Shrimati Sita Ashtami
फालगन बदि अषटमी
नारी है निकेत सब, दिवय ललित à¤à¤¾à¤µà¥‹à¤‚ का,
परतिमा मधरिमा की, परेम की परम धार।
उस की नारि जाति को, सीता जनकननदिनी,
कर गई पवितर थी, शठनिज जनम धार ।। १ ।।
उसी के सचरितर को, सवजीवन में धार के,
à¤à¤¾à¤°à¤¤ की à¤à¤¾à¤®à¤¿à¤¨à¤¿à¤¯à¥‹ ! निज जनम लो सधार।
सीता की पणय समृति में, सीताषटमी का परव है,
जो है पविवरताओं के, पातिवरतय का आधार ।। २ ।।
-पं. सिदधगोपाल कावयतीरथ कविरतन
सतरी जाति को विधाता ने ललित, दिवय, मृद और मधर गणों की राशि बनाया है। इन गणों का जैसा विकास नारी जाति में होता है, वैसा अनयतर कहीं दृषटिगोचर नहीं होता। नारी दया का अवतार, परेम की परम धारा, सौनदरय की परतिमा, मधरता की मूरति है। वह संसार का मूल है और गृहसथाशरम की जीवनशकति है। इसलि देववाणी-साहितय में नारी को देवी शबद से समादृत किया गया है और दया आदि मन के जितने कोमल और उचच à¤à¤¾à¤µ है, उन का शबदमातर में सतरीलिंग से ही निरदेश किया गया है। नारी को नर की खान कहा गया है। संसारियों का संसार, गृहसथियों की गृहसथता, सकरमियों के सकरम और धरमातमाओं के सब धरमों का सतरोत नारी है।
जिस नारी जाति की इतनी महिमा है, सà¤à¤¯ समूहों में जिस का इतना समादर है, उस में आदि सृषटि से समसत संसार में सरवोतकृषट और आदरश रूप में, किस देवी ने इस वसनधरा को अपने जनम से पवितर किया था यह परशन मानव-समाज की शिकषा के लि इतिहास की दृषटि से अतयावशयक और महततवपूरण है। इस के उततर क लि सारे संसार के पराचीन और अरवाचीन सतरी-रतनों के चार चरितरों की तलनातमक दृषटि से जांच पड़ताल की जाये तो सरवसममति से क ही नाम निरधारित होगा और वह ततवजञानी-शिरोमणि मिथिलाधिपति राजरषि विदेह जनक की आतमजा और सूरयकल कमलदिवाकर मरयादापरषोततम महाराज रामचनदर की धरमपतनी सती-शिरोमणि शरी सीता जी का परातः समरणीय पवितर नाम है। à¤à¥‚तकाल में तो शरी सीता की समता करने वाली कोई नारी दिखाई ही नहीं देती, किनत à¤à¤µà¤¿à¤·à¤¯ à¤à¥€ उन की समककषा को उतपनन कर सकेगा, इस में सनदेह है। बड़े-बड़े करानतिदरशी महाकवियों की परतिà¤à¤¾ खोज करते करते थक गई, किनत उस को शरी सीता जी की उपमा न मिल सकी। इसलि आदि कवि वालमीकि ने शरी सीता जी को अनपमा कहा है। कया सरलता में, कया सशीलता में, कया सचचरितरता में और कया पतिपरायणता में, सà¤à¥€ विषयों में सीता देवी अदवितीय थीं।
‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ इस लोकोकति के अनसार सीतादेवी बालयावसथा से ही होनहार थीं। यह उन के जनमजनमानतरों के सकृतयों का फल और सौà¤à¤¾à¤—य था कि उन का महाराज जनक जैसे अधयातमतततववेतता तथा धरमातमा पिता के यहां जनम हआ था। महाराज जनक अपने समय में अधयातमविदया में से निषणात माने जाते थे कि बरहमजिजञास ऋषिमनियों की मणडली जञानचरचा के लि उन को सदैव घेरे रहती थी ओर वे निषकाम à¤à¤¾à¤µ से राजय वयवहार चलाते ह à¤à¥€ जल में उतपनन कमलपतर के समान संसार से पृथक रहते थे। से सरवगणसमपनन राजरषि जनक की आतमजा शरी सीता सरवगणों की खान कयों न होती!
यदयपि शरीवालमीकिरामायण और पराणों में शरी सीता जी को जानकी, वैदेही, जनकातमजा और जनकसूता पदों से जनक की पतरी बतलाते ह à¤à¥€ उन को अयोनिजा कहा गया है और उन के सीता नाम को लेकर उन की उतपतति के विषय में क यह अलौकिक कथा वरणन की गई है कि यतः वे सीता यजञ में हल चलाते ह महाराजा जनक को पृथिवी में सीता (हल के खूड़) में मिली थीं इसलि उन का नाम ‘सीता’ पड़ा था। परनत इस कथा का तिहासिक और मानवीय दृषटि से तततवानसनधान किया जाये तो उस में तथयांश इतना ही परतीत होता है कि महाराज जनक के सीतायजञ के अवसर पर ही उन का जनम होने के कारण उन का नाम ‘सीता’ रखा गया था। संसार में और à¤à¥€ से अनेक उदाहरण उपलबध होते हैं, जिन में किनहीं विशेष अवसरों पर उतपनन बालकों के नाम उन अवसरों के नाम पर ही रखे गये हैं। इस शताबदि के काशी के परसिदध जयोतिषी महामहोपाधयाय शरी पं. सधाकर दविवेदी के ‘सधाकर’ नामकरण का यह कारण था कि उन के जनम के समय पतरवाहक (पोसटमैन) काशी से परकाशित ‘सधाकर’ समाचार पतर उन के पितृतव के पास लाया था, उनहोंने उसी नवपरापत पतर के नाम पर अपने नवजात à¤à¤°à¤¾à¤¤à¥ƒà¤œ का नाम ‘सधाकर’ रख दिया था।
शरीमति सीता जी के ‘सीता’ नामकरण का हेत à¤à¥€ उनकी सीतायजञ के अवसर पर हई उतपतति ही हो सकती है, कयोंकि सीतायजञ के अवसर पर उन का आविरà¤à¤¾à¤µ तो सरववादिसममत ही हैं। केवल à¤à¥‚मि में उन का परादरà¤à¤¾à¤µ विवादासपद है। à¤à¥‚मि में किसी मानवीय शरीर का परादरà¤à¤¾à¤µ सषटिकरम के सरवथा विरदध और इतिहास के नितानत विपरीत है।
बालयकाल को अतिकरमण करके कैशोरावसथा में परदापण करने पर शरी सीता जी के सदगणों का सौरठदशों दिशाओं में वयापत होने लगा। राजरषि जनक जहां अपनी पतरी की कीरति सनकर बहत परसनन होते थे, वहां अब उन के मन में इस चिनता का à¤à¥€ आविरà¤à¤¾à¤µ होने लगा कि सीता अपनी शारीरिक और मानसिक समपतति-अपने सौनदरय, बल, विदया और बदधि के अनरूप ही किसी योगय परष शरेषठकी सहधरमिणी तथा धरमपतनी बने। सौà¤à¤¾à¤—य से उनहें राम जैसा नररतन मिल गया। शरी सीता जी अपने पति के साथ अयोधया जाकर आननदपूरवक रहने लगीं।
वृदध होने पर महाराज दशरथ ने अपने जयेषठऔर सरवगणशरेषठपतर शरी रामचनदर जी को यवराज-पद पर अà¤à¤¿à¤·à¤¿à¤•à¤¤ करना चाहा, किनत क कटिला दासी मनथरा के बहकाने से उन की छोटी रानी कैकेयी के दरागरहवश उन को शरी रामचनदर जी को राजय न देकर चैदह वरष का वनवास देना पड़ा। शरी रामचनदर पिता की आजञा को शिरोधारय करके अपने अनज लकषमण सहित वन को सिधारे। पतिपरायणा सतीशिरोमणि शरी सीता जी ने à¤à¥€ पराणपरिय पति के पदों का अनसरण किया और राजधानी अयोधया के राजपरसादों के राजेचितत सखैशवरयà¤à¥‹à¤— की अपेकषा पति की सेवा में रहकर वनसथली के कठोर à¤à¥‚मिशयन और कनद, मूल तथा फल के à¤à¥‹à¤œà¤¨ को अधिक आननदपरद माना। वे वहां अनसूया आदि ऋषि-पतनियों के सतसंग में पराकृतिक शोà¤à¤¾ का निरीकषण करते ह पति की सेवा में रत रहती थीं।
राकषसराज रावण सीता की सनदरता से आकृषट होकर संनयासी के रूप में शरी राम और लकषमण की अनपसथिति में पनचवटी से शरी सीता को बलात हर ले गया और उन को लंका ले जाकर अपनी अशोक-वाटिका में बनदी बनाकर रखा। शरी रामचनदर जी लकषमण सहित चिनतातर होकर शरी सीता को वन-वन में खोजते फिरे और उनहोंने पमपाधिपति वानर-वंशी सगरीव से मितरता करके उस के सेनापति अतल बलधारी हनमान के दवारा शरी सीता का लंका में पता पाकर सगरीव की वानर सेना के साथ लंका पर आकरमण किया और अपनी रणपटता और शसतरविदया-कौशल से वानर कहलाने वाले वनवासियों को सशिकषित सेना में परिणत करके उन से रावण की यदधाà¤à¤¯à¤¾à¤¸à¥€ राकषससेना को पराजित किया तथा मायावी रावण का उस के कटिल कटमब सहित वध करके अपनी पराणपरियः धरमपतनी को उसके बनधन से छड़ाया।
दषट रावण के पंजे में फंस कर सीता ने अपने धरम की रकषा जिस आतमिक बल से की, उस का उदाहरण अनयतर मिलना असमà¤à¤µ है। रावण ने उन को अनेक परलोà¤à¤¨ दिये और नाना परकार की यातनां देकर बहत कछ डराया-धमकाया, परनत वे अपने धरम से लेशमातर à¤à¥€ विचलित न हई। ‘धरमो रकषति रकषितः’ के अनसार अनत में धरम ने ही उन की रकषा की और ‘पदमपतरमिवामà¤à¤¸à¤¾’ के समान वे पापपंक के सपरश से विशदध रहीं। लंका का राजय रावण के अनज विà¤à¥€à¤·à¤£ को देकर और शरी सीता को लेकर अपने वनवास की 14 वरष की अवधि बीतने पर शरी रामचनदर लकषमण सहित अयोधया लौटे और अपने पैतृक राजसिंहासन पर आरूढ़ होकर उततर कौशल की परजा का पालन करने लगे। उन के राजय में परजा सी सखी थी कि अब उनके उततम राजय को ‘रामराजय’ कह कर पकारा जाता है। परजानरनजन ही वे अपना करतवय समते थे।
à¤à¤—वती सीतादेवी की पावनी जीवनी परतयेक à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ कल-ललना के लि आदरश सवरूप है। वह आजकल के à¤à¥‹à¤—वासनालोलपता और अधिकारपरियता के परगाढ़ अनधकार के पराकृतिक यग में जयोति के सतमठका काम देती है। वैदिक धरम में पति और à¤à¤¾à¤°à¤¯à¤¾ का समबनध केवल शारीरिक ही नहीं है। दैहिक सखोपà¤à¥‹à¤— ही इस का उददेशय नहीं है, किनत यह समबनध दो आतमाओं का शाशवतिक समबनध होता है, जो जनम जनमानतर तक अविचछिनन रहता है। इसलि वैदिक आदरशानसार पति वा पतनी के मरण पर पनरविवाह निषिदध है। आरय शासतरों में विवाह का परयोजन रतिसख नहीं बतलाया गया, किनत धरमपालन के लि ही वह समबनध किया जाता है और इसीलि पतनी को धरमपतनी कहते हैं, जिस में शबदशासतर के नियम से ‘अशवघासादिवत तादरथयसमास’ होता है, जिस का अरथ यही है, जो धरम पालने के लि पतनी बनाई जाये वह ‘धरमपतनी’ कहलाती है। सती शिरोमणि सीता का जीवन इस आदरश का जवलनत उदाहरण है।