हम संसार में देख रहे हैं कि अनेक मत.मतानतर हैं। सभी के अपने-अपने ईषट देव हैं। कोई उसे ईशवर के रूप में मानता है, कोई कहता है कि वह गॉड है और कछ ने उसका नाम खदा रखा हआ है। जिस परकार भिनन.भिनन भाषाओं में क ही संजञा. माता के लि मां, अममा, माता मदर, मममी या अममी आदि नाम हैं उसी परकार से यह ईशवर के अनय.अनय भाषाओं व उपासना पदधतियों में ईशवर के नाम हैं। कया यह ईशवर व व खदा अलग.अलग सततायें हैं, कछ से मत भी हैं जो ईशवर के असतितव को सवीकार ही नहीं करते तथा अपने मत के संसथापकों को ही महान आतमा मानते हैं जिनकी सथिति परकारानतर से ईशवर के ही समान व ईशवर की सथानापनन है। जहां तक सभी मतों का परशन है, हमने अनभव किया है कि सभी मतों के सामानय अनयायी अपनी बदधि का कम ही परयोग करते हैं। उनहें जो भी मत के परवतरकों व उसके नेताओं दवारा कहा या बताया जाता है या जो उनहें परमपरा से परापत हो रहा है, उस पर आंखें बनद कर विशवास कर लेते हैं। उनकी वह आदत, कारय व वयवहार उनके अपने जीवन के लि हानिकर ही सिदध होती है वं इसके साथ यह देश व समाज के लि भी अहित कर सिदध होती है। यहां यदि विचार करें तो यह जञात होता है कि ईशवर ने सभी मनषयों को बदधि ततव लगभग समान रूप से दिया है। इस बदधि ततव का परयोग व उपयोग बहत कम लोग ही करना जानते हैं। आजकल बहत से लोग से हैं जो विदया का अधययन धनोपारजन के लि करते हैं। उनके जीवन का क ही उददेशय है कि अधिक से अधिक धन का उपारजन करना और उससे अपने व अपने परिवार के लि सख व सविधा की वसतओं को उपलबध करना तथा उन सबका जी भर कर उपयोग करना। यह मानसिकता व सोच हमें बहत ही घातक अनभव होती है। कमातर धन की ही परापति में मनषय अपने जीवन के उददेशय को भूलकर उससे इतनी दूर चला जाता कि जहां से वह कभी लौटता नहीं है और उसका यह जीवन क परकार से नषट परायः हो जाता है।

हम यह मानते हैं कि धन की जीवन में अतयनत आवशयकता है परनत जिस परकार से हर चीज की सीमा होती है उसी परकार से धन की भी क सीमा है। उस सीमा से अधिक धन धन न होकर हमारे पतन व नाश का कारण बन सकता है व बनता है। इस धन को अरथ नहीं अपित अनरथ कहा जाता है। जिस परकार से भूख से अधिक भोजन करने पर उसका पाचन के यनतरों पर कपरभाव पड़ता है उसी परकार से आवशयकता से कहीं अधिक धन का उपारजन व संचय जीवन व उसके उददेशय की परापति पर कपरभाव डालता है। हमारे ऋषि.मनि.योगी साकषातकृत धरमा होते थे जिनहें अपने जञान व विवेक से किसी भी करिया के परिणाम का पूरा जञान होता था। उनहोंने क सूतर दिया कि जो वयकति धन व काम की तृषणा से यकत है उसे धरम का जञान नहीं होता। धरम का समबनध हमारे दैनिक करतवयों वं आचार विचार व वयवहार से होता है। दैनिक करतवय कया हैं यह आज के जञानी व विदवानों तक को पता नहीं है। इन दैनिक करतवयों में परातः उठकर शारीरिक शदधि करके ईशवर के गणों व सवरूप का धयान कर निज भाषा वं वेद मनतरों से अरथ सहित सरववयापाक व निराकार ईशवर परारथना की जाती है। उसका धनयवाद किया जाता है जिस परकार से हम अपने सांसारिक जीवन में किसी से कृतजञ होने पर उसका धनयवाद करते हैं। ईशवर ने भी हमें यह संसार बना कर दिया है। हमें माता.पिता.आचारय.भाई.बहिन.संबंधी.मितर.भौतिक समपतति.हमारा शरीर.सवासथय आदि न जाने कया.कया दिया है। इस कारण वह हम सब के धनयवाद का पातर है। इनहीं सब बातों पर विचार व चिनतन करना ईशवर के गणों व उपकारों का चिनतन व धयान करना ही ईशवर की उपासना कहलाती है। इससे मनषय को अनेक लाभ होते हैं। इससे निराभिमानता का गण परापत होता है। निराभिमानता से मनषय अनेक पापों से बच जाता है। दूसरा करतवय यजञ व अगनिहोतर का करना है। तीसरा करतवय माता.पिता आदि के परति अपने करतवयों का पालन है जिससे माता.पिता पूरण सनतषट हों। इसे माता.पिता की पूजा भी कह सकते हैं। इसके बाद अतिथि यजञ का सथान आता है जिसमें विदवानों व आचारयों का पूजन अरथात उनका सममान व उनकी आवशयकता की वसतं उनहें देकर उनको सनतषट करना होता हैं। अनतिम मखय दैनिक करतवय बलिवैशवदेव यजञ है जिसमें मनषयेतर सभी पराणियों मखयतः पशओं व कीट.पतंगों को भोजन कराना होता है।

हम बात कर रहे थे कि अनेकानेक मतों में अपने अपने गरू व अपने.अपने भगवान हैं। सबकी पूजा पदधतियां अलग.अलग हैं। कया वासतव में ईशवर भी अलग.अलग हैं व क हैघ यदि क है तो फिर सब मिलकर उसके क सतय सवरूप का निरधारण करके समान रूप से क ही तरह से पूजा या उपासना कयों नहीं करते इसका उततर ढूढंना ही इस लेख का उददेशय है। ईशवर केवल क ही है पहले इस पर विचार करते हैं। संसार में ईशवर वसततः क ही है। क से अधिक यदि ईशवर होते तो न तो यह संसार बन सकता था और न ही चल सकता है। हम क उदाहरण के लि क बड़े संयकत परिवार पर विचार कर सकते हैं। यदि परिवार का क मखया न हो समाज का क परतिनिधि न हो परानत का क मखय मंतरी न हो और देश का क परधान न होकर अनेक परधान मंतरी हों तो कया देश कभी चल सकता है कदापि नहीं। आज हमारे देश में जितने राजनैतिक दल हैं यदि सभी दलों के या क से अधिक दलों के दो.चार या छः परधान मंतरी बना दें तो देश की जो हालत होगी वही क से अधिक ईशवर के होने पर इस संसार या बरहमाणड की होने का अनमान आसानी से कर सकते हैं। हम पौराणिक भगवानों को देखते हैं कि पराणों की कथाओं में उनमें परसपर कता न होकर कईयों में इस बात का विवाद हो जाता है कि कौन छोटा है और कौन बड़ा है। वैषणव सवयं को शैवों से शरेषठ मानते हैं और शैव सवयं को वैषणवों से शरेषठ। अतः हमें हमारे परशन का उततर मिल गया है कि संसार व बरहमाणड केवल क सरववयापक चेतन सतता ईशवर से चल सकता है उनके सतताओं से कदापि नहीं। संसार का रचयिता संचालक पालक व परलयकरता ईशवर केवल क ही सतता है जो पूरण धारमिक और सब पराणियों का सचचा हितैषी है और वह माता.पिता.सचचे आचारय के समान सबके कलयाण की भावना से कारय करता है।

अब उपासना पदधतियों की चरचा करते हैं। उपासना का अरथ होता है पास बैठना। जैसे विदयालय में क ककषा में विदयारथी अगल.बगल में बैठते हैं। जहां गरू सामने बैठ या खड़ा होकर उपदेश दे रहा होता है तो वह गरू.शिषय क दूसरे की उपासना कर रहे होते हैं। ईशवर सरववयापक होने से सबके पास पहले से ही उपसथित व मौजूद है। उसे मिलने या परापत करने के लि कहीं आना.जाना नहीं है। हमारा मन व धयान सांसारिक वसतओं में लगा रहता है जिसका अरथ है कि हम उन.उन सांसारिक वसतओं की उपासना कर रहे होते हैं। यदि हम सभी सांसारिक विषयों से अपना मन व धयान हटाकर ईशवर के गणों व उसके सवरूप में सथिर कर लेते हैं तो यह ईशवर की उपासना होती है। इसके अलावा ईशवर की किसी परकार से उपासना हो नहीं सकती है। योग दरशन में महरषि पतंजलि जी ने भी ईशवर की उपासना का यही तरीका व विधि बताई है। धयान अरथात ईशवर के सवरूप वा उसके गणों का विचार व चिनतन धयान करलाता है जो लगातार करते रहने से समाधि परापत कराता है। समाधि में ईशवर के वासतविक सवरूप व परायः सभी मखय गणों का साकषात व निभररानत जञान होता है। नानयः पनथा विदयते अयनायः अनय दूसरा कोई मारग या उपासना पदधति इस लकषय को परापत करा ही नही सकती। यही मनषय जीवन का और किसी जीवातमा का परम लकषय या उददेशय है। अतः ईशवर की पूजा उपासना सतति व परारथना आदि सभी की विधि केवल यही है और इसी परकार से उपासना करनी चाहिये व की जा सकती है। बाहयाचार आदि जो सभी मतों में दिखाई देता है वह पूरण उपासना न होकर आधी.अधूरी व आंशिक उपासना ही कह सकते हैं जिससे परिणाम भी आधे व अधूरे ही परापत होते हैं। अतः सभी मनषयों को चाहें वह किसी भी मत धरम, समपरदाय या मजहब के ही कयों न हों सतयारथ परकाश आरयाभिविनय वं वेदादि सतय शासतरों का अधययन सवाधयाय, विचार व चिनतन करना चाहिये। यही ईशवर की सही उपासना पदधति है और इसी से ईशवर की परापति अरथात साकषातकार होगा। ईशवर केवल क ही है और नाना भाषाओं में उसके नाना व भिनन परकार के नाम यथा ईशवर, राम, कृषण, खदा व गौड आदि शबद उसी के लि परयोग किये जाते हैं। ईशवर का मखय नाम केवल क है और वह है “ओ३म” जिसमें ईशवर के सब गणों का समावेश है। इस ओ३म नाम की तलना में ईशवर का अनय कोई नाम इसके समान, इससे अधिक व परयोजन को परापत नहीं कर सकता। “ओ३म” का अरथ पूरवक धयान व चिनतन करने से भी उपासना होती है और इससे समयानतर पर मन की शानति सहित अनेकानेक लाभ होते हैं। रोगों का शमन व सवासथय लाभ भी होता है। इसी के साथ हम इस चरचा को विराम देते हैं। पाठकों की निषपकष परतिकरियाओं का सदैव सवागत है।

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