हम सब अपनी आंखों से संसार को देखते हैं। सूरय को भी हम अपने चरम चकषओं की सहायता से देखते हैं। चनदर व पृथिवी व इस पर वन, परवत, नदी व समदर, मैदान, अगनि आदि सभी आकार वाले पदारथों को देखते व अनभव करते हैं। यह जो देखने वाला है और यह जिसे देखता है वह दोनों भिनन.2 पदारथ हैं। दिखाई देने वाले पदारथ कब कहां व कैसे परकट ह हैं यह विजञान के अनतरगत आता है। जो चीज आज है वह इससे पहले भी थी अरथात हमारे जीवन व उससे पूरव से लगातार दिखाई देती आ रही है, तो हमें अपनी बदधि का परयोग कर उसके उतपतति के बारे में जानने की जिजञासा होती है। जो वसतयें हमसे भी पहले से संसार में हैं और हमारे पास उनकी उतपतति के बारे में कोई यकतियकत उततर नहीं है तो हम उसे पराचीन कह देते हैं। अब यदि वह पराचीन है तो कितनी पराचीन है,  à¤¹à¤®à¥‡à¤¶à¤¾ से है या कभी बनी है, यदि बनी है तो कब, इसी करम में अब हम सूरय, चनदर व पृथिवी के बारे में जानने का परयास करते हैं कि यह कब से हैं या कब बने हैं,

किसी भी परशन का उततर यदि ढूंढना है तो हमें अपनी बदधि से उस विषय से समबनधित परशनों के समभावित उततरों को खोजना होता है। जो उततर सबसे अधिक तरक संगत बदधि संगत या यकतियों से पूरण तथा अकाटय हों उस क को क से अधिक को सवीकार करना पड़ता है। सूरय के बारे में अनेक तथयों का जञान हमें हमारे शासतरों और विजञान के दवारा उपलबध हैं। सृरय पृथिवी से 13 लाख गणा बड़ा है। यह परसपर 1500 लाख किमी. दूरी पर है। हमारे सूरय मणडल में पृथिवी सोम, मंगल, बदध, बृहसपति, शकर व शनि आदि अनेक गृह हैं और इन गरहों में से भी कछ के क या अनेक उपगरह हैं। यह सभी गरह व उपगरह आकाश में सूरय की आकरषण शकति व वरतलाकार गति आदि के दवारा, गरह सूरय का और उपगरह अपने- अपने गरह की परिकरमा कर रहे हैं। विचार करने पर जञात होता है कि इन सबकी रचना व उतपतति क साथ व क समय में ही हई है। क तो यह सभी सूकषमातिसूकषम कणों से मिल कर बने हैं। विजञान के अनसार उनहें इलेकटरान, परोटोन व नयूटरान कहते हैं। इन सूकषम कणों से मिलकर क परमाण बनता है। अनेक परमाण से मिलकर क अण बनता है। इसी परकार क परमाण दूसरे परमाण या परमाणओं से मिलकर क नया पदारथ जिसे यौगिक या कमपाउणड कहते हैं बनते हैं। इस परकार से सारा अचेतन व निरजीव जगत बना हआ है। दो परशन उतपनन होते हैं किसके दवारा, किस पदारथ से और कब व किसके लि बनाया गया है। यह सारा बरहमाणड अपने रचयिता का पता सवयं दे रहा है। वह बता रहा है कि इसे बनाने वाला चेतन पदारथ, सरवजञ, सरववयापाक, निराकार, सरवशकतिमान, अनादि, अजनमा, अमर, अविनाशी, नितय पदारथ ही हो सकता है। यह सवरूप तरक, बदधि व यकति से सिदध ईशवर का है। यदि इससे विपरीत सतता से इस संसार की उतपतति मानेंगे तो वह यथारथ नहीं होगी। हमारा अनमान व विशवास है कि ईशवर के विषय में यह सिदधानत व मानयता सरवगराहय सरवमानय व अकाटय है। हमारे वैजञानिक भी इस तरक से असहमत नहीं हो सकते हैं। यह तो तरक से सिदध हआ अब उसे अपनी पांच जञान इनदरियों से परतयकष करना मातर शेष है। यह कारय भी समभव है।

हम जानते हैं आंखों से सथूल पदारथ दिखाई देते हैं सूकषम पदारथ नहीं। वाय में धूल के कण वं अनेक गैसों के अण होते हैं परनत वह हमे दिखाई नहीं देते। इसका कारण उनका सूकषम होना होता है। अतः यह सरववयापक व निराकार ईशवर जो धूल के कणों और वाय में विभिनन गैसों के अणओं से भी अधिक सूकषम है, दृषटिगोचर नहीं होता। कानों से हम सनते हैं, ईशवर में हमारे शरीर की भांति मख आदि अवयव न होने के कारण वह बोलता नही, अतः उसे सनने का तो परशन ही नहीं उठता। वह हमारी आतमाओं में परेरणा करता है। जब हम अचछा काम करते हैं तो हमारी आतमा में परसननता आननद व निःशंकता, निरभयता, निडरता, उतसाह आदि होता है जो ईशवर के दवारा आतमा में पैदा किया जाता है और जब हम कोई बरा काम करते हैं तो वह हमें रोकता है और हमारी आतमा में भय, शंका व लजजा का भाव व अनभूति पैदा करता है। यह सभी परसननता व भय संबंधी गण व भाव आतमा में ईशवर की ओर से उतपनन किये जाते हैं। यह परेरणा ही ईशवर की असतितव का परमाण होने के साथ उसको अपनी बदधि व आतमा से देखना कहलाता है। सनदर फूल में आकरषक, मनमोहक आकार व भिनन.भिनन परकार की सगनध को पाते हैं। इसका बनाने वाला कौन है, इसका उततर है वह सरववयापी व सरवशकतिमान ईशवर पृथिवी के अनदर व बाहर विदयमान है और वह इस काम को अंजाम देता है। इससे यह नियम परकाश में आता है कि शरचना विशेष को देख कर इसके रचयिता का जञान होता है। यह सा ही है जैसे क सनदर शिश को देखकर उसके सनदर माता - पिता की कलपना की जाती है। इसी परकार से सूरय, पृथिवी, चनदर, अगनि, जल, वाय वं पषप आदि रचना विशेष को देखकर इनसे भी कहीं अधिक सनदर व समरथ रचयिता परमातमा के दरशन अरथात उसकी सतता के असतितव में विशवास इस सारे परकरण पर विचार व चिनतन करने वाले मनषय को होते हैं।

इस वरणन से यह जञात हआ कि इस सृषटि को बनाने वाला क चेतन ततव सरवशकतिमान निराकार, सरवजञ, सरववयापक, सरवातिसूकषम, निरवयव, करस, अजनमा, अनादि, अमर अविनाशी, नितय व सवयंभू सतता है। यदि  वह न हो तो कछ बनेगा नहीं। इस अदभत रचना का रययिता परमेशवर है। उसने यह रचना कयों व किसके लि की तो इसका उततर है कि हम और अनय सभी पराणियों में विदयमान कदेशी सूकषम, चेतन, अलपजञ अनादि अजनमा, अमर, नितय जनम-मरण-पनरजनम के बनधन में बंधी व फंसी हई, करमों को करने वाली व फलों के भोगने वाली जीवातमा के लि। यदि वह सा न करे तो जीवातमा का असतितव होकर भी उसका कोई महतव नहीं रहता। ईशवर भी सब परकार की शकतियों व सामरथय से यकत होने पर भी महतवहीन बन जाता है। चेतन पदारथ में शजञान व करिया या करम का होना सवाभाविक गण है। यह गण ईशवर में भी है और अतयनत सूकषम कदेशी जीवातमा में भी कयोंकि दोनों चेतन ततव हैं। ईशवर का सवभाव ही सृषटि की उतपतति करना उसका संचालन व पालन करना व अवधि पूरण होने पर परलय करना और परलय की अवधि समापत होने पर पनः सृषटि की रचना कर पनः इसका संचालन करना। अतः ईशवर ने सृषटि की रचना कयों व किसके लि की इसका उततर भी मिल गया है कि अपनी शाशवत परजा जीवातमाओं के सख के लि अपने सवभावानसार की है।  अब केवल क परशन का उततर शेष है कि यह संसार ईशवर ने बनाया किस पदारथ को लेकरघ इसका उततर है कि कारण या मूल परकृति जो सतव रज व तमों गण वाली सूकषम सतता है जो परलय अवसथा में इस सारे बरहमाणड में फैली या विसतृत रहती है उससे परमाण व अण बनाकर इनसे संसार के सूरय, चनदर, पृथिवी आदि पदारथ वं मनषय आदि सभी पराणियों के शरीरों को बनाया है।

इस विवेचन से यह निषकरष निकलता है कि संसार में तीन नितय पदारथों ईशवर जीवातमा व परकृति का असतितव है। ईशवर व जीवातमा चेतन ततव हैं तथा परकृति जड़ व अचेतन पदारथ है। यह तीनों ही पदारथ नितय अरथात हमेशा से हैं। इनको किसी ने बनाया नहीं और न यह अपने आप बने हैं। यह सवयंभू पदारथ है अरथात यह अपने असतितव में सवतनतर हैं हमेशा से हैं और हमेशा रहेंगे। इनका कभी अभाव नहीं होगा। हां जीवातमा बार- बार जनम लेगा मृतय को परापत होगा फिर करमानसार इसका जनम होगा और यह जनम करमानसार क योनि का उसी योनि या अनय योनियों में भी हो सकता है। यदि कोई जीवातमा किसी मनषय योनि में अपने सभी करमों का फल भोग लेता है और ईशवर विषयक सतय जञान को परापत कर उसकी सही विधि से उपासना कर उसका साकषातकार कर उसे परापत कर लेता है तो उसका मोकष हो जाता है। फिर वह मोकष की अवधि तक जनम-मरण से मकत रहकर अवधि पूरी होने पर मनषय जनम पाता है। इसी परकार से मूल परकृति से यह संसार बनता है 4.32 अरब वरषों तक रहता है, फिर इसकी परलय या विनाश हो जाता है। उसके बाद पनः 4.32 अरब वरषों के बाद ईशवर इसे पनः रचता है।  हमारी वरतमान सृषटि को वैदिक काल गणना के अनसार 1,96,08,53,114 वरष हो चके हैं। यह गणना विजञान के अनमानों के भी अनरूप है। लेख में हमने अपने विषय का उततर जान किया है कि यह सृषटि ईशवर के दवारा जीवों के सख के लि बनाई गई है। समय -समय पर इसकी उतपतति व परलय आदि होती रहती है। जीव जनम मरण के चकर में फंसा रहकर नाना योनियों में जनम लेता रहता है और सदकरमों व जञान से उननति कर मोकष रूपी सख को परापत कर लमबी अवधि तक ईशवर के साननिधय में रहकर आननद को भोकता है। विसतार से जानने के लि सतयारथ परकाश ऋगवेदादिभाषय भूमिका, उपनिषद, दरशन और वेदों का अधययन करना चाहिये। इससे सभी शंकाओं का समाधान हो जाता है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं।

 

 

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