सदा उठती रहती हैं। उन के बहत से भाव दरिदरों के मनोरथों के समान उतपनन होते ही विलीन हो जाते हैं, किनत महाशयों के भाव कारय में परिणत ह बिना नहीं रहते। महापरषों के भाव तो संसार में हलचल मचा देते हैं। जगत की बड़ी-बड़ी करानतियों के कारण महापरषों के भाव ही ह हैं। संसार के सारे मतमतानतर महापरषों के विविध भावों के ही परपनच हैं। जब किसी महापरष के हृदय पर किसी भाव का बलपूरवक आघात होता है, तभी वह संसार में परचार पाता है और किसी विशेष मत का रूप धारण करता है। नाना मतों की संसथापना की यह परकरिया और यही इतिहास है, किनत भावों के आघात परतिघात का परभाव भावक हृदयों पर ही चिरसथायी होता है और इसलि संसार मे जितने परिवरतन, विपलव, करानतियां हई है, वे सब महापरषों दवारा ही हई है। जनसाधारण से भावक महापरषों को उनमत वा पागल कह कर हंसता है और वे वसततः अपनी धन में उनमतत वा मसत रहते हैं। संसार के इतिहास को बनाने वाले विविध धरमों के संसथापक अपने विचारों के पीछे पागल बने ह अपनी धन के पकके से ही उनमतत महानभाव थे। यदि धरम-संसथापकों की जीवनियों का मनन किया जाये तो यह विशेषता उन सब में सामानय रूप से उपलबध होगी। बदध, ईसा, मोहममद, कबीर, दयाननद, गांधी, सभी अपने विचारों के परचार में उनमतत परतीत होंगे। उनके सिदधानतों का परसार भी संसार में अनेक भावक अनयायियों के दवारा ही हआ है। बदध के आननद आदि परमख भिकष, ईसा के पीटर आदि शिषय, मोहममद के अतयतसाही (जोशीले) अली और उमर आदि खलीफा इस के उततम उदाहरण है।
            आज इस शताबदी के अदवितीय धरमसंसथापक, आरयसमाज के आचारय महरषि दयाननद के क से ही भावक शिषय अविशरानत धरमपरचारक के पवितर चरितर की परयालोचना का परसंग परापत है।
            आरय समाज के परिचित मणडल में तो कोई भी सा वयकति न होगा जो धरमवीर पं. लेखराम आरयपथिक के नाम और काम को न जानता हो, किनत आरयसमाज से बाहर भी करोड़ो मनषय पं. लेखराम के नाम से परिचित है। पं. लेखराम की भावकता ही सरवसाधारण में उन के इस परिचय की मूलकारण बनी थी। वैसे तो वे पंजाब के ेलम जिले के क अपरसिदध गराम सैदपर के क अपरसिदध सारसवत बराहमण कल में जनमे थे, परनत उन में अपने पितृकल की सैनिकवृतति से आया हआ शरीर का संगठन तथा कषातरतेज का कछ अंश भी अवशय विदयमान था। उनके पितामह महता नारायण सिंह पंजाब के सिकखकालीन विपलव के वीर योदधा थे और कई संगरामों में अपने हाथ दिखा चके थे। उनहीं महता नारायण सिंह के पतर महता तारासिंह ह, जिनके पतर पं. लेखराम का जनम ८ सौर चैतर संवत १९१५ विकरमी को शकर के दिन उकत सैदपर गराम में हआ था।
            वे बालयकाल से ही भावक तथा धारमिक थे। अपने चचा पं. गणडाराम जी को कादशी का वरत करते ह देखकर बालक लेखराम ने ११ वरष की अवसथा में बड़ी शरदधा से कादशी का वरत विधिपूरवक रखना आरमभ कर दिया था। उन को बालयकाल में केवल उरदू-फारसी की शिकषा मिली थी, कयोंकि उस समय पंजाब और संयकत परानत में उसी के पढ़ने की परिपाटी थी। यह शिकषा आगे चलकर उनके मोहममदी मत की आलोचना करने में बहत सहायक हई। उनके विदयारथी जीवन में केवल यही बात उललेख योगय है कि वे तब भी सवतंतरतापरिय, परतयतपननमति तथा तातकालिक परतयततरपरवीण थे और कविता की ओर भी उन का कछ काव था।
            संवत 1932 वि. के पौष मास में वे अपने चचा पणडित गणडाराम इनसपेकटर पलिस की सहायता से पेशावर पलिस में सारजेणट के पद पर नियकत हो ग। ऊपर बताया जा चका है कि पं. लेखराम के बालहृदय में ही भावकता तथा धारमिकता का अंकर विदयमान था। धारमिक सिख सिपाही के सतसंग से उनकी परवृति पूजा-पाठ में किशोरवसथा से ही हो चकी थी। वे परातःकाल सनान-धयान में निमगन रहते और गरमखी मे लिपिबदध भगवदगीता का पाठ किया करते थे। शरीकृषण की भकति में तनमय रहते थे। जीव बरहम की कता के विशवसी और वैरागयपरवण थे। 21 वरष की अवसथा में उन के माता-पिता ने उन को विवाहबनधन में आबदध करना चाहा, पर उनहोंने अपने वैरागयवश उस को सवीकार न किया। उन की धरमजिजञासा दिन-परतिदिन बढ़ती ही गई। उनहीं दिनों उन को लधियाना के परसिदध सवतंतरविचारक मंशी कनहैयालाल अलखधारी के गरनथ पढ़ने का अवसर मिला। अलखधारी जी के गरनथों से उन को ऋषि दयाननद के आरय धरम-परचार और आरयसमाज की सथापना का वृतानत जञात हआ और उनहोंने डाक दवारा ऋषि दयाननद परणीत गरनथों को मंगा कर पढ़ना आरमभ किया। इस से उनके विचार सरवथा बदल ग और वे आरय बन ग। घटनाकरम की कैसी विलकषण समानता है कि पणडित लेखराम जी के समान इन पंकतियों के लेखक का भी विचार-परवाह मंशी कनहैयालाल जी अलखधारी की पसतकों दवारा ही आरयसमाज और उस के आचारय के गरनथों की ओर फिरा था, किनत जगनू और सूरय में कया सामय हो सकता है? पणडित लेखराम की शदध और भावकपरकृति ने उन को ऋषि दयाननद के गरनथों से परभावित करके धरमवीर आरयपथिक बना दिया और यह चिकना घड़ा वैसे का वैसा ही विदयमान है।
            वैदिक धरमावलमबी बन कर पं. लेखराम ने संवत 1936 वि. के अनतिम भाग में सीमापरानत के यवनपरायः पेशावर नगर में आरयसमाज की सथापना की थी। उस समय पेशावर आरयसमाज के सरवेसरवा वे ही थे। वे और उन के पांच साथियों से ही पेशावर आरयसमाज संगठित था। पं. लेखराम के मन में जीव बरहम की कता आदि के विषय में कछ शंकां उस समय तक बनी हई थीं। उन की निवृति के लि उनहोंने आरयसमाज के संसथापक ऋषि दयाननद के सवयं दरशन करने का निशचय किया और साढ़े चार वरष की नौकरी के पशचात क मास की छटटी लेकर 17 मई सन 1880 ई. (सं. 1937 वि.) को अजमेर पहंचकर सेठ फतहमल जी की वाटिका में ठहरे ह ऋषि दयाननद के परथम और अनतिम वार दरशन कि। इस समागम का वृतानत उनहोंने सवयम इस परकार दिया है-
            ‘सवामी दयाननद के दरशन से यातरा के सब कषट विसमृत हो ग और उनके सतयोपदेश से सब संशय निवृतत हो ग। उनहोंने महरषि से उन से जयपर में क बंगाली की उपसथित की हई यह शंका पूछी कि जब आकाश और बरहम दोनों सरववयापक हैं तो दो वयापक क सथान पर कैसे रह सकते हैं? महरषि दयाननद ने क पतथर उठा कर कहा कि जिस परकार इस में अगनि, मिटटी और परमातमा तीनों वयापक है। उसी परकार बरहमाणड में आकाश और बरहम दोनों वयापक हैं। सूकषम वसत में उस से भी सूकषमतर वसत वयापक रहती है। बरहम सूकषमतर होने के कारण सरववयापक है। ‘लेखराम जी लिखते है कि ‘‘इस से मेरी शानति हो गई।’’ उनहोंने महरषि दयाननद के अनय संशय उपसथित करने की आजञा देने पर उन से दस परशन पूछे थे। उन में से 3 उनहोंने उततर सहित सवयं लिखे है। शेष उनको विसमृत हो ग थे।
परथम परशन-‘‘जीव बरहम की भिननता में कोई वेद का परमाण बतलाइये।’’
उततर-‘‘ यजरवेद का 40वां अधयाय जीव और बरहम का भेद बतलाता है।’’
दवितीय परशन-‘‘अनय मतों के मनषयों को शदध करना चाहि वा नही?’’
उततर-‘‘अवशय शदध करना चाहि।’’
तृतीय परशन-‘‘विदयत कया वसत है और कैसे उतपनन होती है?’’
उततर-‘‘विदयत सब सथानों मे है और रगड़ से पैदा होती है। बादलों की विदयत भी बादलों और वाय की रगड़ से उतपनन होती है।’’
            अनत में मे आदेश दिया कि ‘‘पचचीस वरष की आय से पूरव विवाह न करना।’’ ऋषि दयाननद के सवलप सतसंग से पं. लेखराम के धारमिक विचार दृढ़ हो गये और वैदिक धरम पर उनका विशवास चटटान के समान अटल हो गया।
            अजमेर से लौट कर उनको दिन-रात धरम परचार की ही धन लगी रहती थी। उनहोंने पेशावर आरयसमाज की ओर से अपने समपादन में ‘‘धरमोपदेशक’’ नामक उरदू का मासिक पतर जारी कराया। उसके साथ ही मौखिक वयाखयान भी परायः देते रहते थे। कछ दिनों पशचात उनकी बदली पेशावर से अनय पलिस सटेशनो को हो गई। उनकी धारमिक लगन के कारण उन के विधरमी अफसर उनसे मनोमालिनय रखने लगे थे। उधर पं. लेखराम की सवतंतर आतमा में विगरहित शववृतति (सेवावृतति) से दिनोदिन खिनन होती जाती थी। अनत में उनहोंने 24 जलाई सन 1874 ई. (सं. 1941 वै.) की सदा समरणीय तिथि को पलिस की सेवा से तयागपतर दे दिया और उसमें यह भी लिख दिया कि दो महीने की कानूनी मियाद के पशचात म को रोकने का अधिकार किसी को भी नहीं होगा। दो महीने पशचात 30 सितंबर सन 1884 ई. (सं. 1931 वै.) को उनहोंने मनषयों के दासतव से सदा के लि मोकष लाभ किया। इस दासतव शरृंखला के कटते ही सारजेणट लेखराम, पं. लेखराम बन गये। अब वे दिन रात आरय धरम के परचार में रत रहने लगे। क ओर वे वैदिक धरम के विरोधियों की आकषेपपूरण पसतकों के उततर लिखने में संलगन रहते थे तो दूसरी ओर मौखिक परचारारथ बराबर परयटन करते रहते थे। इस अहरनिश की यातरा के कारण उनका नाम ‘आरय मसाफिर’, आरय यातरी वा आरय पथिक परसिदध हो गया और आरयजनता ने ‘आरय पथिक पं. लेखराम’ के नाम से विखयात हो गये।
            उन के लेखबदध परचार वा पसतक-परणयन का सूतरपात उनके मसलमानों के अहमादियां समपरदाय के परवरतक कादियान जिला गरदासपर निवासी मिरजा गलाम अहमद कादियानी के साथ संघरष से हआ था। उकत मिरजा ने क पसतक ‘‘बराहीन--अहमादिया’’ लिखी थी, जिस में आरय समाज पर बड़े कट आकषेप किये गये थे। पं. लेखराम ने उनके उततर में अकाटय तरकपूरण ‘तकजीव बराहीन -अहमदिया’ गरनथ लिखा। फिर मिरजा ने अनचित आकरमणों से परिपूरण ‘सरम -चशम आरिया’ लिखा, जिस के उततर में पणडित लेखराम ने यकतियों के जाल से परिपूरण ‘नसख -खबत अहमदिया’ परणीत किया। मिरजा ने घोषणा की थी कि मेरे पास ईशवर के दूत सनदेश लाते हैं और मै अलौकिक चमतकार दिखला सकता हू तथा जिस मनषय की मृतय के लि मैं ईशवर से परारथना करूंगा, वह मनषय क वरष के भीतर मर जायेगा। यदि मैं ये दोनों कारय न कर सकूं, तो मैं कादियान में अपने पास रहकर उन की परीकषा करने वाले मनषय को 200/- मासिक की दर से 2400/- दूंगा। पणडित लेखराम ने उन के इस आहनान को सवीकार करके उस की परीकषा करना चाही और उस को 2400/- जमा कर देने को लिखा, किनत उस ने नाना परकार के बहाने बना कर टाल दिया। पणडित लेखराम ने सवयं कादियान पहंचकर मिरजा से मौखिक विवाद किया, जिस में वह निरततर हो गया। जनता में उस के हेतवाभासों और चमतकारों की पोल खल गई और उस के बहत से अनयायियों पर से उस का परभाव उठ गया। मिरजा से पणडित लेखराम का यह संघरष दिन-परतिदिन बढ़ता ही गया और उस ने सा भंयकर रूप धारण किया कि अनत में पणडित लेखराम इसी की बलि हो ग।
            पणडित लेखराम में वैदिक धरम की रकषा और उस के परचार का उतसाह इतना उतकट था कि वे जहां कहीं भी किसी के वैदिक धरम-तयाग वा शासतरारथ के समाचार सनते तो सौ काम छोड़ कर बिजली के समान वहां पहंचते थे और भूले ह भाई को बचाने में अपनी सारी शकति लगा देते थे। उन की संवाद पटता का आतंक तो सामपरदायिक संसार में सरवतर छाया हआ था किनत करानी और किरानी उन को अकाटय यकतियों का विशेषतः लोहा माने ह थे। वे बड़े मौलवियों और पादरियों को तरनत निरततर कर देते थे। पादरियों में तो कछ परमत सहिषणता पाई जाती है, कयोंकि उन को अपनी उदारता और सभयता का कछ अभिमान है, किनत इसलामी भाई अपनी कटटरता, तातकालिक उततेजना और करोधाकरानतता के लि जगदविखयात है, इसलि वे विवादों में बहधा कटकति पर उतर आते थे और पणडित लेखराम को मोहममदी तलवार की धमकियां देने लगते थें, परनत पणडित लेखराम पराणों का मोह छोड़ कर सदा निरभयतापूरवक मसलमानी मत की असारता दिखलाने से कभी पीछे न हटते थे और उन की धमकियों का उततर वे यह दिया करते थे कि संसार के धरम शहीदों के रधिर से ही फूले हैं और मैं अपनी जान हथेली पर लिये फिरता हू ।
            उनहोंने बहत से समभरानत सनातनीधरमी समृदध कलों को धरमभरषट होने से बचाया था। उन में मजफफरनगर जिला के जाट रईस चै. घासीराम और सिनध के रईस दीवान सूरजमल और उनके दोनों पतरों के नाम उललेखनीय है।
            पणडित लेखराम भावकता और धारमिक शरदधा की साकषात मूरति थे। शरी महातमा मंशीराम (वरतमान शरी सवामी शरदधाननद जी) ने इस विषय में उनके समबनध की क मनोरंजक घटना लिखी है। क बार परशंसित पणडित जी जालनधर में जवरातरत होकर कनया महाविदयालय जालनधर के संसथापक शरी लाला देवराज जी के बाग में ठहरे ह थे। क दिन महातमा मंशीराम जी आकर कया देखते है कि लेखराम जी खटवा पर पड़े करोध से हांफ रहे है। उनहोंने कारण पूछा तो उनहोंने कहा कि लाला देवराज को बलाइये। मैं पीठ पीछे बात करना पाप समता हू। लाला देवराज जी बलवाये गये तो पणडित लेखराम जी ने करोध से कहा कि आपका गृह आरयगृह नहीं है। अब मैं यहां नहीं ठहरूंगा। महातमा मंशीराम जी ने बाग के माली से अनसनधान किया तो जञात हआ कि किसी बराहमणबरव के नटखट और धूरत बालक ने पणडित जी को चिढ़ाने के लि अपनी शठतावश वैसे ही उनके सामने बाग के गमलों पर लिखे ह ‘ओ३म’ पर पादतराण (जूता) परहार किया था। पणडित लेखराम जी क निःसपृह, तयागी और सनतोषशील बराहमण के उततम उदाहरण थे। वे पंजाब आरय परतिनिधि से निरवाह मातर 25/- और फिर 35/- रूपये मासिक लेकर दिन रात वैदिक धरम की सेवा में वयसत रहते थे। उन का गृहसथ जीवन भी बराहमणोचित और उपदेशकों के लि सरवथा अनकरणीय था। उनहोंने शासतरोकत रदरसंजञक बरहमचारी की अवसथा को परापत होकर 36 वरष की आय में जयेषठ संवत 1950 में मरी परवतानतरगत भनन गराम निवासिनी कमारी लकषमीदेवी के साथ अपना विवाह किया था और विवाह के अननतर ही अपनी पतनी को पढ़ाना आरमभ कर दिया था। वे उस को धरमपरचार-कारय में भी सवसहधरमिणी बनाना चाहते थे। गरीषम संवत 1952 वि. में उन के पतर उतपनन हआ, जिस का नामकरण वैदिक रीति से करके उनहोंने ‘सखदेव’ नाम रकखा। पणडित लेखराम को वैदिक धरम परचार की धन में पतर और पतनी का कछ भी धयान न रहता था। उन की यह हारदिक इचछा थी कि उन की पतनी लकषमीदेवी भी उनहीं के समान उपदेशिका बनकर भरमण करे। इस कारय के अभयासारथ वह बाल पतर सहित उस को भी यातरा में अपने साथ ले जाने लगे, जिस का फल यह हआ कि वह छोटा बालक अहरनिश की यातरा के कषटों को सहन न कर सका और उस ने डेढ़ वरष की अवसथा में रगण होकर जालनधर मे इस असार संसार से विदा ली। पणडित लेखराम ने बड़ी धीरता से पतरवियोग के दारण दःख का सामना किया और वे पूरववत ही धरमपरचार-यातरा में ततपर रहें।
उनहीं दिनो पंजाब की आरयपरतिनिधि सभा ने आरयसमाज के संसथापक आचारय महरषि दयाà