Shravani Upakarm

Rishi Tarpan, Rakshabandhan
19 Aug 2024
Shravan Purnima, 2081
: 19 Aug 2024
: Gazetted

शरावण सदि पूरणिमा
           

वैदिक धरम में सवाधयाय की सरवोपरि परधानता और महिमा वार-वार वरणन की गई है। उस पर यहां तक बल दिया गया है कि वह तारतमय से परतयेक वरण और आशरम के लि अनिवारय और आवशयक रूप से विहित है। चारों वरणों परथम वरण बराहमण का सवाधयाय (अधययना-धयापन) ही मखय करततवय है, उसी के कारण बराहमण सब वरणों में शरेषठ माना गया है और उसकी चातरवरणय-देह वा विराट परष का सरवशरेषठ अंग ‘मख’ कहा गया है। कषतरिय और वैशय की भी दविजनमा संजञा सवाधयाय से होती है।


 à¤†à¤¶à¤°à¤®à¥‹à¤‚ में भी परथम आशरम बरहमचरय की सृषटि केवल सवाधयाय के लि ही हई है। बरहमचरय की समापति पर समावरतन के समय सतरातक को आचारय सवाधयायानमा परमदः।’, ‘सवाधयायपरवचनाभयां न परमदितवयम। का उपदेश देता है जिस का सपषट परयोजन यही है कि आगे चलकर गृहसथाशरम में भी सवाधयाय करते रहो और उस में कभी परमाद मत करो। गृहसथ के पशचात वानपरसथ वा वनी का भी परधान करम सवाधयाय और तप ही रह जाता है। संनयासी का भी समय परम तततवचिनतन और उपदेश के अंगीभूत सवाधयाय में ही वयतीत होता है। संनयासी के लि आजञा है-संनयसेतसरवकरमाणि वेदमेकनन संनयसेत। अरथात संनयासी सब करमों को तयाग देवे केवल वेद को न तयागे। सवाधयाय को इतना महततव देने का उददेशय यही है कि जिस परकार शरीर की सथिति और उननति अनन से होती है उसी परकार सारे शरीर के राजा मन का भी उतकरष और शिकषण सवाधयाय से होता है। और यतः मानसिक उननति के बिना आतमिक उननति भी नहीं हो सकती, इसलि सवाधयाय आतमिक उननति का भी परधान साधन है। मानसिक और आतमिक उननति के बिना केवल शारीरिक उननति मनषय को मनषयता (मननशीलता) से गिराकर पशतव, पिशाचतव और राकषसतव की ओर ले जाती है। अतव सवाधयाय मनषय के लि अननाहार के समान ही आवशयक और अनिवारय है। सवाधयाय के साततय से ही मनषय मानस मकर दरपण सा सवचछ और पारदरशी बन जाता है कि उस में परम परष की अनादि सरसवती का साकषातकार उस को होने लगता है। इसी को मनतरदरशन भी कहते हैं। मनतरदरशन से ही मनषय ऋषि बन जाते हैं वा मनतरदरषटा की ऋषि कहलाते हैं। ऋषयो मनतरदरषटारः यह निरकत में महामनि यासक का वचन परसिदध ही है।

 à¤œà¥‹ वसत जिस को परिय होती है, उसी से उस की पूजा और तृपति का तरपण होता है। ऊपर ऋषियों और सवाधयाय का अभेदय वा समवाय समबनध दिखलाया जा चका है, इसलि ऋषियों की अरचा तृपति वा तरपण सवाधयाय से बढ़कर और किसी वसत से नहीं हो सकता। जहां धरमशासतरों में परतिदिन साधारण सवाधयाय दवारा ऋषियों के साधारण तरपण की आजञा है, वहां इस विषय में मनसमृति के निमनलिखित पदय परमाण रूप से उदधृत किये जाते हैं-


            अथ पंचमहायजञकथनाननतरम अधयायसय अधययनसय उपाकरम उपाकरणं (आरमभः) वयाखयासयत इति शेषः। ओषधीनाम-पामारगादीनां परादरभावे उतपततौ सतयां शरावणशच पौरणमासया वं विशेषणं ततर तयोः परायशः समभवात वं च सति पौरणमासया व पराधानयं तसमाद विशेषणाभावेऽपि पौरमामासयां भवति। औषधि-परादरभावसत सरवतरापेकषितः। शरावणमासय पंचमीं हसतेन यकतां वा परापय भवति ततरापि परायेण हसतो भवति अतः शरावणीपूरणिमा शरावणपंचमी वा विशिषटा अविशिषटा वा उपाकरमणः कालः।


            मनसमृति में उपाकरम और उतसरजन का आदेश निमनलिखित पदयों में दिया गया है-
            शरावणयां परौषठपदयां वापयपाकृतय यथाविधि।
            यकतशछनदांसयधीयीत मासान विपरोऽरधपंचमान ।। १५ ।।
            पषये त छनदसां करयात बहिरतसरजनं दविजः।
            माघशकलसय वा परापत पूरवाहने परथमेऽहनि ।। १६ ।।
                                                            मनसमृति ४ । ९५-९६ ।।


            तंचागनिमतोऽधयापनपरवृततसयैव भवति छनदांसयपाकृतयाधीयनत इति वचनात, उपाकरसय चावसथयागनिसाधयतवात निरगनेरनाधिकारः।


अरथ-वह उपाकरम अगनि सथापित कि ह और अधयापन में लगे ह का ही होता है ( उसी का करतवय है )। छनदांसयपाकृतयाधीयनतेइस वचन से उपाकरम आवसथय नामक अगनि में ही हो सकता है। उस अगनि को न सथापित किये ह परष को उस का अधिकार नहीं है।


            आवसथयाधानं दारकाले।।                                              -पारसकर गृहयसूतर १ । २ । १ ।।

इस सूतर से आवसथयागनि विवाह के समय में ही सथापित होती है। विवाहकाल के अगनि में उपाकरम के करने की आजञा से सपषट परामाणित होता है कि वह गृहसथों का ही करततवय है। शरी वैदय हरिशंकर जी ने भी अपनी ‘तयौहार-पदधति’ में आगे चलकर सवीकार किया है कि -

'लोक मे परचार होने और शासतर के अनसार करततवय  à¤¦à¥‡à¤–ने से यह विदित होता है  à¤• इस मंगल दिवस का समबनध गृहसथियों से भी अवशय है।’


 à¤¯à¤•à¤¤ परानतीय भारत धरम-महामणडल के परसतावानसार परकाशित ‘वरतोतसवचनदरिका’ में भी यह लिखा है कि-जो छातर बरहमचरय को समापत करके गारहसथय में परवेश करते थे, वे भी शरावणी के दिन नितय वेदपाठ का परारमभ करके माघ में समापत करते थे।


            गरकलों में उपाकरम और उतसरजन होता होगा? किनत यह केवल उनहीं का परव था, सा परतीत नहीं होता।


चिरकाल के पशचात वेद के पठन-पाठन का परचार नयून हो जाने पर साढ़े चार मास तक नितय वेद-पारायण की परिपाटी उठ गई और जनता पराचीन उपाकरम और उतसरजन से समारक रूप में शरावण सदि पूरणिमा को क ही दिन उपाकरम और उतसरजन की विधियों को पूरा करने लगी। इस बात की पषटि ‘धरमसिनध’ गरनथ के निमनलिखित उदधरण से भले परकार होती है-


            उतसरजनकालसत नेह परपंचते, सरवशिषटानामिदानीमपा-करमदिन वोतसरजनकरमानषठानाचारेण तननिरणयसयानपयोगात।

अरथ-यहां उतसरजन काल का निरणय नहीं किया जाता है, कयोंकि आजकल सब शिषट लोग उपाकरम के दिन उतसरजन भी कर लेते हैं। अतः उसके काल का निरणय करना वयरथ है।


जञात होता है कि ये दोनों कृतय बहत काल से क ही दिन होते चले आये हैं। पीछे से जनता उपाकरम और उतसरजन का नाम भी भूल गई और इस परव का नाम केवल ऋषितरपण और शरावणी ही परसिदध हो गया। पहले लोग उस दिन वेद के कछ सूकतों का पाठ कर लेते थे और उसी समय वरषा ऋत के विकृत जलवाय के संशोधनारथ बृहद हवन यजञ भी होता था। उसी अवसर पर सब अपने नवीन यजञोपवीत भी बदलते थे, और समभव है कि ऋषितरपण यजञ में सममिलित होने के चिहनसवरूप से याजक और यजमानों के दाहिने हाथ में रकषासूतर (राखी) भी बांधे जाते हों और वरतमान काल में शरावणी के दिन रकषा-बनधन (राखी बांधने) का यही सतरोत हो। किनत इस का परमाण भविषयोततर पराण को छोड़कर किसी पराचीन गरनथ में नहीं पाया जाता।


पौराणिक काल में इस परव पर वेद-सवाधयायातमक ऋषितरपण का सरवथा लोप हो गया और शरावणी करम के नाम से सरपों को बलि देने आदि के नवीन विधान परचलित हो गये थे। होम या का परचार भी उठ गया। लोग नदी वा तालाब पर जाकर पंचगवयपराशन, सनान तथा ऋषितरपण के कछ संसकृतवाकय-ओं बरहमा तृतयताम, ओं विषणसतृपयताम, ओं रदरसतृपयताम, ओं सनकसतृपयताम, ओं सननदनसतृपयताम, ओं सनातनसतृपयताम, ओं कपिलसतृपयताम, ओम आसरिसतृपयताम, ओं वोढसतृपयताम, ओं पंचशिखसतृपयताम। उचचारण करके अपने करततवय की समापति समने लगे। आजकल पौराणिक घरों में सतरिया भिततियों पर शरावण की मूरतियां गेरू से बनाकर उनको सेवियों से जिमाती हैं। राजपूत काल में अबलाओ के अपनी रथारथ सबल वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का परचार हआ है। जिस किसी वीर कषतरिय को कोई अबला राखी भेजकर अपनी राखी बांध भाई बना लेती थी, उस की आय भर रकषा करना उस का करततवय हो जाता था। चिततौड़ की महारानी करणवती ने मगल बादशाह हमायूं को गजरात के बादशाह से अपनी रकषारथ राखी भेजी थी, जिस से उस ने चिततौड़ पहचकर ततकाल अनत समय पर उस की सहायता की थी और चिततौड़ का बहादरशाह के आकरमण से उदधार किया था। तब से बहत से परानतों में यह परथा परचलित है कि भगिनियां और पतरियां अपने भराताओं और पिताओं के हाथ में शरावणी के दिन राखी बांधती हैं और वे उन से कछ दरवय और वसतर पाती हैं। यदि यह परथा पतरी और भगिनीवातसलय का दृढ़ करने वाली मानी जा तो उस के परचलित रहने में कोई कषति भी नहीं है।
 

आजकल की शरावणी का पराचीन काल के उपाकरम-उतसरजन वेदसवाधयायरूप ऋषितरपण और वरषाकालीन बृहद हवन-यजञ (वरषाचातरमासयेषटि) का विकृत तथा नाममातर शेष समारक समना चाहि और पराचीन परणाली के पनरजजीवनारथ उसको बीज मातर मानकर उसको अंकरित करके पतरपषपसफलसमनवित विशाल वृकष का रूप देने का उदयोग करना चाहि।

आरय परषों को उचित है कि शरावणी के दिन बृहद हवन और विधिपूरवक उपाकरम करके वेद तथा वैदिक गरनथों के विशेष सवाधयाय का उपाकरम करें और उस को यथाशकति और यथावकाश नियमपूरवक चलाते रहें।

शरावणी परव
           

आरयों के समाजिक और वैयकतिक जीवन में परवों का सदा से सथान रहा है। धरा पर सभी मानव जातियां किसी न किसी परकार का परव मनाती ही हैं। परव शबद का अरथ पूरक भी है और गरनथि होने से धारक भी है। ईख के रस को ईख की गरनथि सरकषित रखती है और बांस आदि की दृढ़ता को उस की गांठें सथिर रखती हैं। इसी परकार शरीर की सथिति-सथापकता शरीर की गरनथियों दवारा सरकषित है।

शरावणी आरयों के परसिदध परवों में से क महान परव है। यह परव वैदिक परव है। इस का सीधा समबनध वेद की अधयापन और अधययन करने वालों से है। गृहयसूतरों के अनसार इस परव का सीधा समबध वेद और वैदिकों से दिखलाया गया है। यह परव जहां परव है वहां यह क गृहयकरम भी है। गृहयसूतरों के अनसार शरावणी करम भी इसी अवसर पर होता है और उपाकरम वेदाधययन का परारमभ होता है। चार मास वरषा के होते हैं। इस में बराबर वेदाधययन चलता रहता था और पौष में जाकर उतसरग किया जाता था। इसी आधार को लेकर आरयसमाज ने वेद सपताह का इस अवसर पर आयोजन किया। वेद के अधययन के मारग को आचारय महरषि दयाननद सरसवती ने परशसत किया है अतः उन के दवारा सथापित वेद-परचारक आरयसमाज का यह कतरतवय ही है कि वह वेद के परचार को बढ़ावे।

शरावणी नाम इस परव का कयों है? इस का उततर यह है कि शरवणा नकषतर से यकत पूरणिमा को यह परव होता है अतः यह शरावणी है। इसी शरावणी पूरणिमा के आधार पर ही इस मास का नाम भी शरावण मास है। इस शरावणी की भी विधि है और वह गृहयसूतरों और हमारी परवपदधति में लिखी है-जो परतयेक आरय और आरयसमाज को करनी चाहि।

यह सब होने पर भी कपरथाओं और सपरथाओं के बीच में चलने वाले आरयों में भी शरावणी के वासतविक सवरूप के विषय में कहीं-कहीं पर अनभिजञता ही दिखाई पड़ती है। हमारी पतर-पतरिकाओं में भी सी बातें कभी-कभी निकल जाती है। दीपावली के विषय में राम की लंका विजय के बाद दीपावली को दीपावली का कारण बताया जाता है और होली के विषय में परहनाद का समबनध जोड़ा जाता है। ये दोनों ही कलपनां भरानत और गलत हैं। वसततः ये दोनों ही गृहय करम हैं। इसी परकार रकषा-बनधन परव के अतिरिकत और कछ नहीं समा जाता है। रकषा बांधने की परथा बीच में किसी समय परारमभ हई परनत शरावणी तो वैदिक गृहयकरम है। वह बहत पहले भी था और अब भी है।

क दिन क आरय सजजन कहने लगे कि शरावणी के दिन ही चारों वदों का जञान सृषटि के परारमभ में मिला था, इसलि यह शरावणी परव मनाया जाता है। मे बड़ा आशचरय हआ कयोंकि जहां तक मेरा जञान है मैंने सी बात कहीं नही पढ़ी है। यह समभव नहीं, सी-सी अनेक कलपनां लोग बना लेते हैं। मेरे कहने का तातपरय यही है कि शरावणी के विषय में सी कलपनाओं के आधार नहीं बनाना चाहि। उस के शदध सवरूप को समना चाहि। रकषाबनधन का लौकिक और सामाजिक कृतय भी इसी दिन पड़ता है। यह ठीक है परनत यह परथा इस परव का कारण नहीं।

शरावणी और सवाधयाय

जैसा ऊपर कहा गया है वेदाधययन का इस परव से सीधा समबनध है। शरावणी मनाने का क उततम तरीका यह है कि वेदादि सचछासतरों का सवाधयाय इस परव से अवशय चालू किया जाये। सवाधयाय जीवन का अंग होना चाहि परनत से परवों के अवसरों से परेरणा लेकर ही यदि हम इस परवृतति को बढ़ायें तो अचछा हो।


‘आरयों के जीवन का सवाधयाय क अंग है। सवाधयाय में परमाद का हमारे शासतरों में निषेध है। सवाधयाय (Self Study) का जञान के परिवरधन में बहत बड़ा महतव है। शतपथ बराहमण ११ । ५ । ७ । १ में सवाधयाय की परशंसा करते ह लिखा गया है कि सवाधयाय करने वाला सख की नींद सोता है, यकतमना होता है, अपना परम चिकितसक होता है, उस में इनदरियों का संयम और कागरता आती है और परजञा की अभिवृदधि होती है।’

यहां पर बराहमण गरनथ का परतयेक शबद महतव से भरा हआ है। पनः उसी बराहमण में ११ । ५ । ७ । १० में कहा गया है कि सवाधयाय न करने वाला अबराहमण हो जाता है। अतः परतिदिन सवाधयाय करना चाहि, और ऋक, यजः साम, अथरव आदि को पढ़ना चाहि जिस से वरत का भंग न होवे। बराहमण गरनथ सवाधयाय को अनय वरतों की भांति क वरत बतला रहा है। शतपथ ११ । ५ । ६ । २ में इस सवाधयाय को बराहमण कहा गया है और आगे चलकर बताया गया है कि इस यजञ की वाणी जहू है। मन उपभृत है, चकष धरवा और मेधा सतरवा है और सतय इस का अवभृथ है। इस परकार सवाधयाय की शासतरों में महती महिमा गाई गई है। ऋगवेद में सवयम इस का सनदर वरणन है। वरषाकाल में मेंढक बोलते हैं। क की बोली को दूसरा दहराता है। यह उपमा ऋगवेद में वेदपाठी बराहमण को दी गई है। कयोकि वे इस चातरमासय के समय में वेद को पढ़ते हैं। वसततः वेद का मणडूक शबद और यह उपमा निरदेश का महतव लिये हैं। इससे वेदवाणी, मणडूक की वाणी और मानसून-मेघसय वाणी का सनदर सममिशरण और कब हो सकता है? इस वरषा की ऋत में वेदजञ के मख से निकली वेदवाणी, मानसून की गड़गड़ाहट से निकली मधयमा वाणी और मेंढकों की अनिरकत अवयकत वाणी-परा, पशयनती, मधयमा और वैखरी के अनिरकत रूप की परतीक हैं और इस वरषा की ऋत में इन सब का समनवय हो जाता है। अतः सवाधयाय की परवृतति को परतयेक आरय को बढ़ाना चाहिं-यही यहां पर मेरा निवेदन है।

 

यजञोपवीत और शरावणी
           

शरावणी के साथ नये यजञोपवीत के धारण और पराने के छोड़ने की भी परथा जड़ी हई है। इस का भी परधान कारण है। गृहयसूतà