Rishi Bodhotsav

Cognition by Maharshi Dayanand Saraswati
08 Mar 2024
Falgun Krishn 13, 2080
: 08 Mar 2024
: Gazetted

फालगन बदि १३


 

            विशवविदित गजरात देश में, टंकरा इक सनदर गराम।

उस में था औदिचय बराहमणों का, कल बह़शरत क ललाम।

पतर लाल जी के करसन जी, थे उस के मखिया अभिराम।

महादेतर में अविचल शरदधा, उन की रहती आठों याम ।। १ ।।

उन के कल दीपक दयाल जी, थे जनमे अति परतिभावान।

शिवरातरि-वरतपूजन में थे, पितराजञा से शरदधावान।

शिवमनदिर में निशि भर जागे, अटल धयान हो निषठावान।

पर शिवपिणडी पर चूहे की, लीला देख रहे हैरान ।। २ ।।

बोध हआ उन को तब ही से, हो नहिं सकता शिव पाषाण।

है यह जगती तल में फैला, जड़ पदारथ-पूजा अजञान।

निराकार शिव की पूजा ही है वेदोकत सनातन-जञान।

इसी जान की महिमा से वे दयाननद बन ग महान ।। ३ ।।


 

रचिरा

उस ही दिन से शिवरातरि भी बोधरातरि विखयात हई।

बोधदान से आरयजनों को, महिमा उस की जञात हई।।

परव रूप में तब ही से वह, जनता में सपरसिदध हई।

उसे मना कर आरय मणडली, वासतव-जञान-समृदध हई।। ४ ।।     

                                                            -पं. सिदधगोपाल कविरतन


 

            इस संसार में नाना परकार की साधारण घटनां सरवसाधारण के समकष परतिदिन होती रहती है, जनसाधारण की दृषटि में वे कोई महततव नहीं रखतीं। जनता क कषण में उन पर दृषटिपात करती है और दूसरे कषण में उन को भूल जाती है। किनत यही साधारण घटनां महापरषों के जीवन में महान परिवरतन उतपनन कर देती हैं। इतिहास साकषी है कि अति साधारण घटनाओं ने जगत में बड़ी-बड़ी करानतियां कर दी है।

            साधारण रोगियों, वृदधों, शवों (मरदों) को ले जाते ह रथियों और संनयासियों को सहसतरों जन परतिदिन देखते हैं, किनत इनहीं साधारण दृशयों ने शाकय राजकमार सिदधारथ को वह बोध परदान किया जिस का परभाव संसार के आधे मनषयों पर अब तक विदयमान है। इनही दृशयों से उदबदध बदध की दया ने करोड़ो पराणियों की निरदय रकतपात से रकषा करके संसार मे करूणा और सहानभूति का सतरोत बहाया था।

            वृकषों पर से फलों को गिरते ह नितय ही लकषों मनषय देखते हैं, किनत आइजक नयूटन की दिवय दृषटि ने क वृकष से फल के पतन को देख कर पृथवी के गरतवाकरषण के नियम का साकषातकार किया।

            बटलोई की भाप अपने ऊपर के ढककन को अनेक मनषयों के नेतरों के सामने हिलाती रहती है, किनत नयूकोमेन की दूरगामिनी बदधि ही उस में वरतमान वाषप इंजन का बीज देख सकी।

            वृकष के पतरों में से छनता हआ सूरय का आलोक बहधा मनषयों की दृषटि के सामने आता रहता है, किनत इटली निवासी पोटौ महानभाव ने क वृकष के नीचे मधयाहन में विशराम करते ह इसी दृशय को देखकर आलोक-चितर (फोटोगराफी) का मूल सिदधानत ढूंढ निकाला।

            इसी परकार की क घटना आज हमारे परसतत परकरण से समबनध रखती है, जिस ने वरतमान शताबदी के भारत के धारमिक इतिहास में अपूरव करानति उतपनन कर दी।

            गजरात परायदवीप के मौरवी राजय में मछकाटा के इलाके में टंकारा क गराम है। समपरति यह गराम सौराषटरराजय के अनतरगत हैं। उस में गजराती बराहमणों की औदीचय शाखा का दालभयगोतरीय क समृदध सामवेदी कटमब चिरकाल से वास करता था। उस की उपसंजञा तरिवेदी थी। शिवपरोणोकत शैव समपरदाय में इस कल की असीम आसथा थी। वह बड़ी भकति से कैलाशाधिपति महादेव की पूजा अरचा में ततपर रहता था और शैवों के शिवरातरि परव को बड़े समारोह से मना कर विधि-अनसार वरत रखता था। पणडित करसन जी लाल तिवारी इस कटमब का परमख परष था। तिवारी तरिवेदी पद का अपभरंश है और करसन जी के पिता का नाम लाला जी था। करसन जी के कई सनततियां थीं। उन में से उन के पतर का नाम मूलशंकर व दयाल जी था। दयाल जी बड़ा परतिभाशाली बालक था। 5 वरष की अवसथा में उस ने देवनागरी अकषर सीख कर बहत से सतरोत और शलोक कणठागर कर लिये थे। आठवें वरष में उस का यजञोपवीत संसकार हआ और वह अपने समपरदायानसार सनधया-वनदनादि करम करने लगा। उस के पिता ने सामवेदी बराहमण होने पर भी रूदराषटाधयायी से यकत होने के कारण उस को यजरवेद कणठागर कराया था और पारथिवपूजन आदि का उपदेश दिया था। चैदह वरष की अवसथा में दयाल जी को नियमापूरवक शैव मत की दीकषा देने की तैयारी की गई और शिवरातरि की महारातरि का महापरव इस के लि चना गया। गजरात देश में शिवरातरि का परव माघ बदि १३ को होता है और उततर भारत में फालगन बदि १४ को यह परव मनाया जाता है। इस अनतर का कारण यह है कि दकषिण भारत में अमावसयानत और उततर भारत में पूरणिमानत मास की गणना परचलित है। संवत 1894 विकरमी की शिवरातरि को दयाल जी नियमापरवूक वरत रखकर रातरि जागरण के लि पिता के साथ गराम से बाहर वरतमान अपने कल के शिवमनदिर में गया। रातरि के परथमारदध की पूजा के पशचात उस के पिता आदि निदरा के वशवरती हो गये, किनत शरदधाल बालक दयाल जी भकति के आवेश में आंखों पर जल के छीटें मार-मार कर जागता रहा। कछ देर पशचात वह कया देखता है कि क मूषक (बालक की मातृ-भाषा गजराती में उस का नाम ‘औंधर’ था) शिव की पिणडी पर आकर चढ़ावे के अकषत आदि खाने के लि उछल-कूद मचाने लगा। दयाल जी के बाल-हृदय में उस को देखकर शंकाओं का समदर उमड़ पड़ा। वह सोचने लगा कि शिव तो पराण में विकराल गणों, पाशपात असतर और तरिशल से यकत, वर और शाप देने में समरथ, सरवशकतिमान वरणित है। यह कैसे समभव है कि अपनी मूरति पर से वह इस चूहे को नहीं हटा सकता? इस आशंका ने दयाल जी की तरकणा शकति मे सा आघात-परतिघात उतपनन किया कि उसी कषण से उस को पाषाण की पिणडी के शिव न होने का निशचय हो गया और उस ने उसी समय सतयशिव की गवेषणा का संकलप धारण कर लिया। उस ने ततकाल अपने पिता जी को जगाया और अपनी शंका उन से निवेदन की। उनहोंने उस की शंका के समाधान का नाना परकार से उदयोग किया, किनत दयाल जी का सनदेह निवृत न हआ, तब उस ने अपने मन में यह वरत दृढ़ कर लिया कि मैं शिव का साकषातकार किये बिना उस का पूजन कदापि न करूंगा।
            चूहे की इस कषदर घटना ने ही दयाल जी के दयाननद बनने का सूतरपात किया। आगे की घटनावली केवल उस की सहायक मातर थी, वह करिया परतिकरिया की करममातर थी। वसततः इस शिवरातरि ने दयाननद को बोध परदान किया था और वही दयाननद के जीवन भर के मूरतिपूजा के विरूदध विकट संगराम का आदि कारण थी। इसीलि उस को आरयसमाज के इतिहास में ‘दयाननद-बोधरातरि’ कहते हैं और आरय-सामाजिक परिवारों में उस दिन परतयेक वरष दयाननद बोधरातरि नाम का परव मनाया जाता है। शायद इस समय जब कि ऋषि दयाननद के उदयोग ने मूरतिपूजा के विशवास को जड़ से हिला दिया है, साधारण दृषटि में दयाननद बोधरातरि का उतना महतव न जंचे, किनत आरयसमाज के आचारय के कारयकषेतर मे अवतीरण होने से पूरव मूरतिपूजा की दशा पर जब हम दृषटिपात करते हैं तो दयाननद बोधरातरि के परभाव का पूरण चितर हमारे हृदय-पटल पर अंकित हो जाता है। उस समय मूरतिपूजा के विरूदध क शबद का भी उचचारण हिनदू धरम के मूल पर कठाराघात समा जाता था और सा करने वालों को नासतिक की उपाधि ततकाल मिलती थी। महाभारत यदध के पशचात वेदानयायियों में अनेक सिदधानतों पर मतभेद रखने वाले बहत से मतपरवरतक उतपनन ह हैं किनत वेद के परमाणों के आधार पर मूरतिपूजा के खणडन का गौरव वेद के अदवितीय भकत, आरय समाज के संसथापक ऋषि दयाननद को ही परापत है। ऋषि दयाननद के आविरभाव से पूरव मूरतिपूजा जनता मूरतियों को साकषात उपासय देव मानकर ही पूजती थी और अब तक सरवसाधारण अजञजनों की यही भावना है। किनत ऋषि दयाननद के मूरतिपूजा का परबल परिहार करने पर सनातनी पणडितों ने इस नवीन यकति का आशरयण आरमभ किया था कि मूरतियां तो केवल चितत की कागरता का साधन मातर है। वे मूरतिपूजा के अरथ ‘मूरतेः पूजा=मूरति की पूजा’ छोड़ कर ‘मूरतौ पूजा=मूरति में पूजा’ करने लगे। परनत दयाननद की दीरघ दृषटि ने खूब ताड़ लिया था कि ये यकतियां पजारियों के दरवयापहरण के हथकणडे हैं और अपने अनयायियों की बदधियों को जड़ बनाये रखने का साधन मातर है। ऋषि दयाननद ने भले परकार अनभव कर लिया था कि इस समय मूरतियों के मनदिर दराचार के दरगम दरग बने ह है। अधिकांश मादक दरवयसेवी मूरखो, भंगडियों, गनजडि़यों और मदयपों को काली, भैरव और महादेव के मनदिरों में ही शरण मिलती है और वहीं उन का जमाव रहता है। सवेचछाचारी और अनाचारी महनतों की समपतिशीलता के साधन भी यही मनदिर है। इसलि जब तक इन की जड़ मूरतिपूजा का उनमूलन भारत से न होगा, तब तक यथारथजञान के परसार और भारत माता के उदधार की आशा दराशामातर है। इसी विचार-परमपरा ने महरषि दयाननद को मूरतिपूजा के घोर विरोध के लि उदयत और कटिबदध किया था और उस का परिणाम आपके नेतरों के सामने सपषट उपसथित है कि चाहे हमारे पौराणिक भाई अपने मख से सवीकार करें वा न करें पर अनतःकरण में वे इस को भली परकार जानते है कि साकषर जनता का विशवास मूरतिपूजा से उठ चका है। इतना तो सनातनी पणडित भी अवशय कहने लगे हैं कि मूरतिपूजा केवल अजञानियों के लि है, जञानियों को उस की आवशयकता नहीं है। कया यह धारमिक जगत में बोधरातरि की की हई महाकरानति नहीं है कि जिस मूरतिपूजा की जड़ को महमूद गजनवी का खडग, औरंगजेब का अतयाचार अपने बल से न हिला सका था उस को महरषि दयाननद के परबल तरक तथा परचार ने मृदतापूरवक खोखला कर दिया। अब समदार सनातनी भी मूरति-मनदिर-निरमाण की निररथकता को भले परकार सम गये हैं और वे भी सथान-सथान पर विदयालय, ऋषिकल, बरहमचरयाशरम, सकूल और कॉलेज खोल रहे हैं। ये बातें दरशा रही हैं कि आरय सनतान वासतविक मनदिरों के सवरूप को जान गई है और उस सवरूप को उन के समकष लाने वाला दयाननद ही था।
बोधरातरि का वृततानत दयाननद के वरत की दृढ़ता का भी सूचक है। उस ने केवल १४ वरष की बालयवसथा में जो वरत गरहण किया था, उस को आजीवन निभाया। मूरतिखणडन छोड़ देने के लि उस को नाना परकार के परलोभन और भय दिखलायें गये, किनत वह अपनी परतिजञा पर अटल रहा। उदयपर राजय की घटना आरयसामाजिक परषों को जञात ही होगी कि उन के शिषय उदयपराधीशवर महाराणा सजजनसिंह ने उन निवेदन किया था कि उदयपर का राजय का राजय कलिंगेशवर महादेव के मनदिर के आधीन है। यदि आप यहां मूरतिपूजा का खणडन न करें तो इस मनदिर की गददी आप को मिल सकती है, जिस से आपका कई लाख रपये पर अधिकार हो जायेगा। यह सनकर सवामी जी को बहत करोध आया और उनहोंने कहा ‘‘तम म को तचछ लालच देकर बड़े बलवान ईशवर की आजञा तड़वाना चाहते हो। यह छोटी सी रियासत और उस का मनदिर कि जिस में से मैं क दौड़ से बाहर जा सकता हू, मे कभी भी वेद और ईशवर की आजञा के तोड़ने पर बाधित नहीं कर सकते।’’ (यह उकति पं. मोहनलाल, विषणलाल पणडया की बतलाई है।) यह सनकर महाराणा साहब ने उन के धारमिक भाव से चकित होकर निवेदन किया कि ‘‘महाराज मैंने यह सब इसलि कहा था कि मैं देखूं कि आप इसके खणडन पर कितने दृढ़ है? अब मेरा निशचय पहले से अधिक दृढ़ हो गया है कि आप वेद की आजञा पालने में दृढ़ है।’’ से ही दृढवरती और अविचलित निशचयी परषों से संसार का कलयाण होता है, जो बालयावसथा में ही दयाननद और बदध आदि के समान साधारण घटनाओं से भी बोध परापत करके अविदयानधकार को हटाकर जञानजयोति का परसार करते रहते हैं।
      à¤†à¤°à¤¯ महाशयों को दयाननद बोधरातरि से यह शिकषा गरहण करनी चाहि कि परतयेक परष का करतवय  à¤¹à¥ˆ कि वह साधारण घटनाओं को भी अनतरदृषटि से अवलोकन करने का अभयासी बने और अपने अंगीकृत वरत को पराणपण से पालता रहे। दयाननद बोधरातरि को परतयेक आरय के यहां ऋषि दयाननद के गणों का कीरतन होना चाहि।
 

ऋषिबोध परव
फालगन बदि चतरदशी
 

परातः समसत आरय सजजन तथा देवियां समाज-मनदिर में कतरित होकर-
            1 कल काल वेदपाठ करें।
            2 साधारण यजञ किया जाये।
            3 आतमोदधार समबनधी भजन गान किये जायें।
            4 ऋषि गरनथों की कथा।
            5 आरयधरम के परचार करने का वयकतिगत निशचय करें।
 

मधयाहन-विशेष नगरकीरतन किया जाये। कीरतन अधिक से अधिक गमभीर तथा परभावोतपादक होना चाहि। आरयपरषों, कमारों, देवियों की टोलियां बना-बनाकर सवयं भजन गाने चाहि। भजनों में परभभकति, ऋषिमहिमा, देशपरेम, जातीय गौरव तथा आतमसधार के ही विशेष भाव होने चाहिं।
            सांय-दीपमालिका के उपरानत मनदिर में वेदोपदेश तथा ऋषि-जीवन पर परकाश डालने वाले वयाखयान होने चाहिं। आज की इस जञान-रजनी के अनत में मनदिर में शानतिपाठ करके आरयजन अपने-अपने गृह में जाकर अपने जीवन को अधिक से अधिक उचच तथा परोपकारी बनाने का शभ संकलप धारण करें, इसी में इस परव की सफलता है।
 


 

शरीमददयाननद-बोधरातरि
 

था वसनत, पर आरय जाति-वर लता नहीं फूली थी,
बरहमचरय आदितय-किरण तन गगन नहीं ूली थी।
कषमता-शीलता-मेल-मलयमय सनेह-समीर नहीं था ।। १ ।।
सामगान-कोयल-कूजन-धवनि नहीं सनाई देती थी,
विदयाचनदर विकास-चनदरिका नहीं दिखाई देती थी।
निठर-जाडयवश ठिठरे जन मे जीवन-जयोति नहीं थी,
दूर-दूर के हिम-डाकू से पतड़ लूट कहीं थी ।। २ ।।
तिमिराचछनन गगन धरणी में काल-रातरि थी छायी,
था अनधेरा मचा बछिया के बाबा की बन आयी।
पूरण चनदरमा, दीप अनेकों जो घर-घर जलते थे,
भानविभा ये सब मिलकर भी उसे न हर राकते थे ।। ३ ।।
मराती साहितय-वाटिका माली सधि भूले थे,
अमल कमल की विमल कयारियों मे जलते चूलहे थे।
जाई, केतकि, वकल, मालती, तज कनेर तकते थे,
रूचि-बिगड़े कछ अनधे भौंरे चमपा पै मरते थे ।। ४ ।।
अपनी भाषा भाव सभी कछ भूल मरे जीते थे,
दिन कटते थे शवास थी पर तन जीवन-रीते थे।
थी अपूजय की पूजा होती पूजय सताये जाते थे,
देवी-देव न कछ कर सकते, मूषक मौज उड़ाते थे ।। ५ ।।
फालगन कृषण चतरदशी की थी रातरि महाकलयाणी,
‘शिव-शंकर’ से फाग-मचाता, क निरंकश पराणी।
मठाकाश में दीपशिखा, नभ मलिन जयोति छायी थी,
दयाननद के घटाकाश में जञान-जयोति आयी थी ।। ६ ।।
ऊपर तारागण, मसकाते, मनदिर सजा हआ था,
महामसत ‘मूषक’ मनमाना खाना मिला हआ था।
आस पास सो समनों में विकच परसून लसा था,
नैसरगिक नीरव वसनत में सरस वसनत बसा था ।। ७ ।।
अरधनिशा बीती, निदरा ने भूत सववश कर डाले,
क क कर पडे़ पजारी सब ही ढ़ीले-ढ़ाले।
भूत तो ह, भूतनाथ भी निदराधीन बने थे,
केवल बालक दयाननद ही वरत में डटे-तने थे ।। ८ ।।

परकृति सनदरी भी सोई थी काली कमबली ताने,
नील कमल-मखगगन खला था कषितिज रूप सिरहाने।
वदन गगन पर चनदर-बिनद कछ रहा छटा सरसाता,
काली कमबली को कछ-कà¥