मनषय को यदि अपना परिचय जानना हो तो वह वेद वा वैदिक साहितय में ही मिलता है। परिचय से हमारा तातपरय मनषय वसततः कया है,  इसका सतय जञान का होना ही मनषय का परिचय है। महरषि दयाननद जी ने मनषय की परिभाषा करते ह बताया है कि जो मननशील हो और सव-आतमवत अरथात जैसे मे सख परिय व दःख अपरिय है इसी परकार से अपने हानि व लाभ की तरह दूसरों के सख दःख व हानि लाभ को समता हो। यदि इतना ही जान लिया जाये और इसी पर आचरण किया जाये मनषय क शरेषठ मनषय बन सकता है। सभी मनषयों में कमी यह देखी जाती है कि वह अपने सख व दःख को ही अपना मानते हैं दूसरों के सख व दःख की परवाह नहीं करते और इस कारण हम कई बार दूसरों के सखों की हानि व दःखों की वृदधि कर बैठते हैं। अतः हमें मननशील होना चाहिये और इसके लि आवशयक है कि हम सदगरनथों का नियमित सवाधयाय व अधययन करें। इससे हमें सतय और असतय का जञान होगा जिससे सतय को गरहण करने और असतय को छोड़ने में हमें सहायता मिलेगी। जिस परकार से जञानहीन मनषय पश के समान होता है इसी परकार वेदादि सदगरनथों के अधययन से शूनय मनषय भी पश के समान ही होता है।

आज से लगभग 140 वरष पूरव न केवल भारत देश अपित सारा विशव ही अजञान व अनधविशवासों से भरा हआ था। शायद ही तब किसी को अपवाद सवरप पता रहा हो कि ईशवर, जीवातमा व परकृति का सवरूप कया है? मनषय के ईशवर, अपने परति और संसार व समाज के परति करतवय कया हैं? यदि मनषयों को यह पता होते तो संसार में अनयाय, शोषण, पकषपात, अभाव, रोग व शोक आदि न होते हैं। अजञान के कारण ही मनषय अपने करतवयों के परति अनभिजञ व लापरवाह होता है, मिथया पूजा व उपासना परचलित होती है, मृतक शरादध, फलित जयोतिष, गरूडम, असतय व मिथया गरनथों का अधययन व उनकी मिथया शिकषाओं का आचरण होता है। समाज में समरसता का सथान विषमता लेती है और अजञान व अनधविशवासों के कारण ही लोग अपने सवारथों की पूरति व दूसरों के सवारथों की हानि कर उनका शोषण व उन पर अनयाय करते हैं। इन बराईयों को दूर करने के लि जञान की सरवाधिक आवशयकता है। जञान के दवारा ही अपने करतवय व पदारथों के सतयसवरप को समा जा सकता है व दूसरों को भी समाया जा सकता है। इस पर भी यदि कोई सतय का आचरण न करें तो दणड के दवारा उसका सधार कर उसे सतय मारग पर लाना होता है। आज भी सभी देशों में नयूनाधिक यही परमपरा व वयवसथा चल रही है। कहीं यह अधिक परभावशाली व कारगर है और कहीं यह कमजोर व परभावहीन है। इसको परभावशाली बनाने के लि इसकी वयवसथा करने वाले राजयाधिकारियों व नयायवयवसथा से जड़े ह वयकतियों को पूरण सतय का आगरही व सतयाचरण के आदरश को धारण करना होता है। जहां सा होता है वहां वयवसथा उततम होती है।

महरषि दयाननद जी का जनम आज से 190 वरष पूरव  सन 12 फरवरी, सन 1825 को गजरात के मोरवी जिले के टंकारा नामक गराम में हआ था। उनका किशोरावसथा का गण उनका मननशील होना था। यही कारण था कि जब पिता के कहने से उनहोंने शिवरातरि का वरतोपवास किया तो रातरि में शिवलिंग पर चूहों को विचरण करता देखकर उनको शिवलिंग में क सरवशकतिमान व दैवीय शकति के होने के विशवास को ठेस लगी और उनहोंने निनदरासीन अपने पिता को उठाकर उनसे अनेक परशन किये? पिता के पास उनके परशनों का समाधान नहीं था, अतः उनहोंने उस वरत को समापत कर दिया और सचचे शिव को जानने का संकलप लिया। कालानतर में बहिन की मृतय होने पर उनहें वैरागय हो गया। अब मृतय से बचने और उस पर विजय पाने का क और संकलप उनके मन में उतपनन व धारण हो गया। जब तक माता पिता ने उनहें अधययन करने की सवतनतरता परदान की, वह घर पर रहे और अधययन करते रहे। जब उनके माता-पिता को उनके वैरागय का जञान हो गया और उनहोंने उनके विवाह का निशचय कर दिया, तब उससे बचने के लि और अपने संकलपों को पूरा करने के लि उनहोंने घर का तयाग कर दिया।

उनहोंने देश भर में घूम घूम कर जञानी सतपरषों, योगी, विदवानों, महातमाओं और तपसवियों की संगति की और उनसे जो भी जञान परापत हो सका या साधना का अभयास वह कर सकते थे, उसे उनहोंने जाना व परापत किया। नरमदा के तट व उसके उदगम सहित वह उततराखणड के वन व परवतों के दरगम सथानों में घूम घूम कर वह वहां विदवानों और तपसवी योगियों की तलाश करते रहे। सा करके वह योग व जञान में अनयों की अपेकषा से कहीं अधिक जञानी हो गये। जितना जञान वह परापत कर सके थे, उससे उनका सनतोष व सनतषटि नहीं हई। अभी भी उनहें क से गरू की तलाश थी जो उनकी सभी शंकाओं व संशयों को दूर कर सके। उनकी यह तलाश भी मथरा में परजञाचकष गरू विरजाननद सरसवती को पाकर पूरी हई जिनके साननिधय में लगभग 3 वरष रहकर उनहोंने अषटाधयायी-महाभाषय-निरकत पदधति से आरष वयाकरण, वेद व वेदादि साहितय का अधययन किया। गर विरजाननद ने उनकी सभी शंकाओं व संशयों की पूरण निवृतति कर दी। योग विदया में वह पहले से ही योग गरू शिवाननद परी व जवालाननद गिरी की शिकषाओं व अभयास से निपण हो चके थे। गरू विरजाननद जी से विदयाधययन पूरा कर सन 1863 में उनहोंने उनकी परेरणा से धारमिक व सामाजिक जगत में वेदों वा सतय के परचार को अपने जीवन का मखय उददेशय बनाया। सन 1863 से आरमभ कर अकतूबर, 1883 तक उनहोंने वेद व वैदिक मानयताओं का परचार किया। इसके लि उनहोंने असतय, अजञान व अनधविशवासों का खणडन किया और सभी धारमिक व सामाजिक परशनों के वेदों के आधार पर सतय समाधान परसतत किये। उनके परसिदध कारयों में सन 1869 में काशी में लगभग 30 विखयात शीरषसथ पणडितों से मूरतिपूजा के वेदानकूल होने पर शासतरारथ था जिसमें परतिपकषियों दवारा मूरतिपूजा वेदों के अनकूल सिदध न की जा सकी। सवामी जी ने वेदों के आधार पर मूरतिपूजा सहित मृतक शरादध, फलित जयोतिष, बाल विवाह, सामाजिक विषमता वा जनमना जाति-वरण वयवसथा आदि का परजोर खणडन किया। सतरी व शूदरों के लि निषिदध वेदों के अधययन का उनहोंने उनहें अधिकार दिया।

ममबई में 10 अपरैल, 1875 को वेदों के परचार व असतय के शमन के लि सवामी जी ने आरयसमाज तथा सन 1883 को अजमेर में परोपकारिणी सभा की सथापना की। संसकृत की पाठशालायें खोलकर उनहोंने वेदों के अधययन को परवृतत किया। हिनदी रकषा व हिनदी को सरकारी काम काज की भाषा बनाने के लि हसताकषर अभियान का शरी गणेश किया जिसे अंगरेज सरकार दवारा नियकत हणटर कमीशन को परसतत किया गया। सतयारथ परकाश, ऋगवेदादिभाषय भूमिका, वेदभाषय वं अनय सभी गरनथ हिनदी में लिखकर क अनकरणीय उदाहरण परसतंत किया। धरम गरनथ के रूप में सतयारथ परकाश तथा ईशवरीय जञान वेदों के भाषय को हिनदी में सरवपरथम परसतंत करने का शरेय उनहीं को है। गोरकषा व गोवध रोकने की दिशा में भी उनहोंने गोकरूणानिधि पसतक लिखकर व अनेक राजयाधिकारियों से मिलकर इस दिशा में परशंसनीय कारय किया। गोहतया व गोमांस सेवन को उनहोंने महापाप की संजञा दी और गोरकषा को राषटर की आरथिक उननति का आधार सिदध किया। सतयारथ परकाश, आरयाभिविनय तथा वेदभाषय में सवराजय व सराजय की चरचा कर तथा धारमिक व सामाजिक जागृति उतपनन कर देश की आजादी के आनदोलन के लि भूमि तैयार की। रामायण, महाभारतकालीन और उसके बाद के पूवजों के उतकृषट देशहित के कारय करने के लि उनको सममान व गौरव दिया। खणडन-मणडन, सभी मतों के गरनथों का अधययन और समीकषा, शासतरारथ, वारतालाप, उपदेश व परवचन दवारा भी वैदिक सतय मानयताओं के परचार का तिहासिक कारय उनहोंने किया। उनके आविरभाव से पूरव हिनदओं का अनय मतों में लोभ, बलपरयोग, छल व कपट आदि से धरमानतरण होता था। महरषि दयाननद ने वेदों के आधार पर हिनदू धरम को सतय व जञान पर परतिषठित किया तथा अनय मतों की समीकषा कर उनमें विदयमान अजञान व अनधविशवासों की ओर धयान दिलाया जिससे कपकषीय धरमानतरण समापत हआ और अनय मत के लोग भी सहरष आरय धरम को सवीकार करने लगे। भारतीय समाज से अजञान, अनधविशवास, सामाजिक विषमतायें दूर हई जिससे मनषय परसपर संगठित होकर वैदिक धरम के अनसार ईशवरोपासना, यजञ हवन आदि करने लगे व माता-पिता-आचारय आदि का सममान करने की परेरणा सबको परापत हई। मांसाहार के दगरणों व हानियों से भी लोग परिचित ह तथा बड़ी संखया में लोगों ने इसे तयाग दिया। उनके परचार व परयतनों से शाकाहार में वृदधि हई। गोदगध व गोघृत की महिमा में भी वृदधि हई। भारतीयता व पराचीन भारत का गौरव महरषि दयाननद के कारयों से न केवल देश में ही अपित विदेशों में भी बढ़ा। से अनेकानेक कारय महरषि दयाननद जी ने किये जिससे देश को अपूरव लाभ हआ और उननति हई।  

महरषि के परचार से सभी मतों के लोग उनके विरोधी व शतर बन गये थे। क षडयनतर के अनतरगत जोधपर में उनको विष देकर उनका जीवन समापत कर दिया गया। दीपावली के दिन अजमेर में सूरयासत के समय उनहोंने अपने पराणों को ईशवर की सतति, परारथना वं उपासना करते ह सवेचछा से तयाग दिया।  महरषि दयाननद ने वेदों के जञान को परापत कर पनः संसार को उपलबध कराया व ईशवर तथा जीवातमा आदि के सतय सवरूप से परिचय व ईशवर उपासना की सचची पदधति हमें बताई। दीपावली पर उनके बलिदान परव पर हम उनको अपनी हृदय के परेम से सिकत शरदधाजंलि परसतत करते हैं। उनके अपूरव कारयों से मानवता लाभानवित हई है, अतः सारा संसार उनका ऋ़णी है। उनका यश व कीरति चिरसथाई रहेगी।

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