सांसारिक जीवन के सख व मोकष का परमख आधार

सवासथय मानव शरीर की वह अवसथा है जिसमें वह निरोग, बलवान व कारय करने में औसत से अधिक कारय करने की कषमता से यकत हो। शरीर के अननमय होने से इसका आधार भोजन है। शरीर में रहने वाली जीवातमा क चेतन ततव है जो ईशवरीय जञान वेद के अनसार ईशवर व जीवातमा के सवरूप, इनके गण, करम व सवभाव को जानकर जीवातमा के दवारा ईशवर की उपासना वं धयान से सवसथ व बलवान बनती है। सवासथय सख का आधार होता है। हमारे जीवन की सभी करियायें भी सख की परापति के लि ही की जाती हैं। सवासथय अचछा, निरोग व बलवान हो, इसके लि सवसथ मन व सवसथ मन के लि सवसथ शरीर वं इसमे क जञान से यकत आतमा की आवशयकता होती है। जञानी आतमा की आवशयकता इस लि होती है कि वह मन को नियंतरण में रखकर उसे सतपरामरश दे सके। जीवातमा व ईशवर का साकषातकार करने वाले क योगी वा वेद मनीषि ने क महतवपूरण शलोक दिया है जिसमें वह कहते हैं कि जल से शरीर शदध व सवसथ होता है, मन सतय से शदध होता है, विदया व तप से मनषय की आतमा और बदधि जञान से शदध या पवितर होती है। मन सतय से शदध होता है। इसका अरथ है कि हमें जीवन को सखमय बनाने व जीवन के लकषय वं साधय की परापति के लि मन को सतय से यकत करना होगा। मन को सतय से कैसे यकत किया जाता है, यह भी जान लेते हैं। सतय किसी पदारथ के सतय व वासतविक गणों तथा उसके सवभाव, चरितर व वयवहार के जञान को कह सकते हैं। किसी पदारथ में जो गण हैं व उसका जो सवरूप है, उसके विपरीत यदि हमारी मानयता या जञान है तो वह असतय कहलाता है। वेद, ईशवर, आतमा व योग का जञान तथा अनभव रखने वाले परसिदध विदवान महरषि दयाननद सरसवती का कहना है कि जो पदारथ जैसा है उसको वैसा ही जानना व मानना तथा जैसा वह नहीं है, उसको भी जानना कि वह वैसा नहीं है, सतय कहलाता है। सतय को जानने में ही मन की सारथकता होती है। मन सतय से यकत होकर तथा बदधि के संकलप-विकलप व इसके सतयासतय के विवेचन से तीनों अरथात मन, बदधि व आतमा सतय से संयकत होकर जीवन को सतय मारग पर चलाते हैं जिससे जीवन का कलयाण, उननति व अनेक लाभों में से सवासथय भी अनकूल, दृढ़ व बलवान होता है और मनषय सचचा सख परापत करता है। सा मनषय जो भी भोजन करेगा वह सा होगा जो शरीर को लाभ पहंचायें और जिससे सवासथय अचछा रहे।

 

हमें यह भी जानना है कि सवासथय का आधार मखयतः भोजन है। शासतर कहते हैं कि आहार, निदरा, भय व बरहमचरय, यह चार सवासथय के आधार हैं। यदयपि आहार में हमारे सभी जञानी बनध मखयतः भोजन को ही सममिलित करते हैं परनत शदध वाय में शवांस लेना व हमारे भोजन के घटकों का उतपादन कृतरिम रसायनिक खाद के परयोग से न होकर पराकृतिक खाद के परयोग से होना चाहिये जिससे भोजन के पदारथ हमारे सवासथय के लि शकतिपरद व सखदायी हों। भोजन के साथ-साथ हम जानते हैं कि अचछे सवासथय के लि समय पर सोना और समय पर जागना भी आवशयक है। सोने का आदरश समय रातरि 10: 00 बजे व उठने का परातः 4:00 बजे है। परातः 4: 00 बजे उठकर कया करें, इसके लि पहला कारय तो सृषटिकरता ईशवर का चिनतन करना व उसके पशचात शदध वाय का सेवन करना और इसके लि 1 से 2 घंटे तक भरमण करना है। भरमण के बाद वयायाम करने से सवासथय को विशेष लाभ होता है।  छोटे बचचे को हम रोते ह देखते हैं। वह अपने हाथ व पैरों को टकता व पटकता रहता है। यह सब कया है? यह उसका अपना वयायाम है जो उसे ईशवर या परकृति ने सीखा कर भेजा है। हममें पलक पकने या शवांस लेने की परकरिया सवचालित रूप से कारय करती है। पराणायाम से शवसन परणाली को शकति व बल मिलता है। इन दोनों से हमारी आंखे व शवसन परणाली समसत आय परयनत सवसथ रहती है। यदयपि यह पलक पकने की करिया व शवसन परणाली सवचालित है परनत किसी भी करिया का क या अधिक कारण हआ करते हैं। यहां हम अपनी आतमा को इसका कारण मान लेते हैं। सभी शरीरों में यह करिया सामानय रूप से चल रही है। अजञानी से अजञानी आतमा में भी सा ही होता है इससे लगता है कि आतमा इसे न चलाकर, आतमा से इतर सतता जिसे आधयातमिक लोग ईशवर कहते हैं, उससे संचालित है, यह सवीकार करना पड़ता है। यह क सिदधानत है कि जिस कारय का कारण कोई भी मनषय सिदध न हो, उसे ईशवर से संचालित मान लेना चाहिये। इससे हमें अनेक परकार से लाभ ही होता है, हानि कछ नहीं होती। कछ बनध ईशवर के असतितव को नहीं मानते हैं। इस विषय में यह तथय है कि यदि ईशवर न हो तो भी ईशवर को मान लेने पर उसको मानने वालों की कछ हानि नहीं होती परनत यदि ईशवर है और वह उसे नहीं मानते तो उनकी हानि ही हानि है, कयोंकि वह उसे जानने व उससे परापत होने वाले लाभों से वंचित रह जाते हैं और अपने असतय वयवहार के कारण दणड भी पाते हैं। हमने सवासथय के आधार के रूप में भोजन या आहार की बात की व उसके बाद निदरा की बाद की। सवासथय का क आधार भय भी कहा जाता है। भयभीत वयकति का सवासथय ठीक नहीं रहता। वह भयातर रहता है जिससे वह असवसथ रहता है। भयभीत रहना भी सवासथय के लि अहितकर है। असवसथ वयकति के उपचार में इस तथय का भी धयान रखना होता है कि कहीं वह किसी से भयातर तो नहीं है। उसके भय के कारण को दूर करने से वह सवसथ हो जाता है। आधयातमिक जञान से सबसे बड़ा लाभ भय का निवारण होता है। अधयातम के अधययन से हमें पता चलता है कि परतयेक पराणी की मृतय अवशय होनी है जो उसके पूरव-जनम के परारबध या भागय तथा वरतमान जीवन के आनेक कारकों पर आधारित है। वरतमान जनम में परूषारथ से आय को बढ़ाया जा सकता है। इस जनम में सभी पराणियों की मृतय होना निशचित है और मृतय के बाद पनरजनम भी सनिशचित है जो कि हमारे परारबध, भागय व करमों के आधार पर होगा। इस पनरजनम के सिदधानत, इसकी वासतविकता व जञान से अचछे करमों या कारयों को करने की परेरणा मिलती है और मृतय का भय दूर हो जाता है। इसके पशचात बरहमचरय या संयम का सथान है। बरहमचरय क परकार से संयम ही है। संसार में असंखय अचछे व बरे विषय हैं। यदि हम अनचित विषयों का धयान, चिनतन व मनन करते हैं तो इससे सवासथय के लाभ के सथान पर हानि होती है। हमें अपने मन को नियंतरित करके उसे सतय व जञान की परापति में लगाना चाहिये और ईशवर, आतमा व परकृति के सतय जञान को परापत करना चाहिये। सा हो जाने पर हम विजञान व उससे जड़े अनेकानेक विषयों का अधययन कर सकते हैं। विजञान, चिकितसा, वाणिजय, अरथशासतर व इंजीनियरिंग आदि अनेक विषय हैं जिनकी हमें, हमारे समाज व देश को आवशयकता है। इसको वयापक रूप से जानना व उसका वयकतिगत, सामाजिक व देश के लि उपयोग करने के लि बरहमचरययकत जीवन सहायक होता है। जीवन को बरहमचरय पूरवक वयतीत करने से सवासथय अचछा रहता है और यह भी सवासथय का परमख आधार है।

 

सवासथय के दो और भी आधार है जिनमें से क आसन व दूसरा पराणायाम है। योग दरशन में योग के आठ अंगों में से दो अंग हैं, आसन और पराणायाम। आसन का समावेश वयायाम में हो जाता है। इसका उललेख हम कर चकें हैं। हमें पराणायाम को भी जानना है। पराणायाम भी पराणों का वयायाम ही है। पराणों को दृण व अधिक उपयोगी बनाने के लि पराणायाम किया जाता है।  पराणायाम लमबा शवांस लेकर अधिक शदध वाय व आकसीजन को अधिक से अधिक मातरा में अपने फेफड़ों में पहंचाना और अधिक से अधिक फेफड़ों की दूषित वाय कारबन डाई आकसाइड गैस को लमबे बाहरी शवांस दवारा बाहर निकालना होता है। इससे हृदय के रकत की शदधि सामानय गति से शवांस लेने से अधिक मातरा में होती है और अनेक रोगों से मकति मिलती है। जब हम पराणायाम कर रहे होते हैं तो इससे हमारे शरीर के छोटे-बड़े सभी अंग व परतयंग परभावित होते हैं जिससे उनका वयायाम होने में उनकी शकति व कारयकषमता बढ़ती है व वह पषट होते हैं। आरोगय की परापति के साथ सभी अंग अधिक समय के लि कारय योगय हो जाते हैं जिससे हमारी आय में भी वृदधि होती है। अतः सभी को अपनी आय व शारीरिक सथिति के अनसार योग के आसन व पराणायाम को करना चाहिये।

 

यहां हम सवासथय के तीन आधारों ऋतभक, हितभक व मितभक की भी चरचा करना चाहते हैं। ऋतभक ऋत के अनसार भोजन के पदारथों के सेवन को कहते हैं। मखयतः हमारे देश में शीत, गरीषम तथा वरषा ऋतयें होती हैं। इन ऋतओं के अनसार व अनकूल ही हमें भोजन करना चाहिये। अपने शरीर की परकृति व सथिति के अनसार भोजन हितभक कहा जाता है तथा भूख से कछ कम भोजन करना मितभक कहा जाता है। भोजन निशचित समय पर हो तो लाभदायक होता है। असमय के भोजन का सवासथय पर परतिकूल परभाव पड़ता है। सवासथय के परति सजग वयकतियों को इन सभी नियमों को भी धयान में रखना चाहिये। लेख के आरमभ में हमने मन को सतय से यकत या सतयाचरण में परवृतत करने की बात कही है। मनषय का मन ही सख व दख का कारण हआ करता है। शासतर में इसे इस रूप में कहा गया है कि मनषय का मन ही बनधन अरथात दख का कारण तथा बनधनों से मकति, सख अरथात मोकष का कारण हआ करती है। सखों की परापति वं भोग अचछे सवासथय से ही समभव है। ईशवर के सतय सवरूप का धयान व चिनतन करते ह उसकी परारथना व उपासना करना भी शरीर को सवसथ व दीघारय बनाने में उपयोगी रहता है।  अतः सवासथय की परापति के लि शदध, पवितर व सवासथयवरधक भोजन करना चाहिये और संयमपूरवक जीवन वयतीत करते ह अपने शरीर को सवसथ बनाकर सखी रहना चाहिये।  लेख को विराम देने से पूरव हम यह कहना चाहते हैं कि हमें अपना यह शरीर ईशवर व माता-पिता से मिलता है, यह हमारे अपने अधिकार में नहीं है, परनत सवासथय के नियमों का पालन कर अपने शरीर को सवसथ व बलिषठ बनाना हमारे अपने हाथों में हैं। यदि हम सा नहीं करेगें तो रोगी हो सकते हैं जिसका परिणाम दख व मृतय के रूप में सामने आता है और हमारा जीवन कलेशों से भर जाता है। कलेश की सथिति का निवारण रोग को आने ही न देना है व इसके लि हमें सवासथय के नियमों का पालन करना है।

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