Shri Ram Navmi
चैतर सदि नवमी
जय जय मरयादापरषोततम धरम धरनधर।
जय-जय कादरश à¤à¥‚मिपति महावीर वर।।
नाशन मलेचछाचार दलन दल परबल निशाचर।
करन यथोचित परजा परचारन दरन दःख उर ।।
-पं. बदरीनारायण चैधरी ‘परेमधन’ कृत
à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ इतिवृतत के इस निशाकाल के तिमिरावृत नà¤à¥‹à¤®à¤£à¤¡à¤² में कई सी जयोतियां जगमगा रही हैं, जो संसार-मरसथली के मारग à¤à¤°à¤·à¤Ÿ पथिकों को पथ-परदरशन करके अपनी जीवनयातरा को पूरी करने में सहायता देती रहती हैं परनत उन में इकषवाक कल-कमदचनदर शरी रामचनदर जी का सरवोतकृषट-समजजवल परकाश ही इस कड़ी मंजिल को अनत तक पहंचाने या पूरी करने में सहायक और सब से बढ़कर पथ-परदरशक है। यूं तो इन चमकती हई ताराओं की संखया संखयातीत है, पर उनमें सरवनयनाà¤à¤¿à¤°à¤¾à¤® शरी रामचनदर जी का परकृषट परकाश ही सरवातिशायी और सरववयापी है। यदि इस घनघोर अनधियारी रातरि में जगदवनदय शरी राम के आदरश जीवन की जाजवलयमान शीतल किरणावली का परकाश परसार न पाता तो à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ यातरी का कहीं ठिकाना न था। इस सूचिà¤à¥‡à¤¦à¤¯ अनधकार में उन को न जाने कहां से कहां à¤à¤Ÿà¤•à¤¨à¤¾ पड़ता।
इस समय à¤à¤¾à¤°à¤¤ के शरृंखलाबदध इतिहास की अपरापयता में यदि à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ अपना मसतक समननत जातियों के समकष ऊंचा उठा कर चल सकते हैं तो महातमा राम के आदरश चरित की विदयमानता में। यदि पराचीनतम तिहासिक जाति होने का गौरब उनको परापत है तो सूरय कल-कमल-दिवाकर राम की अनकरणीय पावनी जीवनी की परसतति से। यदि à¤à¤¾à¤°à¤¤à¤à¤¿à¤œà¤¨à¥‹à¤‚ को धारमिक सतयवकता, सतयसनध, सà¤à¤¯ और दृढ़वरत होने का अà¤à¤¿à¤®à¤¾à¤¨ है तो पराचीन à¤à¤¾à¤°à¤¤ के धरमपराण तथा गौरवसरवसव शरीराम के पवितर चरितर की विराजमानता से।
यदि पूरण परिशरम से संसार के समसत समरणीय जनों की जीवनियां कतर की जाये तो हम को उन में से किसी क जीवनी में वह सरवगणराशि कतर न मिल सकेगी, जिस से सरवगणागार शरीराम का जीवन à¤à¤°à¤ªà¥‚र है। आज हमारे पास à¤à¤—वान रामचनदर का ही क सा आदरश चरितर उपसथित है जो अनय महातमाओं के बचे बचाये उपलबध चरितरों से सरवशरेषठऔर सब से बढ़कर शिकषापरद है। वसततः शरीराम का जीवन सरवमरयादाओं का सा उततम आदरश है कि मरयादापरषोततम की उपाधि केवल उन के लि रूढ़ हो गई है। जब किसी को सराजय का उदाहरण देना होता है तो ‘रामराजय’ का परयोग किया जाता है।
केवल लोकमरयादा की अकषणण सथिति बनाये रखने के लि निषकाम करम करते रहने के वैदिक धरम के सिदधानत का पूरणरूप से पालन करके परातःसमरणीय शरीरामचनदर ने ही दिखलाया था।
आहूतसयाà¤à¤¿à¤·à¥‡à¤•à¤¾à¤¯ विसृषटसय वनाय च।
न मया लकषितसतसय सवलपोऽपयाकारविà¤à¤°à¤®à¤ƒ ।।
-वालमीकिरामायण।
अरथ-‘राजयाà¤à¤¿à¤·à¥‡à¤•à¤¾à¤¥ बलाये ह और वन के लि विदा कि ह रामचनदर के मख के आकार में मैंने कछ à¤à¥€ अनतर नहीं देखा।’ आदिकवि वालमीकि का यह शबद-चितर निषकाम करमवीर री रामचनदर जी का ही यथारथ चितर था। वासतव में वह सवकलदीप, मातृमोदवरधक तथा पितृनिरदेशपालक पतर, कपतनीवरतनिरत, पराणपरियाà¤à¤¾à¤°à¤¯à¤¾à¤¸à¤–ा, सहृददःखविमोचक मितर, लोकसंगरह, परजापालक नरेश, सनतानवतसल-पिता और संसार-मरयादावयवसथापक, परोपकारक, परषरतन का कतर कीकृत सननिवेश, सूरयवंश परà¤à¤¾à¤•à¤°, कौशलयोललासकारक, दशरथाननदवरधन, जानकी जीवन, सगरीवसहृदय, अखिलारयनिषेवितपादपदम, साकेताधीशवर महाराजाधिराज, à¤à¤—वान रामचनदर में ही पाया जाता है।
दकषिणापथ के सदूरवरती, अविदयानधकारपूरण महाकानतार में वैदिक आरय सà¤à¤¯à¤¤à¤¾ का परकाश पराधानयेन सरवपरथम लोकदिगविजयी शरी राम ने ही पहंचाया था। यदयपि इस से पूरव अगसतय ऋषि ने वैदिक सà¤à¤¯à¤¤à¤¾ के आलोक को दकषिण में फैलाने का यतन किया था परनत उस को उस से पूरण आलोकित सूरयकल-रवि राम ने ही किया था। महाराज रामचनदर के दकषिण विजय से पूरव विनधयाचल पार का महाकानतार इनदरियलोलप, अनेक कदाचारदततचितत, नररकत-पिपास राकषसों का लीला-निकेतन बना हआ था, उन में सरवतर उनहीं का काधिपतय वरतमान था, वा यतर-ततर (कहीं-कहीं) वानर वंश के क-दो छोटे राजय विदयमान थे। इनहीं वानरों का क राजय पमपापरी (वरतमान मैसूर राजय में उततरीय पेनर नदी के सथान पर चनदरदरग के निकट) में वानरराज बाली की अधयकषता में उपसथित था। परनत उन के राज-परिवार में धरमपराङमखता के कारण धन कलतर को लकषय करके गृहकलह मचा हआ था और उस के फलसवरूप वानरराज बाली की कनिषठà¤à¤°à¤¾à¤¤à¤¾ सगरीव अपने मितर हनमान के साथ अपने जयेषठà¤à¤°à¤¾à¤¤à¤¾ से à¤à¤¯à¤à¥€à¤¤ होकर ऋषयमूक (वरतमान मैसूर राजय में उततरीय पेनर नदी का उदगम सथान चनदरदरग परवत) पर जा छिपा था। इनहीं वानरों और राकषसों को बालमीकि रामायण के अनतिम आधनिक संरकरण में अलौकिक योनि राकषस तथा ऋकष (रीछ) बतलाया गया है और उन के आकारों को असाधारण और à¤à¤¯à¤‚कर चितरित किया गया है।
शरी रामचनदर ने पितृ-आजञा को शिर धर कर, अयोधया के महासामराजय को तयाग कर और इसी महाकानतार दणडकारणय में निरवासित होकर अपने परेम ओर सदपदेश से उकत वानर जाति को अपना मितर बनाया और सगरीव से सौहारद की सथापना करके उस के धनकलतरापहारी à¤à¤°à¤¾à¤¤à¤¾ बाली को मार कर इस का राजय सगरीव को दिया था। अतयाचारी राकषसों के दमन के लि महावरी हनमान के सेनापतितव में उनहीं वानरों की अपनी संगठन शकति से परबल और सशिकषित सेना सननदध की। उसी सेना की सहायता से लंकादवीप के अतल बलशाली तथा महापराकरमी राकषसजाति के सामराजय का उसके अधीशवर परबल परतापी अनाचारी रावणसहित विधवंस किया। किनत शरीरामचनदर सदृश आरय दिगविजेता का विजय-सामराजय-विसतार वा समपततिसंचयारथ नहीं थ। उनहोंने विजित परदेश में धरम की विजय वैजयनती उड़ाकर à¤à¥‚तपूरव लंकेशवर रावण के सथान में उस के अनज, धरमपरायण विà¤à¥€à¤·à¤£ को ही परजा पालनारथ अà¤à¤¿à¤·à¤¿à¤•à¤¤ कर दिया। इस परकार दकषिणापथ में आरय सà¤à¤¯à¤¤à¤¾ का परसार करके अपनी वनवास यातरा की अवधि पूरण होने पर शरी रामचनदर जी अपनी पैतृक राजधानी अयोधया में लौट आ और सवपितृपरमपरागत साकेत राजय के सिंहासन पर अà¤à¤¿à¤·à¤¿à¤•à¤¤ होकर यावजजीवन नृपति-धरम का पालन करते रहे।
इस लघनिबनध में पणयशलोक विशवविशरतकीरति लोकाà¤à¤¿à¤°à¤¾à¤® शरी राम की पणयगाथा कहां तक वरणन की जा सकती है। कावय उन के यशोगान से à¤à¤°à¥‡ पड़े हैं। à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ कवियों ने अपनी उचच कलपना का पूरण परिचय देकर शबदचितर के जितने मनोरम और सनदर सवरूप बना है, देववाणी के सिदध सारसवतों ने अपनी परखर परतिà¤à¤¾ का जितना चमतकार दिखलाया है, उन में से अधिकांश में राम के पथपरदरशक पावन चरितर का वरणन पाया जाता है। à¤à¤¾à¤·à¤¾à¤•à¤µà¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ की à¤à¥€ जिहना उन का यश वरणन करने से नही थकती।
हमारे लि इससे अधिक सौà¤à¤¾à¤—य और कया हो सकता है कि हम से मरयादा परषोततम आदरशचरितर की सनतान हैं। उनहीं पवितर नाम राम के जनम दिन की शà¤à¤¤à¤¿à¤¥à¤¿ चैतर सदि नवमी है। हमारे पूरवजों ने हम पर यह à¤à¥€ क बड़ा उपकार किया है कि इस लोकाà¤à¤¯à¤¦à¤¯à¤•à¤¾à¤°à¤• के जनम की तिथि इस चैतर शकला नवमी को हम तक अविचछिनन रूप से पहंचा दिया है। परनत आजकल अजञानानधकार से निमगन आरय सनतान राम नवमी परà¤à¥ƒà¤¤à¤¿ जनमोतसव को लाà¤à¤ªà¤°à¤¦ रीति से नहीं मनाते और उन के वासतविक उददेशयों को à¤à¥‚लकर अनशन आदि वृथा रढि़यों में फंस गये हैं। शिकषा से आलोकित हृदय-सधारकों और वैदिकधरमावलमबी आरय महाशयों का करतवय है कि लपत परायः विशदध वीर-पूजा की परथा का पररदधार करें और अपने आदरश महापरषों की जनमतिथियों और समारकों को शिकषापरद परकारों से मनां तथा सरवसाधारण के लि पथ-परदरशक बनें। आज के दिन मरयादापरषोततम रामचनदर के चरितर के अधययन वा सवाधयाय के लि रामायण की कथा को परचारित करना चाहि। यजञ और दान का शà¤à¤¾à¤¨à¤·à¤ ान होना चाहि और अपने पूरव-परषों के पदचिनहनों पर चलते ह धरम के तीनों सकनध यजञ, अधययन और दान के विशेष आचरण में ही से शठदिनों को बिताना चाहि, जिस से कि हम अपनी उननति करते ह अनयों के उदधार के हेत बन सकें।
वालमीकि के राम
तपसवी वालमीकि मनि ने क बार तप और सवाधयाय में लगे ह विदवान नारद से पूछा-
‘हे मनिवर, इस समय संसार में गणवान, पराकरमी, धरमजञ, कृतजञ, सतयवकता और अपने वरत में दृढ़ परष कौन है? सदाचार से यकत सब पराणियों के कलयाण में ततपर, विदवान, सामथरयशाली और देखने में सब से सनदर परष कौन है? जो तपसवी तो हो परनत करोधी न हो। तेजसवी तो हो परनत ईरषयाल न हो और इन सब दया, अकरोध आदि गणों से यकत होते ह à¤à¥€ जब रोष आ जाये तो जिस के सामने देवजन à¤à¥€ कांपने लगें। हे तपेशवर, यदि आप किसी से महापरष को जानते हों तो उस का वृततानत म को बताइये कयोंकि आप तरिलोक à¤à¤°à¤®à¤£ करने वाले हैं।’
वालमीकि मनि के परशन का उततर देते ह नारद मनि ने कहा कि अयोधया में इकषवाक वंश में उतपनन हआ राम नाम से जो परसिदध राजा राज करता है, वह उन सब गणों से यकत है जिन का आपने उललेख किया है। नारद मनि ने राम का तब तक का समपूरण चरितर à¤à¥€ संकषेप में महरषि को सना दिया।
राम के उदातत चरितर को लिखने की परेरणा महरषि वालमीकि को कयों कर हई, इस का विवरण वालमीकि रामायण के बालकाणड में à¤à¤¾à¤µà¤ªà¥‚रण शबदों में अंकित है। वियोग जनय करोंच पकषी के करणकरनदन से दरवीà¤à¥‚त ह महरषि के मख से निकली ‘मा निषाद’-ये छनदोबदध पंकतियां ही रामायण की रचना का परेरक कारण बनीं।
अपनी रामायण में महरषि ने उपरयकत सब परशनों का विसतार से उततर दिया है जो उनहोंने नारद मनि से किये थे। राम के पावन चरितर का जितना अचछा और संकषिपत विवरण उन परशनों में है उतना अनयतर मिलना कठिन है। सारी रामायण को उनहीं परशनों की विशद वयाखया कह सकते हैं।
उन परशनों को क-क करके लेते जाइये और राम-कथा से उनका उततर लेते जाइये। पहला परशन यह है कि सा वयकति कौन सा है जो गणवान à¤à¥€ हो और पराकरमी à¤à¥€à¥¤
यह बड़ा वयापक परशन है। बहत से वयकति गणवान होते हैं परनत वीरयवान नहीं होते। बहत से वीरयवान होते हैं परनत गणवान नहीं होते। राम इन दोनों गणों का समचचय थे। उन में à¤à¤—वान के दया और मनय इन दोनों गणों का मिशरण था। इसी कारण कछ लोग उनहें अवतार शबद से याद करते हैं। हम उनहें परषोततम के नाम से पकारते हैं, जैसा कि अनय परशनों की वयाखया से सपरसिदध है।
महरषि पूछते है-
‘सा कौन सा वयकति है जो धरम को जानने वाला हो, कि को मानने वाला, सदा सतय बोलने वाला और वरत पर दृढ़ रहने वाला हो? इन शबदों से धरमजञ वं गणवान की बात की विशद वयाखया हो जाती है। वालमीकि के राम के जिस रूप का पाठक के मन में चितर अंकित होता है, वह धरम को जानने वाला है। परतयेक संकट के समय वह परशन विचार करता है कि धरम वा करततवय कया है? आंखे बनद करके परिसथितियों के पीछे नहीं à¤à¤¾à¤—ता।’
जब कैकेयी ने महाराज दशरथ के वचन को सतय सिदध करने के लि वन-गमन की सूचना दी तब राम ने करततवय को ही सरवोपरि सथान दिया। जब à¤à¤°à¤¤ उनहें वन से लौटाने के लि गये और मनतरियों तक ने उनहें अयोधया लौटने की परेरणा की तब à¤à¥€ उनहोंने करततवय को सरवोपरि रखा। जब जाबाल ने उन के समकष पारथिव परलोà¤à¤¨ रख कर तरक वितरक के दवारा उन का घर लौटना समचित सिदध करने की चेषटा की तब उनहोंने जो उततर दि वे धरम के इतिहास में सदैव सवरणाकषरों में अंकित रहेंगे।
उनहोंने कहा-
‘अपने को वीर कहलाने वाला वयकति कलीन है या अकलीन है, पवितर है या अपवितर, यह उसके चरितर से ही विदित हो सकता है।
यदि मैं धरम का ढौंग करूं परनत आचरण करूं धरम के विरदध तो कैसे समदार परष मेरा मान करेगा। उस दशा में मैं कल का कलंक ही माना जाऊंगा।’
इस परशन का दूसरा à¤à¤¾à¤— यह है कि कि को मानने वाला कौन है? यदि कृतजञता का आदरश देखना हो तो राम को देखो।
सगरीव और विà¤à¥€à¤·à¤£ ने राम की संकट के समय सहायता की। राम ने उन दोनों का संकट निवारण करके उन दोनों को ही राजय दिलाकर उस सहायता का जो à¤à¤µà¤¯ बदला दिया था, वह राम की कृतजञता की à¤à¤¾à¤µà¤¨à¤¾ का जवलनत परतीक है।
इस परशन का तीसरा à¤à¤¾à¤— सतय से समबदध है। राम की सतयवादिता ने सतय को गौरवानवित किया था, यदि यह कहा जाये तो इस में अतयकति न होगी। राम सतय के जीते जागते सवरूप थे। यदि राम कछ हैं तो वह सतय ही है। सतय कहना और सतय करना-ये दो राम के मखय गण थे। राम के दो वाकय ही उन के अपने चरितर का सांगोपांग चितरण कर देते हैं। महाराज दशरथ के सम कैकेयी ने जब राम को वनवास जाने का कठोर आदेश देने में कछ आगा पीछा किया तो राम ने कहा था-
‘हे देवि, राजा कया चाहते हैं, यह मे बताइये। मैं उसे पूरा करूंगा, यह मेरी परतिजञा है। राम किसी बात को दूसरी बार नहीं कहता।’
‘न आज तक मैंने कà¤à¥€ ूठबोला है और न आगे कà¤à¥€ बोलूंगा।’ वसततः सतय और उस के पालन में दृढ़ता राम के à¤à¤µà¤¯ जीवन के दो परधान ततव हैं।
अगला परशन है कि जो तपसवी तो हो परनत करोधी न हो, तेजसवी तो हो परनत ईरषयाल न हो।
तपसवियो को करोधावेश में शाप देते ह तो बहत कछ सना जाता है, वरदान देते ह कम। इसलि कि उन के तप का गृहसथाजन के समकष वैसा महतव नहीं रहता जैसा रहना चाहि और तप के साथ अकरोश का सममिशरण रहने से वही महतव रहता है। ये दोनों परसपर विरोधी गण क-दूसरे की आà¤à¤¾ का बिगाड़ने वाले नहीं, अपित मिलकर चितर को सनदर वं पूरा बनाने में सहायक होते है।
राम में सतय है, शकति है, कषमा है, कृतजञता है, करोध नहीं है और न ईरषया-दवेष है। तब तो उसे शानत और शीतल होना चाहि। फिर किसी दषट को उस से डरने की कया आवशयकता है? परनत जिस वयकति की शानति में अगनि अनतरहित नहीं, वह संसार में किसी काम का शासक नहीं हो सकता। उसे शायद परष तो कह सकें, परषोततम नहीं कह सकते। वालमीकि मनि ने सारी रामायण में अपने अनतिम परशन का उततर बड़ी सनदरता से दिया है। परशन यह है-
‘वह कौन है कि इन सब गणों के होते ह à¤à¥€ जब रोष आ जाये तब देवता à¤à¥€ उस के सामने कांपने लगें?’
करोध निकृषट à¤à¤¾à¤µà¤¨à¤¾ है। जिस मनषय को करोध नहीं आता वह मूरख होता है और जो करोध पर काबू रखता है वह बदधिमान होता है, परनत मनय करोध से à¤à¥€ अधिक उदातत à¤à¤¾à¤µà¤¨à¤¾ होती है, जो मानव के तेज की सूचक होती है। जो मनषय अनयाय, असतय या अतयाचार को सहन कर ले