Vasantik Nav Shasyeshti

Holi
24 Mar 2024
Falgun Purnima, 2080
: 24 Mar 2024
: Gazetted

फालगन शदि पूरणिमा
 

दरमिल सवैया
           


 

ऋतराज वसनत विराज रहा, मनभावन है छवि छाज रहा।
            बन-बागन में कसमावलि की, सखदा सषमा वह साज रहा।।
            यव गेहूं चना सरसों अलसी, सब ही पक आज अनाज रहा।
            यह देख मनोहर दृशय सभी, अति हरषित होय समाज रहा।।
            उपलकषय इसे करके जग में, शभ होलक-उतसव हैं करते।
            अधपकक, यवाहति दे करके, सब वयोम सगनध से हैं भरते।।
            सब सजजन-वृनद अतः जग में, नव ससय-सयजञ इस कहते ।
            कल-वैर-विसार सनेह-सने, हलसे सब आपस में मिलते ।।
            चर पान इलायचि भेंट करें, निज मितर-समादर हैं करते।
            हृदयंगम गायन-वादन से, मद से सब हैं मन को भरते।।
                                                -पं. सिदधगोपाल कविरतन कावयतीरथ कृत
 

ऋतराज वसनत का आविरभाव हो चका है। लगभग सवा मास वयतीत हआ है, जब उस की अगवानी का उतसव वसनत-पंचमी परव मनाया गया था तब से अब परकृति की छटा में बहत परिवरतन आ गया है। उस का रूप दिनों दिन रमय से रमयतार होता जा रहा है। आज वसनत शरी अपने यौवन पर है। वनोपवन और नगर-गराम में सरवतर उस का नयनाभिराम वरविकास मन को मोद से भर रहा है, चराचर जगत ने इसी आननद से परफललित होकर नवीन बाना बदल लिया है। वनोपवनों में नवविकसित कसमों की बहार है तो खेतों में परिपकव यव और गोधूम के शसयों की सनहरी सरिता तंरगित हो रही है। पशओं ने नवीन रोमावली के चितर-विचितर अभिनव परिधान धारण किये हैं। पकषिसमूह ने भी पराने पर ाड़कर नूतन पकषावली का परिचछद पहना है। उन की चार चहचहाहट में सनदर सरसता का संचार हो गया है। कलकणठा कोकिला की कूक, मयूर की केका, तरूंण तिततिरि (तीतर) का तारसवर तथा कलकूजन, कपोत का कलरव वायमणडल को मधरिमा से परिपूरण कर रहा है। मलयादरि का धीर सगनद समीर अठखेलियां करता चल रहा है। से उदार और मनोहर ससमय में आषाढ़ी शसय के शभागमन की शभाशा भारत की परधान जनता और सब के अननदाता कृषक-समूह के मन में मोद भर देती है।
            आषाढ़ी शसय (साढ़ी) की फसल भारत की सब फसलों में सरवशरेषठ हैं। वह सब फसलों की सिरमौर गिनी जाती है। भारत में अकाल पड़ने पर साढ़ी बहत ही कम मारी जाती है, वह केवल भूखे भारत का ही पेट नहीं भरती, परतयत पूरव समय में सभी धनधानय समृदध योरप आदि विदेशों को भी करोड़ों मन अनन पहचाती थी। से जीवनाधार सरवपालक शसय की अवाई पर कृषकों का मन, जिनहोंने आषाढ़ से लेकर वरषा भर कड़ी जताई करके अपने खेतों की तैयारी की थी, आननद से कयों न बललियों उछलने लगें।
            इस अवसर पर उन का आननदोतसव और रंगरेलियां मनाना सवाभाविक ही है। यह भारतवरष की ही विशेषता नहीं, परतयत अनय देशों में भी नवशसय के परवेश पर परव और उतसव मनाये जाते हैं। ऋकषराज रूस के हिमाचछादित देश में फसल काटने पर कृषक अपने इषट मितरों को पकवानन से परितृपत करके उतसव मनाते है। भवन-भासकर की भूमि जापान में भी, जब धानों की फसल कटती है, तब धान की सरा और चावलों की रोटियों के सहभोज होते हैं और गानवादयपूरवक परव मनाया जाता है। योरप में सेनट वेलनटाइन का दिन और इंगलैणड में मे पोल के उतसव गरामीण कृषक जनता में ही जागृत हैं। उनकी सीधी सादी सरल जीवन-परणाली में ही उनका आदर होता है। विविध परकार के उदयोग-धनधों में फंसे ह जीवन की घड़दौड़ में रात दिन वयसत, सवारथानध नागरिकों में इस परकार के उतसवों के लि उतसाह ही उतपनन नहीं होता।
            किनत भारतीय उतसव केवल आमोद-परमोद का ही साधन नहीं है। धरमपरायण भारतीयों की परतयेक बात में धारमिकता और वैजञानिकता की पट लगी हई है। जिस परकार वरषा ऋत चातरमासय (चैमासे) के पशचात विकृत गृहों के परिमारजन (लिपाई-पताई) के लि तथा शारद नव ऋत के परवेश पर, नवाविरभूत रोगों के परतीकारारथ होम-यजञ दवारा वायमणडल की संशदधि, नवपरविषट शीतकाल के निवारक परिधानों के परिवरतन और नवपरापत शरावणी शसय के नवीन अनन, धानों की लाजाओं के होमने के लि शारदीय नवशसयेषटि (दीपावली) का परव नियत है। उसी परकार शीतकालीन वरषा (महासा) के अननतर-महासा भी क परकार का चैमासा ही समा जाता है। आवासों की परिषकृति के लि तथा वसनत की नई ऋत बदलने पर असवासथय के परतिरोधारथ  à¤¹à¤µà¤¨ से वातावरण के संसकारारथ, नवागत गरीषमोचित हलके-फलके शवेत वसतरों के बदलने और नई आई हई  à¤†à¤·à¤¾à¤¢à¤¼à¥€ फसल के यवों (जौओं) से देवयजञ करने के लि आषाढ़ी नवससयेषटि अभिपरेत है। (इसके परमाण शरावणी नवाननेषटि (दीपावली) के परकरण में देखि।)

            संसकृत में अगनि में भूने ह अरदध-पकव अनन को ‘होलक’ कहते हैं। इस विषय में निमनलिखित परमाण दरषटवय हैं-

                        तृणागनिभृषटारदधपकवशमीधानयं होलकः।

                        होला इति हिनदी भाषा।                               (शबदकलपदरमकोशः)

                        अरदधपकवशमीधानयैसतृणभृषटैशच होलकः।

                        होलकोऽलपानिलो, मेदःकफदोषशरमापहः।।

                        भवेदथो होलको यसय स तततदगणों भवेत।     (भावपरकाश)

अरथ-तिनकों की अगनि में भूने ह अधपके शमीधानय (फली वाले अनन) को ‘होलक’ (होला) कहते हैं। होला सवलपवात है और भेद (चरबी), कफ और शरम (थकान) के दोषों को शमन करता है। जिस-जिस अनन का होला होता है, उस में उसी अनन का गण होता है। सा होता है कि आदि में तृणागनि में भूने आषाढ़ी के परतयेक अनन के लि ‘होलक’ शबद परयकत होता था, किनत पीछे से वह शमीधानयों (फलीयकत) के होलों के लि ही रूढ़ हो गया था। हिनदी का परचलित ‘होला’ शबद इसी का अपभरंश है। आषाढ़ी नवाननेषटि में नवागत अधपके यवों के होम के कारण उस को ‘होलकोतसव’ कहते थे। उस में होलक या होले हतशेष रूप से भकषण किये जाते थे और उन के सततू (सकत) का परयोग भी इसी परव में परारमभ होता था। सततू गरीषम का विशेष आहार है और उस के पिततादि दोषों को शमन करता है। जैसा कि कई अनय परवों के वरणन में बतलाया जा चका है। भारतीयों के विशेष-विशेष परव विशेष-विशेष आहारों के परयोगों के आरमभ के लि निरदिषट हैं उसी परकार यह होलकोतसव होलों और उनके बने ह सततओं के उपयोग के लि उददिषट है।

वैदिक धरमावलमबियों में पराचीन काल से यह परथा चली आती है कि नवीन वसतओं को देवों को समरपण कि बिना अपने उपयोग में नहीं लाया जाता है। जिस परकार मानव देवों में बराहमण सरवशरेषठ हैं, उसी परकार भौतिक देवों में अगनि सरवपरधान है। वह विदयत रूप से बरहमाणड में वयापक है और भूतल पर साधारण अनल, जल में बड़वानल, तेज में परभानल, वाय में पराणापानानल और सरव पराणियों में वैशवानर के रूप में वास करता है। शरीमदभगवदगीता में शरीकृषण जी कहते है-

                        अहं वैषवानरो भूतवा पराणिनां देहमाशरितः।

                        पराणापानसमायकतः पचामयननं चतरविधम।।

अरथ-मैं पराणियों में वैशवानर रूप होकर देह के आशरम रहता हूं और पराणापान वाय के साथ मिलकर चार परकार के (भकषय, भोजय, लेहय और चोषय) अनन को पकाता हू।

            देवयजञ का परधान साधन भौतिक अगनि ही है, कयोंकि वह सब देवों का दूत है। वेद में उस को अनेक वार ‘देवदूत’ कहा गया है। वही सब देवों को होमे ह दरवय पहंचाता है। इसलि नवागत अनन सरवपरथम अगनि के ही अरपण कि जाते हैं और तदननतर मानवदेव बराहमणों को भेंट करके अपने उपयोग में ला जाते हैं। शरति कहती है-‘केवलाघो भवति केवलादी।

            अरथ-अकेला खाने वाला केवल पाप खाने वाला है।

            मन महाराज इसी का समरथन इस परकार करते हैं-


 

                        अघं च केवलं भडकते यः पचतयातमकारणात।

                        यजञशिषटाशिनं हयेतत सतामननं विधीयते।।

अरथ-जो परष केवल अपने लि भोजन पकाता है, वह पाप भकषण करता है। यजञशेष वा हतशेष ही सजजनों का (भोकतवय) अनन विधान किया गया है।

इसलि अब तक भी जन साधारण में यह परथा परचलित है कि जब तक नवीन अननों वा फलों को पूजा के परयोग में न लाया जाये, तब तक उन को लोकभाषा में ‘अछूत वा छूते’ कहते हैं।

तदनसार ही आषाढ़ी की नवीन फसल आने पर नये यवों को होमने के लि इस अवसर पर पराचीन काल में नवससयेषटि, होलकेषटि वा होलकोतसव होता था।

जहां परतयेक गृह में पृथक-पृथक नवससयेषटि की जाती थी, वहां परतयेक गराम में सामूहिक रूप से सममिलित नवससयेषटि भी होती थी और उस में सब लोग अपने-अपने घरों से यवादि आहवनीय पदारथ लाकर चढ़ाते थे। वरतमान समय में काषठ और कणडों (उपलों) के ढेरों के रूप में होली जलाने की परथा पराचीन सामूहिक नवससयेषटियों का विकृत रूप है। उस में आहवनीय सामगरी का हवन तो कटिल काल की गति में लपत हो गया है और केवल काषठ तथा अमेधय दरवयों का जलाना और यवों की बालों का भूनना रूढि़ वा लकीर के रूप में रह गया है।

इस आषाढ़ी नवाननेषटि का उपरयकत देवयजञ दवारा देवपूजन विदवत-समादर, वाय-संशोधन, वाय-संशोधन, गृह-परिमारजन तथा नवीन वसतर परिवरतन धारमिक और वैजञानिक सवरूप है।

इस अवसर पर गान-वादय दवारा आमोद और हरषोललास तथा इषटमितरों सपरेम सममेलन उस के आनषगिंक उपयोगी लौकिक अंग है। जो समय हमारे लि वरष भर तक अनन परदान करते रहने की वयवसथा करता है, उस को मंगलमूल वा सौभागयसूचक सम कर उस पर परमेशवर के गणानवादपूरवक आननदोतसव मनाना सवाभाविक ही है। परसपर परेम परिवरधन का भी यह बड़ा उपयकत अवसर है।

इस परव पर सब लोग ऊंच-नीच, छटाई-बड़ाई का विचार छोड़ कर सवचछ हृदय से आपस में मिलते हैं। यदि किसी कारणवश वरष में वैर विरोध ने मनों को अपना आवास बना लिया है तो उन को अगनिदेव की साकषी में भसमसात कर लिया जाता है। अतः होली परेमपरसार का परव है। यह दो फटे हृदयों को मिलाती है, कता का पाठ पढ़ाती है, यह वरष भर परेम में तनमय हो जाने को सब से उततम साधक है। आज घर-घर मेल मिलाप है, घर-घर वरष भर के वैरी क-दूसरे को गले लगा कर फिर भाई-भाई बन जाते हैं। आज बालवृदध वनिताओं की उछाह भरी उमंगे कलह-कालषय और वैमनसय के विकारों का विलोप कर देती हैं। होली के शभ अवसर पर भारत में हरष की कललोल-मालां उठती हैं। यह परव परतयेक हिनदू के घर भारतवरष में इस सिरे से उस सिरे तक समान रूप में मनाया जाता है। होली का पवितर परव वसततः आननद और उललास का महोतसव था, किनत काल की कराल गति से आजकल उस में भी कदाचार और अभदर दृशय परवेश पा गये हैं। आजकल जिस परकार से हमारे हिनदू भाई होली मनाते हैं, उस को देखकर कया कोई भी बदधिमान, धारमिक परष यह मान सकता है कि यह होली जिस को देखकर शिकषित और सजजन विदेशी लोग हमें नीमवहशी (अरदध बरबर) का खिताब देते हैं। हमारे उनहीं पूरव परषों की चलाई हई हो सकती है कि जिन को विदया और बदधि को देखकर सारा संसार विसमित है और जिन के रचित गरनथों और शिलप-निरमाणों को देखकर कया सवदेशी और कया विदेशी सभी सहसतर मख से उन की उचच सभयता की परशंसा करते हैं। कया आजकल होली में गाली-गलौज या बकवास और अशलील शबदों का उचचारण हमारे उन ऋषियों और बराहमणों का चलाया हो सकता है जिन  à¤•à¥‡ सिदधांत में मन में भी से अशलील और जघनय विचारों का सोचना तक पाप समा जाता है? कया आजकल की होली में बड़े भाइयों की सतरियों वा भाभियों से होली खेलना वा दूसरे शबदों में कचेषटां करना उन आरय परषों का चलाया हो सकता है, जो भाभियों को माता के समान समते थे और उन को परणाम करते ह भी उन के चरणों को छोड़ कर उन के अनय अंगों पर दृषटिपात तक करना पाप समते थे। देखिये, जिस समय शरी सीता को रावण चरा  à¤²à¥‡ गया था, तब वे विलाप करती हई अपने आभूषण और चीर मारग में फेंकती गई थीं। ये आभूषण क पोटली में बनधे ह सगरीव के महामनतरी हनमान ने उठाये थे। वालमीमिक रामायण, अरणयकाणड सरग ५४, शलोक ५९३-५९४ के अनसार ‘क परवत पर बैठे ह पांच वानरों को देख सीता ने अपना रेशमी दपटटा और मांगलिक आभूषण उतार दपटटे में बांध उन वानरों के मधय इस आशा से फेंक दिये कि समभव है, ये राम को मेरा वृततानत बता सकें। जलदी के कारण रावण सीता के इस कारय को देख नहीं सका।’

किषकिनधा काणड सरग ६, शलोक से १२५ से १३२ तक सगरीव दवारा दपटटे में बंधे ह आभूषणों का जब वरणन किया गया और राम के आगरह पर सगरीव उन आभूषणों को दिखाने  à¤•à¥‡ लि राम के पास लाया, तब शोकसंतपत, रघकलनायक, मरयादापरषोततम शरी रामचनदर जी अपने परिय भराता शरी लकषमण जी से पूछते हैं कि भराता, देखों तो ते चीर और आभूषण तमहारी भाभी के ही हैं? शरी लकषमण यति के उततर को आदि कवि शरी वालमीकि ऋषि यों वरणन करते हैं-

                        नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कणडले।

                        नूपरे त विजानामि नितयं पादाभिवनदनात।।

                                                -वा. रामायण कि. काणड, सरग ६, शलोक १३४।

आजकल भाभियों से होली खेलने के रसिया कया उनहीं मरयादा परषोततम राम और लकषमण यपि के कल से होने का अभिमान कर सकते हैं कि जिन का कथन ऊपर उदधृत किया गया है? फिर आजकल होली में जो आरय सनतान मदय, भांग और दूधिया पीकर उनमतत होते हैं (दूध जैसे अमृत समान पदारथ को भांग जैसे मादक और बदधिनाशक दरवय में मिलाकर अनरथ करते हैं) बदधि जैसे उततम और धरम, अरथ, काम और मोकष के देने वाले पदारथ का नाश करके ईशवर के अपराधी बनते हैं। उन से बढ़ कर और कौन पाप का भागी बन सकता है? बदधि सा बहमूलय और शरेषठ पदारथ इस संसार में कोई दूसरा नहीं है। यह ईशवर की देनों में से सब से उततम देन है। बिना बदधि के लौकिक और पारमारथिक कोई भी काम सिदध नहीं हो सकता। इसलि बदधि की शदधि के लि वैदिकधरमी मातर नितय गायतरी में ईशवर से परारथना करते हैं कि ‘धियों यो नः परचोदयात।’ अरथात वह हमारी बदधि को परेरित करे। उस बदधि को होली में नशा पीकर भरषट और मलीन करने वाले कया कभी ऋषि-मनियों के मानने वाले और धरमानयायी हो सकते हैं जिन के अगरगनता महरषि मन ने अपने धरमशासतर में मदयपों के लि यह परायशचित बतलाया है कि-

                        सरां पीतवा दविजो मोहादगनिवरणां सरां पिबेत।

                        तथा स काये निरदगधे मचयते किलविषातततः।।

            अरथ-मदय पीने वाला पापी अगनि से तपाई हई मदय पीकर सवशरीर को नषट कर देवे।

जिस मदयपान के लि कठिन पराचशचित मन भगवान ने रकखा है और उस की महापातकों मेà