क सजजन अपने परिचय में सवयं को नासतिक लिखते हैं और कहते हैं कि कया यह परिचय काफी नहीं है? हमें लगा कि हम इस पर विचार करें। पहला भाव तो यह आया कि नासतिक का अरथ होता है कि जो है ही नहीं। इसका अरथ तो यह भी हआ कि सवयं नासतिक घोषित करने वाला लेखक यह बता रहा है कि वह है ही नहीं। उसकी न तो कोई सतता है और न हि असतितव वा वजूद है। अब यदि वह है ही नहीं तो फिर वह यह कयों कह रहा है कि वह नासतिक है और कया इतना परिचय काफी नहीं है? से लोगों से पूछा जा सकता है कि यदि वह हैं ही नहीं तो यह लेख लिखने वाला वयकति कौन है? जिसका असतितव होता है वह तो होने से, असति वा आसतिक कहलाता है। अतः मैं हूं इसलिये मैं तो असति होने से आसतिक कहलाऊगां न कि न-असति = नासतिक। यदि हम सतय व असतय की चरचा करें और यह देखें कि यह शबद नासतिक किसी असतितववान सतता के लि कया परयोग किया जा सकता है? असतय के लि असतय का परयोग करना तो सम में आता है परनत कोई बात सतय कहे और सवयं ही उततर दें कि यह असतय है तो कया जञानी व समदार वयकति को उसकी बात को मान देना चाहिये। हमें लगता है कि सा वयकति या तो अजञानी होगा या फिर सवयं व दूसरों को मूरख बना रहा है।

अब यदि ईशवर के बारे में विचार करें और क पकष यह कहे कि ईशवर नहीं है और दूसरा यह कहे कि ईशवर है तो दोनों को अपने अपने तरक व यकतियां देनी चाहियें। न तो वह नहीं है कहने से काम चलता है और न वह है कहने से काम चलता है। अब वह है पकष के परमाण देखिये। यह संसार किसी चेतन व अथाह बदधि व शकति शाली सतता से बना हआ है। बिना रचयिता के रचना नहीं होती। बिना कारण के कारय नहीं होता। बिना सवसथ व समरथ माता-पिता के सनतान नहीं होती। बिना शिकषक व गरू के विदयारथी जञानी नही होता, बिना जल के पयास नहीं बती, बिना धन के भोजन परापत नहीं किया जा सकता। बिना कृषि करम किये अनन नहीं होता। यहां हम परतयेक करम में करता के होने का अनमान व आनमानिक दरशन कर रहे हैं। इसी परकार से इस वृहत बरहमाणड व सृषटि को देखकर उस परम सतता परम-आतमा शकति, सरववयापक, सरवजञ चेतन ततव का आनमानिक जञान व दरशन होते हैं। जिस परकार अजञानी जिसे हम बदधि की आंखों से हीन अनधा मनषय कह सकते हैं वह दो और दो का योग चार नहीं जानता, उसे पसतक को देखकर किसी लेखक के होने का जञान नहीं होता, वरषा को होते देख कर वाय व आकाश में वाषप रूप में जल होने का जञान नहीं होता, इसी परकार से उसे सृषटि को देखकर इसमें विदयमान सतय, चितत, निराकार, सरववयापक, सरवशकतिमान, सरवजञ, सरवानतरयामी, सूकषमातिसूकषम, सृषटि रचना का जञाता व रचना में समरथ सतता = ईशवर का जञान भी नहीं हआ करता। संकषेप में इतना कहना ही ईशवर के होने में तरक व यकति से बताया जा सकता है। ईशवर है और वह हमारे शरीर का रचयिता है। वह सूकषम होने के कारण दिखाई नहीं देता। संसार में हो रही अनेकों करियाओं से अनमान दवारा व रचना को देखकर रचयिता के होने के सिदधानत के आधार पर उसका बदधिमान व विवकेशील उसका दरशन हर समय कर सकते हैं।

हम यह अनमान करते हैं कि ईशवर दवारा परदतत सवतनतरता का सदपयोग वा दरूपयोग करने का सबको अधिकार है परनत उसका फल भोगने में सब ईशवर के दवारा परतनतर हैं। हम नासतिकों से कहना चाहते हैं कि वह ईशवर को नहीं मानते तो न माने परनत कछ करके तो दिखायें। वह अपनी मृतय पर विजय परापत करके दिखायें? वह यवावसथा में इसे रोककर दिखायें और सवयं को वृदध न होने दें। कभी रोगी न हों, जञान व विजञान में किसी से पराजित व नयून न हों। क नया सूरय, चनदर व पृथिवी बना कर दिखा दे। कछ पषप बनायें और सगनध पैदा कर दें। मनषय के कृतरिम अंग बना दें और जिसे आवशयकता हो उसे उस नये कृतरिम अंग का परतयारोपण कर सवसथ कर दें। कोई मर रहा हो तो उसकी मृतय को अपने जञान व बल तथा असतितव के चमतकार से रोक दें। यदि वह यहां विवश हैं, तो विवशता कयों है? विचार करें और इसका उततर दें। ईशवर तो है नहीं, फिर वह नासतिक भाई किसी से कम व किसी से अधिक कयों है? से परशन उततर देते हैं कि कोई है जिसने नियमों के अनसार यह सब वयवसथा की है। वह सभी का पूजय व आदरणीय, सततय व भजनीय है जैसे कि सनतान के लि माता-पिता और शिषय के गरू होता है। कोई कृतजञ अपने उपकारकता के परति आदर व कृतजञता भाव रखता है। इसी के साथ इस संकषिपत चरचा को विराम देते हैं।       

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