आखिर जब जेएनयु विवाद फीस को लेकर था तो इस विवाद को मूलनिवासी से क्यों जोड़ दिया गया। फीस में मनुवाद कहाँ से आया और फीस में राम मंदिर कहाँ से आया? शायद ये चीजें आई नहीं बल्कि लाई गयी क्योंकि आजकल आपने एक शब्द सुना होगा मूलनिवासी। इस शब्द के साथ भारतीय दलित व आदिवासी समाज को जोड़ा जा रहा है। साथ ही महिषासुर और रावण की पूजा जैसे मिथक जोड़े जा रहे है, कभी शम्भुक वध से लोगों को द्रवित किया जा है तो कभी बहुजन वाद के नाम पर।

इसमें कोई आर्यों को बाहरी आक्रान्ता बताता है तो कहीं मनु स्मृति के नाम पर अनेकों झूठ और मनगढ़ंत इतिहास सोशल मीडिया पर पढने को मिल रहा है। मुसलमान और बामसेफ वालों को मूलनिवासी बताकर आधुनिक इतिहास लिखने की कोशिश जारी है। फीस विवाद के समय आखिर जेएनयु में ये मुद्दा कहाँ से आया? क्या ये कोई मजाक है या कोई षड्यन्त्र है क्योंकि इस रूहानी इतिहास को लगभग यूट्यूब के 105 बड़े चेनलों से परोसा जा रहा है?

अगर इसकी असल गहराई में जाये तो ये एक पूरा संगठित गिरोह है जिसमें वामपंथी मीडिया, कथित सामाजिक कार्यकर्ता बामसेफ के वामन मेश्राम जैसे कुंठा में ग्रस्त लोग है। जो मूलनिवासी शब्द के नाम पर एक प्राचीन षड्यंत्र को नए रूप, नए कलेवर और नए आवरण में बांधकर एक देश में एक नये सामाजिक राजनितिक धार्मिक वातावरण खड़ा करनें का प्रयास कर रहे है और जो किसी भी मौके पर इसे भुनाने का प्रयास करते है?

आप पेरियार पर बोलिए वामपंथी खड़े हो जाते हैं, आप इस्लाम पर बोलिए बामसेफ वाले खड़े हो जाते है, आप वामपंथियों पर नवबौद्ध खड़े मिलेंगे और आप आतंक पर बोलिए कथित सामाजिक कार्यकर्ता सर्प की तरह फन उठाकर खड़े हो जायेंगे। आखिर ये प्रयास क्यों किया जा रहा है कौन ये प्रयास कर रहा है और इसका लाभ किसे मिलने वाला है इसे समझने के लिए जड़ में चलते है। और इसकी जड बाबा साहब आंबेडकर जी के धर्म परिवर्तन के समय दो धर्मों इस्लाम एवं इसाईयत में उपजी निराशा में है। क्योंकि ईसाइयत व इस्लाम धर्म नहीं अपनानें को लेकर बाबा साहब ने स्पष्ट रूप से मना कर दिया था। उन्होंने बार बार कई मौकों पर कहा कि उनकें अनुयायी हर प्रकार से इस्लाम व ईसाइयत से दूर रहें।

यानि बाबा साहब जिस बीमारी से अपने समाज को बचाना चाह रहे थे किंतु आज मूलनिवासी वाद के नाम पर भारत का दलित व जनजातीय समाज एक बड़े पश्चिमी षड्यंत्र का शिकार हो रहा है। आम्बेडकर जी के इस बयान के बाद एक बड़े और एकमुश्त धर्म परिवर्तन की आस में बैठे ईसाई और मुस्लिम धर्म प्रचारक बहुत ही निराश व हताश हो गए थे। किन्तु ईसाई मिशनरीज में उपजी तबकी यह निराशा बाद में भी प्रयासरत रही व अपने धन, संसाधनों, बुद्धि, कौशल के आधार पर सतत षड्यंत्रों को बुननें में लगी रही। पश्चिमी इसाई धर्म प्रचारकों के इसी षड्यंत्र का अगला हिस्सा है मूलनिवासी वाद का जन्म!

भारतीय दलितों व आदिवासियों को पश्चिमी अवधारणा से जोड़नें व भारतीय समाज में विभाजन के नए केंद्रों की खोज इस मूलनिवासी वाद के नाम पर प्रारंभ कर दी गई है।

इस पश्चिमी षड्यंत्र के कुप्रभाव में आकर कुछ दलित व जनजातीय नेताओं ने अपनें आन्दोलनों में यह कहना प्रारंभ कर दिया है कि भारत के मूल निवासियों (दलितों) पर बाहर से आकर आर्यों ने हमला किया और उन्हें अपना गुलाम बनाकर हिन्दू वर्ण व्यवस्था को लागू किया।

जबकि जातिव्यवस्था भारत में मुगलों की देन रही है और उसी कालखंड में मुगलों के षड्यंत्रों से भारत में जाति व्यवस्था अपनी दुर्गति व परस्पर विद्वेष के शिखर पर पहुंची थी, यह बात विभिन्न अध्ययनों में स्थापित हो चुकी है। भारत के दलितों व जनजातीय समाज को द्रविड़ कहकर मूलनिवासी बताना व उनपर आर्यों के आक्रमण की षड्यंत्रकारी अवधारणा को स्वयं बाबा साहब अम्बेडकर सिरे से खारिज करते थे। बाबा साहब ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है “आर्य आक्रमण की अवधारणा पश्चिमी लेखकों द्वारा बनाई गई है जो बिना किसी प्रमाण के सीधे जमीन पर गिरती है।

इससे साफ है कि आज बाबा साहब के नाम पर जो मूलनिवासी वाद का नया वितंडा खड़ा किया जा रहा है वह वामन मेश्राम उनकी बामसेफ, जय मीम और ईसाई धर्म प्रचारकों के दिमाग का षड्यंत्र भर है। इस नए षड्यंत्र का सूत्रधार पश्चिमी पूंजीवाद है, जो फंडिंग एजेंसी के रूप में आकर इस विभाजक रेखा को जन्म देकर पाल पोस रहा है। आर्य कहां से आये व कहां के मूलनिवासी थे यह बात अब तक कोई सिद्ध नहीं कर पाया व इसके बिना ही यह राग अवश्य अलापा जाता रहा है कि आर्य बाहर से आये थे। दक्षिण-उत्तर की भावना उत्पन्न करने वाला यह विचार, तात्कालिक राजनैतिक लाभ हेतु विदेशियों एवं विधर्मियों द्वारा योजनाबद्ध प्रचारित किया गया है।

वैज्ञानिक अध्ययनों, वेदों, शास्त्रों, शिलालेखों, जीवाश्मों, श्रुतियों, पृथ्वी की सरंचनात्मक विज्ञान, जेनेटिक अध्ययनों  आदि के आधार पर जो तथ्य सामनें आते हैं उनके अनुसार भारतीय उपमहाद्वीप बहुत विशाल क्षेत्र में फैला है। जिसमें अनेकों देश है और सब यहाँ के ही निवासी है लेकिन इन सब तथ्यों के प्रकाश में भी आँख बंद करके  आखिर यह मूलनिवासी दिवस मनाने का चलन क्यों व कहां से उपजा?

यह सिद्ध तथ्य है कि भारत में जो भी जातिगत विद्वेष व भेदभाव चला वह जाति व जन्म आधारित है क्षेत्र आधारित नहीं। वस्तुतः इस मूलनिवासी फंडे पर आधारित यह नई विभाजनकारी रेखा एक नए षड्यंत्र के तहत भारत में लाई जा रही है जिससे भारत को सावधान रहनें की आवश्यकता है। यह भी ध्यान देना चाहिए कि भारत में सामाजिक न्याय का व सामाजिक समरसता का जो नया सद्भावी वातावरण अपनी शिशु अवस्था से होकर युवावस्था की ओर बढ़ रहा है कहीं उसे समाप्त करनें का यह नया पश्चिमी षड्यंत्र तो नहीं है?!

 

ALL COMMENTS (0)