संसार में किसी भी वसत का जञान परापत करना हो तो उसे देखकर व विचार कर कछ-कछ जाना जा सकता है। अधिक जञान के लिये हमें उससे समबनधित परामाणिक विदवानों व उससे समबनधित साहितय की शरण लेनी पड़ती है। इसी परकार से ईशवर की जब बात की जाती है तो ईशवर आंखों से दृषटिगोचर नहीं होता परनत इसके नियम व वयवसथा को संसार में देखकर क अदृशय सतता का विचार उतपनन होता है। अब यदि ईशवर की सतता के बारे में परामाणिक साहितय मिल जाये तो उसे पढ़कर और उसे तरक व विवेचना की तराजू में तोलकर सतय को परयापत मातरा में जाना जा सकता है। ईशवर का जञान कराने वाली कया कोई परमाणित पसतक इस संसार में है, यदि है तो वह कौन सी पसतक है? इस परशन का उततर कोई विवेकशील मनषय ही दे सकता है। हमने भी इस विषय से समबनधित अनेक विदवानों के गरनथों को पढ़ा है। उन पर विचार व चिनतन भी किया है। इसका परिणाम यह हआ कि संसार की धरम व ईशवर की चरचा करने वाली पसतकों में सबसे अधिक परमाणित पसतक ‘‘चार वेद” ऋगवेद, यजरवेद, सामवेद और अथरववेद हैं। इसके साथ ही वेदों की अनय टीकाओं सहित वेदों पर आधारित दरशन वं उपनिषद आदि गरनथ भी हैं। इन गरनथों वा ईशवर के सवरूप विषयक गरनथों का वेदानकूल भाग ही परमाणित सिदध होता है। वेद के बाद सबसे महतवपूरण गरनथों में सतयारथ परकाश व ऋगवेदादिभाषय भूमिका परमख हैं। इनकी विशेषता यह है कि इनहें क साधारण हिनदी भाषा का जानने वाला वयकति पढ़कर ईशवर के सतयसवरूप से अधिकांशतः परिचित हो जाता है और इसके बाद केवल योग साधना दवारा उसका साकषातकार करने का कारय ही शेष रहता है।

किसी भी मनषयकृत पसतक की सभी बातें सतय होना समभव नहीं होता अतः यह कैसे सवीकार किया जाये कि वेद में सब कछ सतय ही है? इसका उततर है कि हम संसार की रचना व वयवसथा में पूरणता देखते हैं। इसमें कहीं कोई कमी व तरटि किसी को दृषटिगोचर नहीं होती। दूसरी ओर मनषयों की रचनाओं को देखने पर उनमें अपूरणता, दोष व कमियां दृषटिगोचर होती हैं। अतः मनषयों दवारा रचित सभी पसतकें व गरनथ अपूरणता, अशदधियों, तरटियों व कमियों से यकत होते हैं। इसका मखय कारण मनषयों का अलपजञ, ससीम व कदेशी होना है। यह संसार किसी क व अधिक मनषयों की रचना नहीं है। सूरय मनषयों ने नहीं बनाया, पृथिवी, चनदर व अनय गरह वं यह बरहमाणड मनषयों की कृति नहीं है, इसलि कि उनमें से किसी में इसकी सामथरय नहीं है। यह क सी अदृशय सतता की कृति है जो सतय, चितत, दःखों से सरवथा रहित, अखणड आननद से परिपूरण, सरवातिसूकषम, निराकार, सरववयापक, सरवशकतिमान, सरवजञ, सृषटि निरमाण के अनभव से परिपूरण, जीवों के परति दया व कलयाण की भावना से यकत, अनादि, अज, अमर, अजर व अभय हो। सी ही सतता को ईशवर नाम दिया गया है। उसी व सी ही अदृशय सतता से मनषयों को सृषटि के आदि में जञान भी परापत होता है। यह सा ही कि जैसे सनतान के जनम के बाद से माता-पिता अपनी सनतानों को जञानवान बनाने के लि सभी उपाय करना आरमभ कर देते हैं। यदि संसार में वयापक उस सतता से आदि मनषयों को जञान परापत न हो तो फिर उस पर यह आरोप आता है कि वह पूरण व जञान देने में समरथ नहीं है अरथात उसमें अपूरणता या कमियां हैं।

हम संसार में वेदों को देखते है और जब उसका अधययन कर उसकी बातों पर विचार करते हैं तो यह तथय सामने आता है कि वेदों की कोई बात असतय नहीं है। वेदों की क शिकषा है मा गृधः अरथात मनषयों को लालच नहीं करना चाहिये। लालच के परिणाम हम संसार में देखते हैं जो अनततः बरे ही होते हैं। क वयकति धन की लालच में चोरी करता है। क बार व कई बार वह बच सकता है, परनत कछ समय बाद पकड़ा ही जाता है और उसकी समाज में दरदशा होती है। वह अपने परिवारजनों सहित सवयं की दृषटि में भी गिर जाता है। इस क शिकषा की ही तरह वेदों की सभी शिकषायें सतय वं मनषयों के लि कलयाणकारी हैं। महरषि दयाननद चारों वेदों व वैदिक साहितय के अधिकारी व परमाणिक विदवान थे। उनहोंने चारों वेदों की क-क बात पर विचार किया था और सभी को सतय पाया था। उसके बाद ही उनहोंने घोषणा की कि वेद सृषटि की आदि में परमातमा के दवारा आदि चार ऋषि अगनि, वाय, आदितय व अंगिरा को दिया गया जञान है। ऋगवेद, यजरवेद, सामवेद वं अथरववेद, इन नामों से उपलबध मनतर संहितायें सभी सतय विदयाओं की पसतकें हैं। इसमें परा विदया अरथात आधयातमिक विदयायें भी हैं और अपरा अरथात सांसारिक विदयायें भी हैं। महरषि दयाननद की इस मानयता को चनौती देने की योगयता संसार के किसी मत व मताचारय में न तो उनके समय में थी और न ही वरतमान में हैं। इसकी किसी क बात को भी कोई खणडित नहीं कर सका, अतः वेद मनषयकृत जञान न होकर अपौरूषेय अरथात मनषयेतर सतता से परापत, ईशवरीय जञान सिदध हंै। इसका परमाण महरषि दयाननद व आरय विदवानों का किया गया वेद भाषय वं अनय वैदिक साहितय है। यह जञान सृषटि के सभी पदारथों जिनमें पूरणता है, उसी परकार से पूरण वं निरदोष है। यहां यह भी उललेखनीय है कि संसार का कोई मत अपने मत की पसतक को सतयासतय की कसौटी पर न सवयं ही परीकषा करता है और न किसी को अधिकार देता है। अपनी पसतकों के दोषों को छिपाने के सभी ने अजीब से तरक गढ़ लिये हैं जिससे उसके पीछे उनकी संशय वृतति का साकषात जञान होता है। इसी कारण वह सतय जञान से दूर भी है और यही संसार की अधिकांश समसयाओं का कारण है।

  à¤•à¤¿à¤¸à¥€ भी वसत के असतितव को पांच जञान इनदरियों, मन, बदधि, अनतःकरण वा आतमा के दवारा होने वाले जञान व अनभवों से ही जाना जाता है। यह संसार कब, किसने, कैसे व कयों बनाया, इसका निभररानत व यकतियकत उततर किसी मत के विदवान या वैजञानिकों के पास आज भी नहीं है। इसके अतिरिकत चारों वेद बार-बार निशचयातमक उततर देते ह कहते हैं कि यह सारा संसार इसको बनाने वाले ईशवर से वयापत है। यह चारों वेद संसार का सबसे पराचीन जञान व पसतकें हैं। यह महाभारतकाल में भी थे, रामायणकाल व उससे भी पूरव, सृषटि के आरमभ काल से, विदयमान हैं। अतः वेदों की अनतःसाकषी और संसार को देख कर तरक, विवेचना व ईशवर का धयान करने पर ईशवर ही वेदों के जञान का दाता सिदध होता है। इस कसौटी को सवीकार कर लेने पर संसार के सभी जटिल परशनों के उततर मिल जाते हैं जिनका उललेख महरषि दयाननद सरसवती ने अपने अपूरव व अमर गरनथ सतयारथ परकाश में किया है।

 à¤ˆà¤¶à¤µà¤° विषयक तरक व विवेचना हम सवयं भी कर सकते हैं और इसमें 6 वैदिक दरशनों योग-सांखय-वैशेषिक-वेदानत-मीमांसा और नयाय का भी आशरय ले सकते हैं जो वैदिक मानयताओं को सतय व तरक की कसौटी पर कस कर वेदों के जञान को अपौरूषेय सिदध करते हैं। अतः ईशवर का असतितव सतय सिदध होता है। ईशवर का असतितव सिदध हो जाने पर संसार की उतपतति की गतथी भी सल जाती है। यदि ईशवर है तो यह सृषटि उसी की कृति है कयोंकि अनय सी कोई सतता संसार में नही है जो ईशवर के समान हो। सृषटि रचना का निमितत कारण होने से पराणीजगत, वनसपति जगत व इसके संचालन का कारय भी उसी से हो रहा है, यह भी जञान होता है। वेदाधययन, दरशन व उपनिषदों आदि वैदिक साहितय का अधययन कर लेने पर जब मनषय ईशवर, वेद, जीव व परकृति आदि विषयों का जञान करता है तो ईशवर की कृपा से इन सबका सतय सवरूप धयाता व चिनतक की आतमा में परकट हो जाता है। इस धयान की अवसथा को योग दरशन में समाधि कहा गया है। समाधि और कछ नहीं अपित वैदिक मानयताओं को जानकर ईशवर की सतति, परारथना, उपासना में लमबी लमबी अवधि तक विचार मगन रहना व इसके साथ मन का ईशवर के अतिरिकत किसी अनय विषय को समृति में न लाना ही समाधि कहलाती है। इस सथिति को परापत करने का सभी मनषयों को परयतन करना चाहिये। अनय मतों में बिना तरक व विवेचना के उस मत की पसतक की मानयताओं को न, नच के मानना ही करतवय बताया जाता है जबकि वैदिक धरम व केवल वैदिक धरम में इस परकार का किंचित बनधन नहीं लगाया गया है। साधक व उपासक को सवतनतरता है कि हर परकार से ईशवर के असतितव को जांचे व परखे और असतय का तयाग कर सतय को ही गरहण करे।

अतः निषकरष में यह कहना है कि ईशवर के यथारथ जञान के लि विचार व चिनतन के साथ वेद, वैदिक साहितय सहित सतयारथपरकाश वं ऋगवेदादिभाषयभूमिका का अधययन और योगाभयास करते ह विचार, धयान, चिनतन व उपासना कर ईशवर को परापत किया जा सकता है। महरषि दयाननद ने अनेक गरनथ लिखकर यह कारय सरल कर दिया है। सवाधयाय के आधार पर हमारा यह भी मानना है कि वैदिक धरमी सवाधयायशील आरयसमाजी ईशवर को जितना पूरणता से जानता व अनभव करता है, समभवतः संसार के किसी मत का वयकति अनभव नहीं कर सकता कयोंकि वहंा आधेय के लि आधार वैदिक धरम की तलना में कहीं अधिक दरबल है। आईये, वेदाधययन, वैदिक साहितय के अधययन, सतयारथपरकाश और ऋगवेदादिभाषयभूमिका गरनथों का बार-बार अधययन करने सहित योगाभयास का वरत लें और जीवन के चार परषारथ धरम-अरथ-काम-मोकष को सिदध कर जीवन को सफल करें, बाद में पछताना न पड़े।

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