ईशवर के सचचे पतर व संदेशवाहक वेदजञ महरषि दयानंद
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Manmohan Kumar AryaDate
07-Jun-2014Category
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महरषि दयाननद सरसवती ने अपने जीवन में जो कारय किया, उससे वह ईशवर के सचचे पतर व ईशवर के सनदेशवाहक कहे जा सकते हैं। सवयं महरषि दयाननद की विचारधारा के अनसार संसार में जनम लेने वाला हर पराणी व इस बरहमाणड में जितनी à¤à¥€ जीवातमायें हैं, वह सब ईशवर की पतर व पतरियों के समान हैं। सवामी दयाननद के अनसार यह सब ईशवर के पतर व पतरियां अपने जञान, करम व सवà¤à¤¾à¤µ की योगयताओं के अनसार कोई ईशवर के कछ निकटतम है, कछ निकट व अधिकांश दूर या बहत दूर हैं। ईशवर से निकटता व दूरी का कारण जीवों के अपने जनम-जमानतरों व वरतमान जनम के करम हआ करते हैं। जो जीवातमा अपने मनषय जीवन में अचछे करम करता है, वेदों का जञान परापत करने के लि परयतन करता हैं और वेदानसार जीवन वयतीत करता है वह ईशवर के सबसे निकटतम पहंच जाता है और इसके विपरीत आचरण करने वाले मनषयों व पश आदि योनियों की ईशवर से दूरी बनी रहती है। इसी परकार जो मनषय वेद जञान की परापति में शरम व परूषारथ करता है और अरजित जञान का अनय मनषयों में, मत-मतानतर के आगरह से रहित होकर उनके उपकार व à¤à¤²à¤¾à¤ˆ के लि, परचार-परसार करता है, वह ईशवर का सनदेशवाहक होता है। अनय वयकति करने को कछ à¤à¥€ कहें परनत वासतविकता यही है कि जो पूरव पंकति में बताई गई है। जनम-मरणधरमा जीवातमाओं के अतिरिकत ईशवर का न तो कोई पृथक से पतर ही है और न अनय परकार का कोई सनदेशवाहक या ईशवर व जीव के बीच से किसी परकार से मधयसथ। आईये, ईशवर के पतर व सनदेशवाहक के विषय में और विचार करते हैं।
ईशवर के पतर की चरचा करने से पहले ईशवर के सवरूप को जान लेते हैं। ईशवर कैसा है। यह वेद और आरय समाज के विदवानों, सवाधयायशील, परवचन व उपदेश में रूचि रखने वाले सदसयों को पता है परनत ईशवर के सवरूप से à¤à¤¾à¤°à¤¤ से बाहर वà¤à¤¾à¤°à¤¤ के à¤à¥€ 90 से 95 परतिशत वा इससे à¤à¥€ अधिक लोग अनà¤à¤¿à¤œà¤ž हैं। सा इसलिये है कि उनहें सतयोपदेश देने वाला कोई नहीं है। आजकल हमारा देश गरूडम व धरम-गरूओं से à¤à¤°à¤¾ हआ है। कया इन धरम गरूओं से इनके अनयायियों में सदगरू ईशवर का सतय सवरूप पहंचता है। हमारा विवेक इसका उततर ‘न’ में देता है। हमारा तो यह मानना है जिस गरू के पास अपनी मौलिक आवशयकताओ की पूरति से अधिक समपतति है, वह सचचा गरू नहीं हो सकता। कहीं न कहीं धरम की आड़ में वयापार किया जा रहा है। सा नहीं कि यह गरूजन ईशवर के बारे में केवल असतय कथन ही करते हैं। इनके कथनों का कछ या बड़ा à¤à¤¾à¤— सतय होता है परनत उसमें असतय के मिले ह होने से वह विष समपृकत अनन के समान होता है। यह गरू अचछे कारय à¤à¥€ करते हैं परनत इनके सारे कारयों की शरेणी में ही आते हों, सी बात नहीं है। यह जो धन अपने à¤à¤•à¤¤à¥‹à¤‚ व अनय साधनों से परापत करते हैं वह सारा वयय कहां-कहां होता है, वह मखय बात है। यदि वह सारा धन केवल निरधनों व देशवासियों के केवल व केवल कलयाण पर ही वयय होता है तो उसकी आलोचना उचित नहीं है, परनत विवेक से जञात होता है कि सारे धन का सदपयोग न होकर वयकतिगत कारयों के लि à¤à¥€ होता है और क-क गरू ने वयकतिगत रूप से इतने साधन व सविधायें कतरित कर लिये हैं कि हमारे धनिक गृहसथ à¤à¥€ उनसे सख-सविधाओं के मामले में पीछे हैं। आसथा का अरथ यह नहीं होता कि चीनी में नमक व नमक में चीनी की आसथा कर ली जाये। सकूल का विदयारथी अपनी आसथा के अनसार अपने शिकषक को शिकषक न मानकर कछ और मानता हो, सी-सी बातें सतय आसथा नहीं होती। आसथा यदि सतय नहीं है तो फिर वह आसथा न होकर अनधविशवास होता है। कछ सा ही तथाकथित धरम, धारमिक संसथाओं व संगठनों में à¤à¥€ होता है। मत-मतानतरों व à¤à¤¾à¤°à¤¤à¤µà¤°à¤·à¥€à¤¯ मतों के बारे में क आपतति यह à¤à¥€ है कि यह गरू अपने à¤à¤•à¤¤à¥‹à¤‚ को यह नही बताते कि ‘’वेद’’ सरववयापक, निराकर, सरवशकतिमान तथा सृषटि को रचने व पालन करने वाले परमातमा का सृषटि के आरमठमें दिया गया जञान है। वेदानकूल मानयतायें ही धरम है और वेदानकूल जो मानयता या सिदधानत नहीं है वह अकरतवय होने से धरम न होकर अधरम है। यह गरूजन बतायें à¤à¥€ तो कैसे। पहली हानि तो सा कहने से अपने à¤à¤•à¤¤ व अनयायी या तो बनेगें ही नहीं या फिर नाममातर ही बनेगें। दूसरा कारण यह बतायें तब जब यह जानें। इनहोंने तो वेदों का अधययन किया ही नही हैं। अत: अजञानता व सवारथ, यह दो बातें इनमें दृषटिगोचर होती हैं। चिनतन व अधययन से यह à¤à¥€ तथय सामने आता है कि गरू का काम ईशवर के बारे में जञान देकर अपने à¤à¤•à¤¤ व अनयायी को ईशवर उपासना की विधि सिखा, आवशयकता पड़ने पर उनकी शंकाओं का समाधान à¤à¥€ करता रहे। सा करके गरू का काम समापत। à¤à¤•à¤¤ को सारे जीवन अपने विचारों से बांध कर रखना उचित नहीं है। यह क परकार जालससाजी है। हमने अनेक मत-मतानतरों व गरूओं के 60 से 80 वरष तक की आय वाले चेलों को देखा है जो अधयातमिक जञान से शूनय होते हैं। इनके à¤à¤µà¤¿à¤·à¤¯ की चिनता गरू महाराज को नहीं होती है। क बात यह à¤à¥€ कहनी है कि अधिकांश गरू पराणों की बहतायत में चरचा करते हैं, यह सपरमाण जनता को बतायें कि यह पराण किसने बनायें, कयों बनाये, कब बनायें, इनकी आवशयकता कया थी। वेद और पराणों में किसका महतव अधिक है और कयों है, आदि आदि।
ईशवर का सवरूप कैसा है। यह धरम परेमियों के लि बहत ही महतवूरण परशन है जिसका उततर महरषि दयाननद ने चारों वेदों का अधययन, मनन, योगाà¤à¤¯à¤¾à¤¸, ईशवर का साकषातकार, वेदों का आलोडन व नाना परकार से परीकषा करके दिया है। उनके अनसार ईशवर सचचिदाननदसवरूप, सरवजञ, निराकार, सरवशकतिमान, नयायकारी, दयाल, अजनमा, अनादि, अननत, निरविकार, अनादि, अनपम, सरवाधार, सरवेशवर, सरवानतरयामी, अजर, अमर, अà¤à¤¯, नितय, पवितर और सृषटिकरता है। इन गणों विशेषणों से यकत ईशवर ही सारी मनषय जाती के लि उपासनीय है। ईशवर में असंखया गण व करम हैं, अत: उनके नाम à¤à¥€ क नहीं अपित उसके गणों की संखया बराबर व समान हैं। अजनमा होने के कारण ईशवर का कà¤à¥€ जनम नहीं होता न हआ है। जिनका जनम हआ है वह ईशवर नहीं थे। à¤à¤—वान राम व à¤à¤—वान कृषण महान आतमायें, महापरूष व यगपरूष थे। उनके जीवन में अनेक दैवीय गण थे जिनहें हमें अपने जीवन में अपनाना है। दिवयगणों को धारण करने वाले हमारे महापरूष व परेरणापरूष तो हो सकते हैं, परनत ईशवर नहीं। कई बार कछ असाधारण कारय करने के लि इनहें ईशवर माना जाता है परनत जो कारय इनहोंने कि वह तो ईशवर बिना अवतार लि ही आसानी से कर सकता है। जब वह बिना अवतार लिये परकृति क परमाणओं को इकटठा कर उनसे आवशयकता के अनरूप नये परमाण बनाकर सृषटि अरथात सूरय, पृथिवी, चनदर वं अनय गृह व उपगरह, जिनकी संखया असंखय है तथा परसपर की दूरी à¤à¥€ इतनी है कि उसे नापा नहीं जा सकता, बना सकता है तो वह अवतारों दवारा कहे जाने वाले सà¤à¥€ कारयों को à¤à¥€ कर सकता है। इसके अतिरिकत इन सूरय, पृथिवी आदि पिणडों का परिमाण इतना है कि जिसका अनमान लगाना à¤à¥€ कठिन वा असमà¤à¤µ है। फिर सà¤à¥€ परणियों को जनम देना, समय आने पर उनकी मृतय का होना, उनहें करम फल देना आदि कारय ईशवर कर सकता है तो फिर वह ईशवर रावण, कंस व हिरणयकशयप आदि को बिना अवतार लि, यदि माना आवशयक है तो, मार à¤à¥€ सकता है।
ईशवर हमारा माता व पिता दोनों है। इसका परमाण यह है कि उसने हमें जनम दिया है। महरषि दयाननद को à¤à¥€ जनम देने से ईशवर उनका माता व पिता दोनों हैं। इस जनम के माता-पिता तो सनतान को जनम देने के लि ईशवर के साधन हैं। यदि ईशवर माता के गरठमें सनतान का निरमाण न करें तो माता-पिता चाह कर à¤à¥€ कछ नहीं कर सकते। हम जो à¤à¥€ अनन-फल-दूध जल-वाय आदि का सेवन करते हैं वह à¤à¥€ ईशवर ने बनायें हैं। हमारा पोषण करने के कारण à¤à¥€ ईशवर ही हमारा माता-पिता सिदध होता है। वृदध, रोगी व अयोगय हो चके शरीरों से जीवातमाओं को निकालना और उन सà¤à¥€ जीवातमाओं को उनके करमानसार नया जनम देने से à¤à¥€ ईशवर हमारा माता-पिता दोनों ठहरता है। हमारे à¤à¥Œà¤¤à¤¿à¤• माता-पिता हमें जञान देते हैं अथवा हमें जञान परापति का साधन व कारण बनते हैं। ईशवर ने सृषटि के आरमठमें आदि मनषयों व à¤à¤¾à¤µà¥€ सनततियों को ‘’वेद’’ जञान दिया, हममे जो सवाà¤à¤¾à¤µà¤¿à¤• जञान है, वह à¤à¥€ उसी का दिया हआ होने से वह हमारा माता व पिता दोनों है। ईशवर से हमारा समबनध गरू व शिषय तथा सवामी व सेवक आदि का à¤à¥€ सिदध होता है। माता-पिता सनतान को आशरय हेत घर बना कर देते है, परमातमा ने हमारे वे सà¤à¥€ जीवातमाओं के लि इस सृषटि व इसके सà¤à¥€ पदारथों को बनाया है। यह सृषटि और शरीर ही हमारा मखय आशरय है जो ईशवर की कृपा व उसकी हमें बहमूलय देन है। सवामी दयाननद सदाचारी, सचचे जञानी, सचचे ईशवर à¤à¤•à¤¤, पराणी मातर के हितैषी, सचचे देश à¤à¤•à¤¤, सचचे आचारय व गरू थे, अत: वह ईशवर के सचचे व योगयतम पतर थे।
अब महरषि दयाननद सरसवती के सचचे सनदेशवाहक होने पर à¤à¥€ विचार कर लेते हैं। सवामी दयाननद ने वेदाधययन व योगाà¤à¤¯à¤¾à¤¸ कर ईशवर, जीवातमा व परकृति के सवरूप, करतवय-अकरतवय, धरम-अधरम, बनधन-मकति, जीवन-मृतय, धरम व मत-मतानतरों के यथारथ सवरूप व उनमें अनतर व à¤à¥‡à¤¦, सवदेशीय राज व विदेशी राज व विदेशी राज में à¤à¥‡à¤¦, सचची ईशवरोपासना, मूरतिपूजा-अवतारवार-मृतक शरादध व फलित जयोतिषद का मिथयातव, गण-करम-सवà¤à¤¾à¤µà¤¾à¤¨à¤¸à¤¾à¤° वरण वयवसथा, जनम पर आधारित जाति वयवसथा का मिथयातव, विवाह का पूरण यवावसथा में गण-करम-सवà¤à¤¾à¤µà¤¾à¤¨à¤¸à¤¾à¤° होना वेद सममत अनयथा वेदविरूदध आदि जीवनोपयोगी आचरणों को यथारथ रूप में जानकर संसार के उपकार की à¤à¤¾à¤µà¤¨à¤¾ से उनका परचार किया जिससे वह सचचे ईशवर के सनदेश वाहक सिदध होते हैं। ईशवर के पैगाम को संसार में फैलाने व मनवाने के कारण लोगों ने उनके पराण ले लिये और उनहोंने उफ तक à¤à¥€ न की। उनके समान अनय कोई सनदेशवाहक इतिहास में उपलबध नहीं होता। यदि ह हैं तो उनका कारय सतय व सरवांगीण न होकर कांगी व सतयासतय मिशरित होने से वह ईशवर का सीमित सनदेश दे सके और साथ में अहित की बातें à¤à¥€ उसमें सममिलित हैं। वेद जञान से शूनय होने के कारण पूरव के सà¤à¥€ सनदेश वाहक समाज पर ईशवरेचछा के अनरूप परà¤à¤¾à¤µ नहीं डाल सके। इन सब से à¤à¤¿à¤¨à¤¨ महरषि दयाननद सरसवती ईशवर के क से सनदेशवाहक हैं जिनहोंने समाज, देश व विशव को जो दिवय आधयातमिक व à¤à¥Œà¤¤à¤¿à¤• उननति का सनदेश दिया जो उनसे पूरव अनयों दवारा नहीं दिया गया, इस कारण उनका सथान सरवोपरि है। हमारा यह मूलयांकन निषपकष है। इस विषय में हम परमाण व तरकपूरण आलोचनाओं का सवागत करेगें।
हम समते हैं कि हमने लेख के विषय के अनरूप अपने विचार परसतत कर दिये हैं। सतय का गरहण व असतय के तयाग की à¤à¤¾à¤µà¤¨à¤¾ से ही हम लेख लिखते हैं। मनषय जीवन का उददेशय सतयासतय का निरणय कर सतय को सवीकार करने के लि है, वितणडा या असतय विचारों पर सथिर वयकतिया वयकतिसमूह अपनी व अपने समूह की हानि करते हैं। सा करना मनषयपन से बहि: है। इसी à¤à¤¾à¤µà¤¨à¤¾ से यकत यह लेख है। ईशवर करे कि सतय मानयतायें संसार के सà¤à¥€ लोगों के हृदय में सथान पायें।
बहत सनदर लेख