मनषय क सामाजिक पराणी है। उसके चारों ओर अपने निकट समबनधी और पड़ोसियों के साथ मि़तर व पश.पकषी आदि का समदाय दृषटिगोचर होता है। समाज में सभी मनषयों की शारीरिक, सामाजिक, शैकषिक सवासथय की सथिति व आरथिक सथिति समान नहीं होती है। इनमें अनतर हआ करता है। यह समभव है कि क वयकति आरथिक दृषटि से समपनन होने के साथ शारीरिक दृषटि से भी सवसथ हो  à¤¶à¤¿à¤•à¤·à¤¿à¤¤ व परतिषठित भी हो परनत सा भी समभव है कि क वयकति निरधन अशिकषित व असवसथ या रोगी हो। सी सथिति में समपनन वयकति का कया यह करतवय नहीं बनता कि वह समाज के निरबल लोगों की आरथिक सहायता व सेवा करे, सवसथ यवा व धनी मानी लोगों का करतवय है कि वह समाज के असवसथ व निरधन लोगों को उनकी आवशयकता के अनरूप यथासमभव सेवा व आरथिक सहायता करें जिससे कि वह अपना जीवन सामानय रूप से वयतीत कर सकें और समाज के निरबल वरग की भी शारीरिक बौदधिक व आतमिक उननति हो सके।

आईये कछ चरचा धरम की करते हैं। धरम की अनेक परिभाषायें की जाती हैं जिनमें से क है कि सभी मनषयों अपने जीवन में शभ गणों को धारण करना चाहिये। यह शभ गण व करम कया हो सकते हैं, वयकतिगत गणों में तो मनषय को अपने सवासथय को अनकरणीय बनाने के लि आहार, निदरा, संयम व वयायाम आदि के नियमों का पालन करना चाहिये। विदयालयी व वयवसायिक शिकषा व जञान के साथ सामाजिक जञान व आधयातमिक जञान में भी पूरणता परापत करने का परयास करना चाहिये। शभ गणों की चरचा आने पर पहला गण तो यह है कि उसे सतय व धरम का आचरण करना चाहिये। पराचीन वैदिक शिकषा में जब बरहमचारी शिकषा समापत कर गरूकल से लौटता था तो दीकषानत भाषण में उसका आचारय जो शिकषायें देता था उनमें पहली शिकषा “ सतयं वद धरम चर तथा सवाधयायां मा परमदः” होती थी। आज भी इन शिकषाओं का महतव निरविवाद है।“ सतयं वद में हम कह सकते हैं कि मनषय के मन मसतिषक व आतमा में जो जञान है उसी के अनरूप उसे वयवहार करना चाहिये अरथात मन वचन व करम में कता होनी चाहिये। सा नहीं होना चाहिये कि उसका आचरण उसके मन व आतमा में निहित विचारों के परतिकूल हो। मन के जञान के अनसार ही वचन को बोलना व करमों का करना वासतविक वा यथारथ धरम है। नियमित सदगरनथों का सवाधयाय करने से मनषय के बौदधिक जञान में वृदधि होने के साथ उसकी आतमोननति भी होती है।

अतः सवाधयाय में परमाद करना अपनी आतमा व जीवन की उननति में अवरोध लाना ही कहा जा सकता है। अब सेवा को धरम से जोड़ कर देखते हैं। मनसमृति में धरम की चरचा करते ह कहा गया है कि दूसरों के परति वह आचरण कदापि नहीं करना चाहिये जो आचरण हम दूसरे वयकतियों से अपने लि पसनद न करते हों। जिस परकार से हमें दूसरो का ूठ बोलना पसनद नहीं है तो हमें भी किसी से असतय का वयवहार नहीं करना चाहिये। इससे यह निषकरष निकलता है कि सतय बोलना धरम है। इसी परकार से यदि हम कषट या मसीबत में फंस जायें तो हम दूसरों से सहायता की अपेकषा करते हैं। इसी परकार से हमारा भी करतवय है कि यदि हम कहीं किसी को कषट या मसीबत में देखें तो उसकी मदद करें। यही सिदधानत सेवा पर भी लागू होता है। दूसरों की मदद करना ही सेवा है। यदि समाज से दूसरों की मदद करने की भावना का विसतार व परचार.परसार हो तो फिर किसी को चिनता करने की आवशयकता नहीं है। हम दूसरों की सेवा व मदद करेंगे तो आवशयकता या आपातकाल में दूसरे भी हमारी मदद अवशय करेंगे। अतः सभी मनषयों को दूसरों की सेवा का वरत धारण करना चाहिये इससे हमारा समाज सामाजिक दृषटि से उननत व सखी होगा।

यजञ सनातन वैदिक धरम संसकृति का परमख अंग है। यजञ देव पूजा संगतिकरण तथा दान का समनवित रूप होता है। देव पूजा में ईशवर सहित सभी 33 जड़ व चेतन देवों की पूजा व सतकार सममिलित है। संगतिकरण का तातपरय है कि वेद आदि शासतरों के विदवानों व जञानियों का संगतिकरण कर उनके जञान व अनभव को परापत करना। यह संगतिकरण विदवानों के उपदेशों के शरवण वारतालाप उनसे पढ़कर शंका समाधान आदि के दवारा होता है। यह भी क परकार से विदवानों व जञानियों की सेवा ही होता है। हम उनकी सेवा करेंगे उनहें आदर व सममान देंगे उनके आशरमों व निवासों पर समितपाणि होकर जायेंगे तभी उनसे जञान मिलना समभव है। हमने सवयं भी संगतिकरण से लाभ उठाया है। सतसंगों में जाने और विदवानों के उपदेश सनने में हमारी परवृतति रही है। जिस विदवान ने जिस गरनथ पर आधारित परवचन किया या अपने उपदेश में जिस शासतर या गरनथ विशेष का उललेख किया हमने उस गरनथ को परापत कर उसे पढ़ा जिससे हमें उस गरनथ की विषय.वसत व उसके विसतार व उसमें निहित व उदघोषित तथयों का जञान हो गया। इस परकार सवाधयाय करते.करते हमारी आज की सथिति आ गई और हम विगत 25 वरषों से महापरूषों के जीवनों व आधयातमिक विषयों पर लेख आदि लिख लेते हैं। सवाधयाय का हमारा वरत चल रहा है।

सवाधयाय भी क परकार से गरनथ व पसतक के लेखक के साथ संगति ही होता है। गरनथ को पढ़कर लेखक के परति हमारे अनदर जो आदर के भाव उतपनन होते हैं उससे उस विदवान की अपरतयकष रूप से सेवा हो जाती है। यदि सवाधयाय की परवृतति न हो तो किसी लेखक दवारा लिखी गई पसतक अनावशयक सिदध हो जाती है और उसने अपने जीवन के अनभव से पसतक के विषय में जो जञान व अनभव परसतत किये हैं उससे भावी पीढ़ी लाभानवित नही हो पाती। अतः जीवित विदवानों का परतयकष रूप से संगतिकरण कर उनकी मौखिक व दान आदि से सेवा करना तथा दिवंगत विदवानों के गरनथों को पढ़ना भी क परकार से सेवा का उदाहरण होने के साथ जीवन में अनेक लाभ परदान करता है।

 

हम क छोटा सा सेवा व सहायता का उदाहरण परसतत कर रहे थे। क बार वैदिक धरम के विशव विखयात परचारक महरषि दयाननद किसी सथान पर विराजमान थे। उनहोंने देखा कि सामने सड़क पर क ोटा गाड़़ी सामान से लदी हई चढ़ाई पर जा रही है। भार अधिक होने के कारण ोटा परयास कर भी आगे नहीं बढ़ पा रहा है। उसका मालिक सोटे से बार.बार उसे पीट रहा है परनत वह ोटा परयतन करने पर भी आगे बढ़ने में असमरथ है। दयावान महरषि दयाननद अपने सथान से उठे और उस गाड़ी के पीछे जाकर उसे आगे बढ़ाने में अपने बल का सहयोग किया जिससे वह गाड़ी आसानी से चढ़ाई पार कर गई। सा करने पर गाड़ी का मालिक बहत ही कृतजञता अनभव कर हाथ जोड़कर दयाननद जी का धनयवाद कर रहा था तो उनहोंने कहा कि इसकी कोई आवशयकता नहीं है। यह तो उनका करतवय व धरम था। यह उदाहरण यदयपि छोटा है परनत इससे बहत कछ सीखा जा सकता है। से उदाहरण हमें यदा.कदा देखने को मिलते रहते हैं। यदि हम इसे अपनी परवृतति में सममिलित कर लें तो इससे समाज में क अचछा संदेश जा सकता है और क अचछी परमपरा को सथापित किया जा सकता है। यहां हम यह भी जोड़ना चाहते हैं कि ईशवर के गणों का अधययन करने पर हमें उसमें दया और करूणा का गण भी जञात होता है। यदि माता.पिता के समान हमारे जनमदाता परमातमा में दया और करूणा का गण है तो हमारे अनदर भी यह गण अवशय ही विदयमान होना चाहिये। यदि हम सा नहीं करते तो हम ईशवर को अपरसनन करते हैं और इससे हमारी ही हानि होती है।

हमारा वेदों के विदवान और देश के विभिनन भागों में 9 आरष गरूकलों के संचालक सवामी परणवाननद सरसवती से निकट समपरक है। कछ वरष पूरव सवामीजी इतने रोगी हो गये कि उनहें लगभग 6 माह से अधिक शयया पर ही रहना पड़ा। कैंसर जैसा भयानक रोग उनहें बताया गया। उनकी चिकितसा चलती रही और वह सवसथ हो गये। इसके अतिरिकत भी उनहें अनेक बार अनेक परकार की शारीरिक वयाधियों ने आकरानत किया परनत वह सवसथ होते गये। हमने क बार उनसे पूछा कि सवामीजी आप अनेक रोगों से अनेक बार तरसत रहे और असाधय रोग पर भी आपने विजय परापत की इसका मखय शरेय आप किस बात को देते हैं तो उनहोंने कहा कि मैंने जीवन में वृदधों व विदवानों की यथासमभव सेवा की है। मेरा बार.बार रोगाकरानत होकर पनः सवसथ हो जाना मैं उनके आशीरवाद का परिणाम मानता हूं। हमें लगता है कि उनकी यह बात सरवथा सतय है। सेवा करने पर हमें जो शभकामनायें व आशीरवाद मिलता है उससे हमें जीवन में  आय, विदया यश व बल की परापति होती है सा मनसमृति में वरणित है और इस गरनथ के यह विचार व विधान सतय सिदध हैं तथा सवामीजी का जीवन इसका परमाण है।

सेवा में अनेक रूप हो सकते हैं। किसी रोगी की सेवा करना भी सेवा के ही अनतरगत आता है। रोगी की सेवा उसके लि अचछा भोजन, वसतर ओषधियां व चिकितसा की सविधा परदान कर की जा सकती है। आज कल चिकितसा के कषेतर में अनाचार चरम पर सना जाता है। हम भी अपने जीवन में यदा.कदा इसका अनभव करते रहते हैं। चिकितसों को तो ईशवर के बाद दूसरा सथान परापत है। रोगियों के परति उनकी सदभावना होनी चाहिये न कि येन केन परकारेण उनसे अधिकाधिक धन कमाने की परवृतति। परनत सवारथ की परवृतति का आजकल सभी वरगों में अमरयादित रूप से विसतार हो रहा है जिससे समाज में सरवतर चिनता व दःख अनभव किया जा रहा है। इसका भविषय में कया परिणाम होगा इसका अनमान लगाना कठिन है। हमें लगता है कि सा वैदिक शिकषा से दूर जाने के कारण हआ है। जब तक बचचों को आरमभ से वेद व उपनिषद के अनसार आधयातमिक विजञान की शिकषा नहीं दी जायेगी निःसवारथ जीवन वयतीत करने वाले सतपरूष समाज में उतपनन नही किये जा सकते। अपवाद तो हो सकते हैं परनत शभ गणों से यकत मनषय का निरमाण वैदिक आधयातमिक शिकषा व संसकारों से होना ही समभव है। हम समते हैं कि जीवन को सफल करने के लि हमें आपने चारों ओर के वातावरण में सबको सवसथ शिकषित व समपनन बनाने का परयास व सी सदभावनाओं को अपने हृदय में सथान देना होगा साथ हि इसके लि मन, वचन व करम से परयास व सहयोग करना होगा, तभी हम मनषय जीवन को सारथक कर सकेंगे। वैभव पूरण जीवन जीना ही परशसत जीवन नहीं है अपित दूसरों के दःखों का निवारण करना और सबकी परसननता में परसनन होना ही वासतविक मनषय जीवन है।

 

 

ALL COMMENTS (0)