शरेषठमानव जीवन का आधार - वैदिक संसकार
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Manmohan Kumar AryaDate
29-Oct-2014Category
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SaurabhUpload Date
30-Oct-2014Download PDF
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संसकार की चरचा तो सà¤à¥€ करते व सनते हैं परनत संसकार का शबदारथ व à¤à¤¾à¤µà¤¾à¤°à¤¥ कया है? संसकार किसी अपूरण संसकार रहित या संसकारहीन वसत या मनषय को संसकारित कर उसका इचछित लाठलेने के लि गणवरधन या अधिकतम मूलयवरधन value addition करना है। यह गणवरधन व मूलयवरधन à¤à¥Œà¤¤à¤¿à¤• वसतओं का किया जाये तो वैलयू डीसन कहलाता है और यदि मनषय का करते हैं तो इसे ही संसकार कह कर पकारते हैं।
मनषय जनम के समय शिश शारीरिक बल व जञान से रहित होता है। पहला कारय तो अचछी परकार से उसका पालन.पोषण दवारा शारीरिक उननति करना होता है। इसे शिश का शारीरिक संसकार कह सकते हें। यह कारय माता के दवारा मखय रूप से होता है जिसमें पिता व परिवार के अनय लोग à¤à¥€ सहायक होते हैं। बचचा माता का दगध पीकर कछ माह पशचात सवासथयय व पषटिवरधक à¤à¥‹à¤œà¤¨ कर तथा वयायाम आदि के दवारा शारीरिक विकास व वृदधि को परापत होता है। मनषय की पहली उननति शरीर की उननति होती है और इसके लि जो कछ à¤à¥€ किया जाता है वह à¤à¥€ संसकार ही हैं। शारीरिक उननति के पशचात सनतान के लि सशिकषा की आवशयकता है। शिकषा रहित सनतान शूदर पश वा जञानहीन कहलाती है और शिकषा परापत कर उसकी संजञा दविज अरथात जञानवान होती है और वह अपने परारबध व इस जनम के आचारयों दवारा परदतत जञान से बराहमण कषतरिय या वैशय बनकर देश व समाज की उननति में योगदान करता है। इस परकार से संसकार की यह परिà¤à¤¾à¤·à¤¾ सामने आती है कि जीवन की उननति जो कि धरम अरथ काम व मोकष की परापति का साधन है के लि जो.जो शिकषा वेदाधययन आदि कारय व करियाकलाप किये जाते हैं वह संसकार कहलाते हैं।
चार वेद ऋगवेद यजरवेद सामवेद और अथरववेद ईशवरीय जञान हैं जो कि सृषटि के आरमठमें चार ऋषियों करमशः अगनि वाय आदितय व अंगिरा को वैदिक à¤à¤¾à¤·à¤¾ संसकृत के जञान सहित दिये गये थे। इन वेदों में ईशवर ने वह जञान मनषयों तक पहंचाया जो आज 1,96,08,53,114 वरष बाद à¤à¥€ सलठहै। यह वेदों का जञान ही मनषय की समगर उननति का आधार है। इस जञान को माता.पिता और आचारयों से पढ़कर मनषय की समगर शारीरिक, बौदधिक, आतमिक और सामाजिक उननति होती है। उदाहरण के रूप में हम आदि परूष बरहमाजी, महरषि मन पतजंलि कपिल कणाद गौतम वयास जैमिनी राम कृषण चाणकय दयाननद आदि तिहासिक महापरूषों को ले सकते हैं जिनकी शारीरिक बौदधिक और आतमिक उननति का आधार वेद था। वेदाधययन यदयपि वेदारमठऔर उपनयन इन दो संसकारों के अनतरगत आता है परनत इन दोनों संसकारों का महतव अनयतम है। नितय आरष गरनथों के सवाधयाय का à¤à¥€ जीवन में महतवपूरण सथान है। वेदों के आधार पर जिन सोलह संसकारों का विधान है वह करमशः गरà¤à¤¾à¤§à¤¾à¤¨, पंसवन, सीमनतोनयन, जातकरम, नामकरण, निषकरमण, अननपराशन, चूड़ाकरम, करणवेध, उपनयन, वेदारमà¤, समावरतन, विवाह/ गृहसथ, वानपरसथ, संनयास व अनतयेषटि संसकार हैं। इन संसकारों को करने से मनषय की आतमा सà¤à¥‚षित, संसकारित वं जञानवान होती है और जीवन के चार परूषारथों धरम, अरथ, काम व मोकष को परापत कर सकती है। इनके साथ नितय परति पंचमहायजञों यथा सनधयोपासना, दैनिक अगनिहोतर, पितृयजञ, अतिथियजञ वं बलिवैशवदेव यजञ का करना अनिवारय है। इन संसकारों को विसतार से जानने के लि महरषि दयाननद सरसवती कृत संसकार विधि गरनथ और इसके अनेक वयाखया गरनथ जिनमें संसकार à¤à¤¾à¤¸à¤•à¤° और संसकार चनदरिका आदि मखय हैं का अधययन लाà¤à¤ªà¤°à¤¦ होता है।
वैदिक धरम और संसकृति में वेदों व वैदिक साहितय का अधययन कि ह यवक व यवति का विवाह योगय सनतान और देश के शरेषठनागरिकों की उतपतति के लि होता है। संसार के शिकषित और अशिकषित सà¤à¥€ माता.पिता अपनी सनतानों को सवसथ दीरघाय, बलवान, ईशवरà¤à¤•à¤¤, धरमातमा, मातृ. पितृ. आचारय. à¤à¤•à¤¤, विदयावान, सदाचारी, तेजसवी, यशसवी, वरचसवी, सखी, समृदध, दानी, देशà¤à¤•à¤¤ आदि बनाना चाहते हैं। इसकी पूरति केवल वैदिक धरम के जञान व तदनसार आचरण से ही समà¤à¤µ है। आज की सकूली शिकषा में वह सà¤à¥€ गण क साथ मिलना असमà¤à¤µ है जिससे से योगय देशà¤à¤•à¤¤ नागरिक उतपनन हो सकें। केवल वैदिक शिकषा से ही इन सब गणों का क वयकति में होना समà¤à¤µ है जिसके लि अनकल सामाजिक वातावरण à¤à¥€ आवशयक है। हमारे सà¤à¥€ वैदिक कालीन और कलियग में महरषि दयाननद इनहीं वैदिक संसकारों में दीकषित महातमा थे। वेदों के जञान के कारण ही हमारे देश में ऋषि, महरषि, योगी, सनत आदि ह हैं। अनय देशों में यह सब गण किसी क वयकति में पूरी सृषटि के इतिहास में नहीं देखे गये हैं। हमारे पौराणिक मितर व बनध वेदों के अधययन व आचरण को तयाग कर पराण सममत मूरतिपूजा, अवतारवाद, फलित जयोतिष, छआछूत, जनम पर आधारित जातिवाद जैसे अवैदिक व अनचित कृतयों को करने में समय लगाते हैं। इन अवैदिक कृतयों का जीवन से निराकरण केवल पकषपातरहित होकर सतयारथ परकाश आदि गरनथों का अधययन कर सदविवेक से कारय करने पर ही हो सकता है।
सन 1947 में à¤à¤¾à¤°à¤¤ विदेशी दासता से सवतनतर हआ। आवशयकता थी कि देश में सरवतर, आधयातमिक जीवन में सतय की परतिषठा हो परनत इसके विपरीत धरमनिरपेकषता का सिदधानत बना जहां ईशवर के सतय जञान वेदों को परतिषठा नहीं मिली। सà¤à¥€ मतों की पूजा पदधतियां अलग.अलग हैं। इनहें संसकारों व कसंसकारों का मिशरण कहा जा सकता है। अलग.अलग उपासना पदधतियों से परिणाम à¤à¥€ निशचित रूप से अलग.अलग ही होंगे। सà¤à¥€ उपासना पदधतियों से धरम, अरथ, काम व मोकष की परापति होना असमà¤à¤µ है। वह केवल वैदिक उपासना पदधति से ही समà¤à¤µ है। अतः संसकारों को केनदर में रखते ह अपने जीवन को सतय को गरहण करने वाला असतय को निरनतर व हर कषण छोड़ने के लि ततपर रहने वाला, सबसे परीतिपूरवक, धरमानसार, यथायोगय वयवहार करने वाला बनाना होगा। यह संसकारों से ही समà¤à¤µ है और यह संसकार मरयादा परूषोततम राम व योगशवर कृषण सहित हमारे पराचीन ऋषि.मनियों वं महरषि दयाननद सरसवती में रहें हैं जिनका हमें अनकरण करना है। इन महापरूषों के जीवन चरित का अधययन कर उनके गणों को आतमसात कर ससंसकारित हआ जा सकता है।
निषकरष यह है कि संसकाररहित मनषय पश के समान होता है। अतः परतयेक मनषय को संसकार विधि का गहन अधययन कर संसकारों की विधि और उनके महतव को जानना व समना चाहिये। वेदाधययन कर वेदानसार आचरण करना चाहिये। शारीरिक उननति पर धयान देना चाहिये। शदध शाकाहारी व पषटिकारक à¤à¥‹à¤œà¤¨ करते ह संयमपूरवक जीवन वयतीत करना चाहिये।
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