Vasant Panchami
माघ शदधि पंचमी
कूलन में केलिन में कछारन में कनजन में।
कयारिन में कलित कलीन किलकंत है।।
कहै पदमाकर कर परागन में पानहूं में।
पानन में पीक में पलाशन पगंत है।।
दवार में दिशान में दनी में देश-देश में।
देखो दीप दीपन में दीपन दिगंत है।।
वीथिन में बरज में नवेलिन में वेलिन में।
बतन में बागन में बगरो वसनत हैं।।
-कवि पदमाकर
है ऋतराज का आगमन, जल-थल में छवि आई है।
परकृति देवी नवल रंग में रंगमनच पर आई है।।
विरस दरमों ने नवल दलों से निज शरृंगार बनाया है।
मानो शरी वसनत सवागत हित रचि वितान बनाया है।।
कसमà¤à¤¾à¤° का हार पहन कर मतवाले से ूम रहे।
कà¤à¥€-कà¤à¥€ वे अनरागवश अवनि चरण को चूम रहे।।
सरल रसाल साल में मनजल पीतमनजरी आई है।
सरसों समन पीत à¤à¥‚तल में पीतामबर छवि-छाई है।।
चितर विचितर वेश à¤à¥‚षा में चितरित मन हो जाता है।
नीरस हृदयों में सहसा ही, परेम बीज बो जाता है।।
शरी ऋतराज राज की लकषमी नये ढंग से आती है।
‘शरीहरि’ विशव-रंगशाला में नये रंग दिखलाती है।।
-कविशिरोमणि शरीहरि
शीत के आतंक का अपसार हो चला है, जराजीरण खलवाट यषटिधारी शिशिर का बहिषकार करते ह सरस वसनत ने वन और उपवन में ही नहीं, किनत वसधा à¤à¤° में सरवतर अपने आगमन की घोषणा कर दी है। सारी परकृति ने वसनती बाना पहन लिया है। खेतों में सरसों फूल रही है। जहां तक दृषटि दौड़ाइये, मानो पीतता सरिता की तरंगावली नेतरों का आतिथय करती है, वनों में टेसू (पलाश-पषपों) की सरवतरवयापिनी रकताà¤à¤¾ दरशनीय है। उपवन गेंदे और गलदाऊदी की पषपावली के पीतपरिधान धारण किये ह हैं, नगर और गराम में बाल-बचचे वसनती वसतरों से सजे है। मनद सगनध मलय समीर सरवतर बह रहा है। ऋतराज वसनत के इस उदार अवसर पर इतने पषप खिलते हैं, कि वायदेव को उन की गनध के à¤à¤¾à¤° से शनैः शनै सरकना पड़ता है। इस समय उपवनों में चारों ओर पषपों ही पषपों की शोà¤à¤¾ नयनों को आननद देती है। जिधर देखिये उधर ही रंग-बिरंगे फूल खिल रहे है। कहीं गलाब अपनी बहार दिखा रहा है तो कहीं गले अबबास के पंचरंगे फूल आंखो को लà¤à¤¾ रहे हैं। कहीं सूरयपरिया सूरयमखी सूरय को निहार रही है, कहीं शवेत कनद की कलियां दांत दिखला कर हंस रही हैं। गलेलाल अपने गलाबी पषपों के ओठों से मसकरा रहा है। कमल अपने पषप नेतरों से परकृति-सौनदरय को निहार रहा है। आमरपषपों (बौरों) की छटा ही कछ निराली है। उन पर à¤à¥Œà¤‚रो की गूंज और शाखाओं पर बैठी कोयल की कूक उस की शोà¤à¤¾ को दविगणित कर देती है। आम के बौरों में कछ सी मदमाती सगनध होती है कि वह मन को बलात अपनी ओर खींच कर मोद से à¤à¤° देती है। आयरवेद के सिदधांतानसार इस ऋत में सथावरों (वनसपतियों) में नवीन रस का संचार ऊपर की ओर को होता है। जंगमों के शरीरो में à¤à¥€ नवीन रधिर का परादरà¤à¤¾à¤µ होता है, जो उन में उमंग और उललास को बढ़ाता है। वसनत ऋत तो चैतर और वैशाख में होती हैं। ‘मधमाधवौ वसनतः सयात’ यह वचन इसका पोषक परमाण है। किनत परकृति देवी का यह समारोह ऋतराज वसनत के लि 40 दिन पूरव से ही परारमठहो जाता हैं जब परकृति देवी ही सरवतोà¤à¤¾à¤µà¥‡à¤¨ ऋतनायक के सवागत में तनमय है तो उसी के पनचà¤à¥‚तों से बना हआ रसिक शिरोमणि मनषय रसवनत वसनत के शà¤à¤¾à¤—मन से किस परकार बहिरमख रह सकता है। फिर वनोपवनविहारी à¤à¤¾à¤°à¤¤à¤µà¤¾à¤¸à¥€ तो पराकृतिक-शोà¤à¤¾ निरीकषण तथा परकृति के सवर में सवर मिलाने में और पराचीन काल से परवीण रहे हैं। वे इस अवसर पर आननद अनà¤à¤µ से कैसे वंचित रह सकत थे। परचीन à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯à¥‹à¤‚ ने इस उदार ऋत का आननद मनाने के लि वसनत पंचमी के परव की रचना की।
यह समय ही कछ सा मोदपरद और मादक होता है कि वायमणडल मद और मोद से à¤à¤° जाता है, दिशां कलकणठा कोकिला आदि विविध विहंगमों के मधर आलाप से परतिधवनित हो उठती है। कया पश, कया पकषी कया मनज सब का हृदय आहाद से उदवेलित होने लगता है, मनों में नयी-नयी उमंगे उठने लगती हैं। à¤à¤¾à¤°à¤¤ के अननदाता किसान अपने अहरनिश के परिशरम को आसनन आषाढ़ी (साढ़ी) उपज ससय के रूप में सफल देखकर फूले नही समाते। उन के गेहू और जौ के खेतों की नवाविरà¤à¥‚त बालों से यकत लहलहाती हरियाली उन की आंखों को तरावट और चितत को अपूरव आननद देती है, कृषि के सब कारय इस समय समापत हो जाते है। अतः कृषि-परधान à¤à¤¾à¤°à¤¤ को इस समय आमोद-परमोद और राग-रंग की सूती है। माघ सदि वसनत पंचमी के दिन से उस का परारमठहोता है। à¤à¤¾à¤°à¤¤ के शवरय-शिखर पर आरूढ़ता और विलास-समपननता के समय पौरणिक काल में इस अवसर पर मदन-महोतसव मनाया जाता था। संसकृत साहितयजञ जानते है कि à¤à¤¾à¤°à¤¤à¤µà¤¾à¤¸à¥€ सदा से कविता के वातावरण में विहार करते रहे हैं और कविता परतिकषण कलपना के वाहन पर विचरती रहती है। इस लि शायद ही कोई à¤à¤¾à¤µ बचा हो, जिस का कालपनिक चितर à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ कवियों ने न रचा हो।
आरय परषों को उचित है कि वे कामदाहक महापरषों के उततम उदाहरण को सदा अपने सामने रखते ह मरयादातिकरमणकारी कामादि विकारों को किसी ऋत में à¤à¥€ अपने पास तक न फटकने दें और ऋतराज वसनत की शोà¤à¤¾ को शदधà¤à¤¾à¤µ से निखरते ह और परम परठकी रमय रचना का गणानवाद करते ह वसनत पंचमी के ऋतूतसव को पवितर रूप में मनाकर उस का आननद उठायें। वसनतोतसव पर à¤à¤¾à¤°à¤¤ में संगीत का विशेष समारोह होता है, किनत जनता में शरृंगारिक गानों का ही अधिक परचार है। संगीत से बढ़कर मन और आतमा का आहनादक दूसरा पदारथ नहीं है। सदà¤à¤¾à¤µà¤¸à¤®à¤¨à¤µà¤¿à¤¤ संगीत से आतमा का अतीव उतकरष होता है। आरयसमाज ने à¤à¤µà¤¯à¤à¤¾à¤µ à¤à¤°à¤¿à¤¤ गानों का परचार तो किया है, किनत उस के गाने परायः संगीत विदया के विरदध बेसरे और कावय रस से शूनय पाये जाते हैं। आरय महाशयों को इस दोष का परिमारजन शीघर करना चाहि। वसनत आदि उतसव संगीत और कावयकला की उननति के लि उपयकत और उततम अवसर हो सकते हैं। इन परवों पर आरय जनता में कवितामय सनदर संगीत की परिपाटी परचलित करनी चाहि। संगीत का सधार à¤à¥€ सधारकशिरोमणि आरयसमाज से ही समà¤à¤µ है।