आरय समाज के दस नियम

आरय समाज के 10 नियम है जो संसार की सभी संसथाओं व संगठनों में शरेषठ कहे जा सकते हैं। इन नियमों में छठे नियम के अनसार संसार का उपकार करना आरय समाज का मखय उददैशय कहा गया है अरथात सभी मनषयों की शारीरिक, आतमिक और सामाजिक उननति करना। मनषय क सामाजिक पराणी है। इसका अपना जीवन अनय मनषयों वं अनय सभी पराणियों से किसी न किसी परकार से जड़ा हआ है और परसपर आशरित व निरभर भी है। मनषय की उतपतति माता व पिता से होती है। माता-पिता के अपने-अपने भाई व बहिन होते हैं। उनके अपने-अपने बचचे होते हैं। यह सब मिल कर क वृहत परिवार बनता है। इसी परकार से अनय मनषयों के भी वृहत परिवार होते हैं। सभी मनषयों को यदि मिलाकर देखा जाये तो क वृहत समाज व देश बनता है। इसी परकार से अनेक देशों से यह विशव बना है। बचचे का जब जनम होता है तो उसमें माता के साथ धायी या चिकितसकों की भूमिका होती है। बचचे को दूध पिलाने से आरमभ होकर कछ बड़ा होने पर उसे भोजन भी चाहिये। माता-पिता व वृहत परिवार के लोग भोजन करते हैं तो यह उनहें कृषक भाईयों से मिलता है। निवास के लि मकान बनाना है तो इस कारय को करने वाले अनेक परकार के वयकति तथा निरमाण सामगरी के निरमाता व तैयार करने वाले लोगों की आवशयकता पड़ती है। मनषय को दूध के लि गाय, बकरी व भैंस आदि पश, किसान को बैल, वनों में वनय पराणी, नभ में नभ-चर तथा जल में जल-चर पराणी होते हैं जिनसे हमारा जीवन का सीधा व अनय समबनध होता है। बिना शिकषकों के हम जञानी व सभय नहीं बन सकते। वैदिक गरनथों को पढ़ने पर नाना परकार की योनियों की उतपतति का सिदधानत व इसमें निहित कारणों का पता चलता है। इस परकार से मनषय व सारा पराणी जगत व हमारी परकृति वं सृषटि परसपर क दूसरे समबनधित हैं जिसे क वृहत परिवार की संजञा दी जा सकती है।

मनषय जीवन का उददेशय उननति व मोकष बताया जाता है। इसके समरथन में हमारे दरशन शासतर में अनेकों कारण व तरक दि गये हैं। उननति का अरथ है कि अचछे कामों को करके धन व यश अरजित करना, सेवा, उपकार, धयान व यजञ आदि करके मानव के करतवयों का पालन किया जाता है। हम जैसा सोचते हैं, सनते हैं, पढ़ते हैं व कारय करते हैं, उन सब के संसकार हमारी 5 जञान इनदरियों के दवारा हमारे मन व आतमा पर पड़ते हैं। इन करमों व संसकारों का कछ भाग हम इस संसार को बनाने वाले सृषटिकतरता जो करमों का फलदाता है, के दवारा इसी जनम में भोग लेते हैं और शेष करमों के फलों को भोगने के लि हमें अगला जनम मिलता है। यही सिदधानत पनरजनम का आधार है जो कि सतय व वैजञानिक है। सृषटि करता ईशवर व जीवातमा सतय, चितत, निराकार, अनादि, अजनमा, अमर, अनतपनन, ईशवर सरववयापक तथा जीवातमा कदेशी, ईशवर सरवजञ व आतमा अलपजञ, ईशवर अजनमा तथा जीवातमा जनम-मरण धरमा आदि गणों वाले हैं। यही वैदिक दरशन है जिसके सभी सिदधानत व मानयतायें अकाटय व पूरणतया सतय है।

यजरवेद का लोकपरिय वेदमनतर 30/3 ओ३म विशवानि देव सवितरदरितानि परासव। यद भदरनतनन आसव।।में ईशवर से परारथना की गई है कि पराणों का भी पराण, दःख विनाशक, सब सखों को देन वाला ईशवर हमारे सभी दःखों, दरगण व दवयरसनों को दूर कर हमें सभी कलयाणकारी गण, करम, सवभाव व सख देने वाले जो पदारथ हैं, वह हमें परापत कराये। इसके लि मनषय को कया करना है? पहला कारय तो शारीरिक उननति, दूसरी आतमिक उननति तथा तीसरी सामाजिक उननति करनी है। मनषय का शरीर सवसथ व निरोग होगा तभी वह आतमिक उननति कर सकता है। इसके लि ईशवर के सचचे सवरूप को जानकर उसकी सतति, परारथना व उपासना व धयान करने के साथ आसन-वयायाम, पराणायम, शदधाहार, बरहमचरय का पालन आदि कारय करने होते हैं। सा करने से ही आतमिक उननति भी साथ-साथ होती है। आतमिक उननति के लि सतय जञान, भौतिक व आधयातमिक दोनों का होना आवशयक है। आजकल भौतिक जञान तो मनषय परापत कर लेता है परनत आधयातमिक जञान की दृषटि से वह शूनय पाया जाता है। विभिनन मत-मतानतर भी उसे भरमित करते हैं जिससे वह सचचे आघयातमिक जञान व ईशवरोपासना से वंचित रह जाता है और उसकी अपेकषित आतमिक उननति नहीं होती। महरषि दयाननद ने आधयातमिक उननति के कषेतर में अनेकों खोजें कीं और पाया कि सचचा आधयातमिक जञान वेदों, उपनिषदों, योग दरशन आदि वैदिक गरनथों में हैं। इसका उनहोंने वयापक परचार किया और इसके लि सतयारथ परकाश, ऋगवेदादिभाषय भूमिका, वेदों का भाषय, संसकार विधि, गोकरूणानिधि, वयवहारभान आदि अनेक गरनथों का निरमाण किया। इनका अधययन व आचरण आतमिक वा आधयातमिक उननति आधार है। यदि सामपरदायिक दृषटि से इन गरनथों को देखेंगे तो इससे होने वाले लाभों से वंचित हो जायेंगे अतः शदध अनतःकरण से इनका अधययन करना चाहिये। यदि इन गरनथों का अधययन भी कर लिया परनत इनसे लाभ नहीं उठाया अरथात इनकी शिकषाओं को आचरण में नहीं ढ़ाला तो भी कोई विशेष लाभ नहीं होगा। अतः इन गरनथों से मत, मतानतर व समपरदाय का भेद भलाकर अधययन करना चाहिये और इसमें जो सतय जञान है उससे लाभ उठाना चाहिये। इससे मनषय की आतमिक उननति होना अवशयमभावी है। इसके अनय उपाय नही है।

उपरयकत उपायों से हमारी शारीरिक और आतमिक उननति तो हो गई परनत यदि हम सामाजिक उननति नहीं करते तो हम अनेक लाभों से वंचित हो जाते हैं। इसका कारण है कि ईशवर क नयायाधीश की भांति भी कारय करता है। वह सरववयापक और सरवानतरयामी होने के कारण परतयेक जीव के परतयेक कारय का चाहे वह दिन के परकाश में करे या रात के अनधेरे में या अनय परकार से छपा कर, ईशवर को सबका पूरा-पूरा जञान रहता है। वह नयायाधीश होने के कारण हमारे परतयेक करम का हमें समयानसार फल देता है। करम के फलों से कोई भी कदापि बच नहीं सकता। अतः सदकरम करना सबके लि आवशयक वं अपरिहारय है अनयथा दणड सवरूप अनेक जनम-जनमानतरों में निमन पराणि-योनियों में जनम लेकर फलों को भोगना होगा। सामाजिक उननति का अरथ है कि सबके साथ पकषपात रहित, परेम, दया, करूणा, सनेह, सहयोग, परोपकार आदि के कारयों को करना और इसके साथ ही असमानता, विषमता, अजञान, अनधविशवास, छआछूत का वयवहार न सवयं करना और दूसरों को समाकर उसे दूर करने के हर समभव परयास करना। सामाजिक उननति में दान का भी महतवपूरण सथान है। हम जो धन आदि का उपारजन करते हैं वह यदि अपनी आवशयकता से अधिक हैं तो उसे पीडि़त व अभावगरसत अपने बनधओं को देना दान कहलता है। यह दान अरथ का भी हो सकता है और जञान, शरम व वसतओं का भी।  इन कारयों को करने से शरेषठ मनषय, शरेषठ समाज व शरेषठ देश का निरमाण होता है। सा होने पर सारा विशव ही शरेषठ बनता है।  सवामी दयाननद ने यह नियम वेदों का गहन अधययन कर बनाया है। अनय धरम शासतरों, धारमिक संगठनों व समपरदायों आदि में इस परकार का नियम कही दृषटि गोचर नहीं होता। सब अपनी-अपनी जनसंखया बढ़ाने पर तो धयान देते हैं परनत कोई गणवतता पर भी धयान देता है, सा दृषटिगोचर नहीं होता।

आईये, आरय समाज के छठें नियम के अनसार सवयं का जीवन बनाये और क शरेषठ मनषय व नागरिक बन कर समाज व देश को मजबूत करें।

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