Sharadiy Nav Shasyeshti

Deepawali
01 Nov 2024
Kartik Amawasya, 2081
: 01 Nov 2024
: Gazetted

आज शरदऋत की समापति में केवल पनदरह दिन शेष है। पनदरह दिन पीछे सरवतर हेमनत ऋत का राजय होगा और शीत का शासन सब को सवीकार करना होगा। वरषा के बीतने और शीत लगने पर जनता को कछ विशेष समारमभ (तैयारियां) करने पड़ते हैं। वरषा ऋत में  à¤µà¥ƒà¤·à¤Ÿà¤¿à¤¬à¤¾à¤¹à¤²à¤¯ से वायमणडल तथा घर बार विकृत, मलिन और दरगानधित हो जाते हैं। बरसात के अनत में उन की संशदधि और सवचछता की आवशयकता होती है। वायमणडल का संशोधन हवन-यजञ से होता है और घर बार की सवचछता लिपाई-पताई से की जाती है। अब ही भावी शीत का निवारण के लि गरम वसतरों का परबनध करना होता है। इसी समय सावनी की फसल का आगमन होता हे। किसान के आननद की सीमा नहीं है। उस का घर अनन-धान, माष, मृग, बाजरा, तिल और कपास से भरपूर होने को है। इस अवसर पर शरौत और समारत सूतरों में गोभिलगृहयसूतर, तृतीय परपाठक, सपतमखणड, ७-२४ सूतर, पारसकरगृहयसूतर दवितीय काणड, १७वीं कणडिका, १-१८ सूतर, आपसतमबीय गृहयसूतर ११ खणड, मानव गृहयसूतर तृतीय खणड तथा मनसमृति के-


 

ससयानते नवससयेषटया तथरतवनते   à¤¦à¤µà¤¿à¤œà¥‹à¤½à¤§à¤µà¤°à¥ˆà¤ƒà¥¤                                                     -मन.४। २६।।


 

इस पदय में नवससयेषटि या नवातरेषटि (नव=नवीन+ससय=फसल वा खेती+इषटि=यजञ, अरथात नवीन फसल के अनन का यजञ) करने का विधान है। इन सब कारयो के लि परव कारतिक बदि अमावसया तिथि पराचीन काल से नियत चली आती है, उस को दीपावली भी कहते हैं। वैसे तो परतयेक अमावसया को दरशेषटि यजञ करमकाणड गरनथों में विहित है, किनत कारतिक अमावसया को दरशेषटि और नवससयेषटि दोनों दृषटियों के विधान है, कयोंकि उन से इस अवसर पर वरषा ऋत में विकृत वातावरत की विशेष संशदधि अभीषट है। वरषा के अवसान पर दलदलों के सड़ने, मचछरों के आधिकय तथा आरदरता (नमी) के कारण ऋतजवर (मौसमी मलेरिया बखार) आदि रोग बहत फैलते हैं। इसलि इस ऋत के शारदीय पूरणिमा, विजया दशमी और दीपावली इन तीन परवों के होम, यजञों से उन रोगों का अनागत परतीकार भी अभिपरेत है।

जैसे शारदीय अशविन पूरणिमा को चांदनी वरष भर की बारह पौरणमासियों मे सरवोतकृषट होती है, उसी परकार कारतिकीय अमावसया का अनधकार वरष की बारह अमावसयाओं में सघनतम होता है। इस अमावसया के अनधकार पर मृचछकटिककार शूदरक कवि की निमनलिखित उकति पूरी उतरती है-


 

लिमपतीव तमोऽगंनि, वरषतीवाजंनं नभः।

असतपरषसेवेव दृषटिरविफलतां गता।।

अरथ-अनधियारी अंगो पर पत सी गई है, आकाश अनजन सा बरसा रहा है, दृषटिशकति इस परकार निषफल (बेकार) हो गई है जिस परकार असजजन की सेवा वयरथ जाती है।

सी घनी अनधियारी रातरि में, नवीन सावनी ससय के आगमन से परमदित कृषि परधान भारतवरष में मानो वरष की परथम उकत ससय (फसल) के सवागत के लि दीपमाला का उतसव मनाया जाता है। यह दीपमाला भी गृहों की वरषाकालीन आरदरता के संशोषण से उन के संशोधन में सहायक होती है।

            आज राजपरसाद से लेकर रंककटीर तक की शोभा अपूरव है। परतयेक नगर और गराम का परतयेक आरय घर परिमारजन और सधा (कली और चूना) वा पिंडोल मृततिका के लेपन से शवेत रूप धारण कि ह है। परतयेक अटटालिका, आंगन और ककषया (कोठरी) में दीपपंकति जगमगा रही है। धनियों के बहमूलय काचमय परकाशोपकरणों (ाड़ फानूस आदि शीशे आलाय) से लेकर दीनों के दीवलों (मृणमय तेल के छोटे-छोटे दीपकों) तक की कृतरिम जयोति परकृति के परगाढानधकार से सपरदधा (होड़ा होड़ो) कर रही हैं। परूषोततमपरिया के कृपापातरों के भवन नाना वयनजनों और विविध मिषटाननों की सरल सगनध से परिपूरण हैं तो लकषमी के कृपाकटाकष से वनचित दीनालय धानय की खीलों से ही सनतषट हैं। संकषेपतः आज परतयेक आरय परिवार ने अपने गृह को सवविततानसार मनोहर बनाने का भरपूर परयतन किया है।

            आज वरष के परथम शसय-शरावणी शसय के शभागमन के अवसर पर गृहों को शोभा और समृदधि के आवास योगय बनाना सवाभाविक और समचित ही था। यही लकषमी की पूजा थी, कयोंकि पूजा का वासतविक भाव योगय को योगय सथान का परदान ही है। आज का नवशसय के शभागमनावसर पर शोभा और समृदधि को उसका योगय सथान परदान-शोभा की समचित सथान और अवसर पर सथापना ही उस की वासतविक पूजा है। किनत ततव के परितयाग और रूढि़ ही आरूढ़ता के यग पौराणिक काल मे लकषमी की  à¤ªà¥‚जा का यह ततवांश अनतरदृषटि से तिरोहित हो गया और उस के सथान में उलूकवाहना की षोडशोपचारपूजा परचलित हो गई। उस के वाहन (मूढ़ता के साकषात सवरूप उलल महाराज) ने उस के उपासकों की बदधि पर सा अधिकार जमाया कि वे अपनी उपासया देवी के पदारपण की परतीकषा में दिवाली की सारी रात जागरण (रतजगा) करते हैं। परायः बदधि-विशारद भकत शिरोमणि तो निदरा के अपसारण के लि रातरि भर दयूतकरीड़ा में रत रहते है। मनःकलपित लकषमी की परतीकषा करते ह भी साकषात लकषमी (धन समपति) को वे दयूत दवारा दतकारते हैं, तिरसकार पूरवक उस को घर से धकका देते हैं- ‘अकषैरमा दीवयः’ इस अथरववेद की कलयाणी वाणी का परतयकष परतिवाद कर अनादर करते हैं।

            आजकल के कलि काल में वैदिककालीन परव शारदीय नवससपेषटि तथा दरशेषटि का तो सरवथा लोप हो गया है और केवल उस के बाहय आडमबर गृहपरिशोधन परिमारजन, दीपपंकति (दीपावली-दीपमाला) परकाशन, मिषटानन तथा लाजा वितरण और घोर अविदयानधकार काल में परचारित दयूत, दराचार आदि उसके आनषंगिक उपचार शेष रह गये हैं। नवाननेषटि के चिनह होम तक की परिपाटी परायः उठ गई है। शायद ही किनहीं बिरले सौभागयशाली गृहों में आज की रातरि में होम होता होगा। हां, कहीं-कहीं गगगल की धूप जलाने की रीति अवशय परचलित है, जो परशंसनीय है।

            दीपावली के विषय में भी विजयादशमी के समान यह क कलपित कथा चल पड़ी है, कि इस दिन मरयादापरतोम शरी रामचनदर बनवास से लौट कर अपनी राजधानी अयोधया में वापस आ थे और उनकी परजा ने उस हरषोतसव के उपलकषय में आज दीपावली की थीं। उस का अनकरण वरतमान दीपावली  à¤šà¤²à¥€ आती है। विजया दशमी के विवरण में इस परसंग के उललिखित ऊहापोह से भले परकार परकट होता है कि यह विचार भी सरवथा कपोल-कलपित है, कयोंकि शरी रामचनदरजी रावण-वध और लंका विजयाननतर के ततकाल बाद ही अयोधया लौट आ थे और जब उकत विवेचनानसार रावणवध फालगन वा वैशाख में हआ था तो शरी रामचनदरजी का अयोधया परतयागमन कारतिक मास में किस परकार समभव है? परतीत होता है कि दीपावली की दीपमाला के परकाश से शरी रामचनदर के अयोधया-परतयागमन के हरषोतसव की कलपना किसी कलपनाकनज मसतिषक में हई हो और उसी से यह दनतकथा सरवसाधारण में परचलित हो गई हो। वैदिक धरमावलमबी आरय सामाजिक महाशयों का परमकरतवय है कि जहां वे इस परकार की तिहासिक तततव की तिरोधायक कपोलकलपनाओं का निरसन करे, वहां शारदीय नवससयेषटि के वैदिक परव का परतयावरतन करके, उस के गृह-संशोधन और दीपावली परकाशन आदि अनषंगों के सहित आगे पदधति परदरशित परकारानसार उस के सवरूप का आरय जनता में परचार करें।

            जैसा कि परवपरादरभाव परिचय के परकरण में विवेचना की गई है, आरयों  à¤•à¤¾ क-क परव किसी विशेष कृतय के लि उददिषट है और इस परकार उस का समबनध किसी न किसी क विशेष वरग के साथ सथापित है। जिस परकार वैदिक धरम की चातरवणरय और चतराशरमवयवसथा चराचर जगत में वयापत है, उस की वयापति केवल मनषयमातर में ही नहीं है, परतयत तिरयगयोनियों और उभदधजजो में भी गण, करमानसार वरण और आशरम विदयमान है। पशओं में गौ और वनसपतियों में अशवतथ (पीपल) बराहमण वरण के अनतरगत है। इस विषय का यहां अधिकतर विसतार, परकारणानतर- परवेश का दोषावह होगा, इसलि संकेतमातर इतना ही परयापत है। इसी परकार आरयों के परवो में भी चातरवणरय वयवसथा पाई जाती है। शरावणी उपाकरम, सवाधयाय से समबदध होने के कारण बराहमण परव है। लोक में भी शरावणी (सलूनो) बराहमणों का परव कहलाती है। विजया दशमी कषतरियों की दिगविजय यातरा और कषातरधरम के विकास से समबनध रखने के कारण कषतरिय परव है और जन साधारण भी उस को कषतरियों का परव कहते हैं। शारदीय नवसयेषटि वा दीपावली के परव का विशेष समबनध वैशय करम (कृषि, वाणिजय और उनकी अधिषठातरी समृदधि की देवी लकषमी) से है, इसलि दीपावली वैशय परव है और लोग भी उस को वैशयों का परव मानते हैं। शूदर-परव होली का वरणन उस के परकरण में यथासथान होगा। दीपावली के अवसर पर, जैसा कि ऊपर दिखलाया जा चका है, नवीन सावनी-ससय के अनन से होम होता है। नवीन अनन की लाजा (खीलें) और मिषटानन बांटे जाते हैं। इसी अवसर पर वयवसायी जन अपने बहीखातों का नवीन वरष आरमभ करते है। आढ़त की दकानों पर नये बहीखाते दीपावली से ही बदले जाते है। ये सब बातें इस परव का वैशयतव पूरणरूपेण सथापित करती हैं। परनत जिस परकार चारों वरण और उन के गण, करम मखयतः पृथक-पृथक होते ह भी, गौण रूप से क-दूसरे के गण करमों का समावेश चारों वरणों में रहता है-बराहमण वरण की समपति सवाधयाय, कषतरिय वरण की शूरता, वैशय की समृदधि और शूदर का सेवा धरम नयूनाधिक चारों वरणों के परूषों से समबनध रखते ह भी सरवसाधारण के सममिलित (सांे के) परव भी हैं।

किनत इस दीपमाला की महारातरि का महतव क महाघटना ने और भी बढ़ा दिया। इसी के सांयकाल विकरमी सं. 1940 तदनसार 30 अकटूबर सन 1883 ई. मंगलवार को वीर विकरम की 20 वीं शताबदी के अदवितीय वेदोदधारक और वरतमान आरय समाज के संसथापक तथा आचारय महरषि दयाननद की उचच आतमा ने इस नशवर शरीर का परितयाग करके जगजजननी के करोड में आशरयण का आननद परापत किया था। महापरूषों का देहावसान साधारण मनषयों की मृतय के समान शोकजनक और रलाने वाला नहीं होता। उनका परादरभाव और अनतरधान दोनों ही लोककलयाण और आननद परदान के लि होते हैं। महापरूषों का इस लोक में आगमन तो लोकाभयदय के लि परतयकष ही है। किनत उन का इहलोक लीला-संवरण भी आननद का हेत होता है। वे परोपकार में अपने पराणों को अरपण करते हैं। संसार के सख के  à¤²à¤¿ अपने शरीर की बलि देते हैं, इसलि जनता उन के बलिदान पर उन की कीरति का कीरतन और गणवान करके क परकार का आननदानभव करती है। उन का बलिदान सवयं जनता के लि परोपकारारथ देहोतसरग का उततम आदरश सथापित करके, जनता में उदाहरण तथा सतसमपरदाय का परवरतन और सख का संयोजन करता है। इस पांचभौतिक शरीर को तयागते ह उन की आतमा सवयं भी सनतोष और आननद लाभ करती है। सनतोष इसलि कि वे अपने इस लोक में आने का उददेशय पूरण करते ह अपने इस लोक के जीवन को परोपकार में विसरजन कर रहे हैं और आननद इसलि कि उनका जीवातमा पराकृतिक बनधनों से मोकष पाकर परमपिता के संसरग का संयोग परापत कर रहा है और साथ ही अपने परभ की इचछा को पूरण कर रहा है। ‘परभो तेरी इचछा पूरण हो’ महरषि दयाननद के अनतिम शबद यही थे। किसी उरदू के कवि ने कहा है-

‘राजी हैं हम उसी में जिस में तेरी रजा है।’

इसलि वैदिक धरमावलमबी आरयों में मोहममदियों के समान महापरूषों के अनतरधान की समारक तिथियों पर शोकातर होने वा रोने-पीटने की रीति नहीं है, परतयत इन अवसरों पर उन की गणावली गाकर आतमा में आननद का संचार किया जाता है। सिकखो, कबीरपनथियों, दादूपनथियों आदि सनातनधरमी आरय सनतान (हिनदओं) के अनय समपरदायों भी अपने धरमसंसथापक के चोला छोड़ने के दिन भणडारा चलाने की रीति है जिस में उनके शबदकीरतन करने और कड़ाहपरसाद बांटने का आननद मनाया जाता है और शोक लेशमातर भी नहीं होता। फलतः आरय जाति में शोकपरदरशनारथ कोई भी परव नहीं है, न ही शोकपरदरशन में किसी परवता (उतसवता) का होना समभव है। अतव मृतयूतसव, शोकोतसव वा शोकपरव पद ही असंगत और असमबदध है। आरयों के यहां किसी भी महातमा के भौतिक देह-तयाग के दिन को पणय-तिथि (पवितर तिथि) निरवाण दिन वा अनतरधान-दिवस कहते हैं।

अतः आज महरषि दयाननद के गणानवाद का अवसर उपसथित है। महरषि दयाननद के आरय जनता पर इतने असंखय और अननत उपकार है कि मेरे सदृश कषदर लेखकों की निरबल लेखनी उनके लिखने में असमरथ है। जिस परकार समदर की विसतृत बालका में असंखय और अननत कण होते हैं और जिस परकार दिनकर की किरणावली की गणना नहीं हो सकती, उसी परकार महापरूषों की भी गणावली गणनातीत और महिमा अपरेमय होती है। विचारक उस पर विचार और मनन करते रहते हैं। कवि उस का कीरतन करते रहते है। गायक उस के गान से सवरसना को रसवती और पवितर करते रहते हैं और संसारी जन उनसे शिकषा गरहण करके अपना जनम सधारते रहते हैं। सच पूछिये तो इस संसृति-सागर में महातमाओं की चरितावली ही तरणी है और उनके आदरश करम ही जयोतिसतमभ हैं, जो भूले-भटके बटोहियों को मारग दिखलाते और पार लगाते हैं। मरयादा परूषोततम शरी रामचनदर की जीवनी न जाने कितने कवीशवरों के वागविलास का विषय बनी है। संसकृत और हिनदी कावयों का परचूर भाग शरी रामचनदर के गणानवाद से ही वयापत है। रामकथा ने न जाने कितने पथिकों को सतपथ दिखलाया है।

योगीराज कृषण को भगवदगीता का करमयोग सहसतरों आलसियों और उदासियों को करममारग में परवृत करके करमणय और करमवीर बना रहा है। भगवान तथागत का जीवन करोड़ों नर-नारियों और राव-रंकों के लि शानतिपरद बना है। कहां तक गिनां, संसार की सिरमौर भारत-वसनधरा तो से अनेक महातमाओं के गणवान से गनजायमान है।

ऊपर कहा जा चका है कि आज हमारे लि भी क महातमा के गणगान से अपने करणकहरों को पवितर करने और उन से शिकषा गरहण करने का सयोग पनरपि परापत है। आओ, आज आचारय दयाननद के पवितर चरितर की कछ विशेषताओं पर विचार करके अपने समय का सदपयोग करें।

आदितय बरहमचारी दयाननद के जीवन पर विचार करते ह क विचारक की दृषटि से करमयोगी के नानारूप, जिन में उस करमवीर ने अपनी सारी आय वयतीत कर दी, तिरोहित (ओल) नहीं रह सकते। यहां लघ लेखक का अभिपराय उन की आदयावसथा के उन मतपरिवरतनों से नहीं है, जो सतय की गवेषणा में उस जिजञास व ततवानवेषी के विचारों में समय-समय पर होते रहे, परतयत उन की निशचित कारय पदधति को गरहण कर चकने और आरयसमाज की संसथा को सथापित करके करमबदध करमकषेतर में अवतीरण होने पर जिन विविध रूपों में उस उपकारी ने जनता का उपकार किया है, उन पर क दृषटि डालना ही इन पंकतियों में अभीषट है।




 

(1) जगददधारक संनयासी दयाननद

करमयोगी दयाननद का सरवशरेषठ रूप जो सरवपरथम हमारे सममख आता है वह जगददधारक, सारवभौम धरमोपदेशक, सदविदयापरचारक, संसारोपकारक संनयासी का रूप है। संनयासी पर किसी जाति या देश विशेष का कानत सवतव वा ममतव नह