धरम व संसकृति के इतिहास पर दृषटि डालने पर यह तथय परकट होता है कि महाभारत काल में हरासोनमख वैदिक धरम व संसकृति दिन परतिदिन पतनोनमख होती गई। महाभारत यदध का समय लगभग पांच हजार वरष क सौ वरष है। महाभारत काल तक भारत ही नहीं अपित समूचे विशव में वैदिक धरम व संसकृति का परचार रहा है। यह भी तथय है कि विशव में आज से पांच हजार वरष पूरव कोई अनय मत, धरम व संसकृति थी ही नहीं। वेद-आरय धरम के पतन का कारण ऋषि-मनि कोटि के विदवानों व आचारयों का अभाव व कमी ही मखयतः परतीत होती है। महाभारत यदध में देश के बड़ी संखया में अनेक राजा, कषतरिय व विदवान मृतय को परापत ह। इससे राजवयवसथा में खामियां उतपनन हई। वरण-संकर का कारण भी यह महाभारत यदध था। वैदिक वरण वयवसथा धीरे-धीरे समापत हो गई और उसका सथान जनमना जाति वयवसथा, जिसे महरषि दयाननद ने मरण वयवसथा कहा है, ने ले लिया। ऋषि-मनियों व वेदों के विदवानों की कमी व परजा दवारा धरम-करम में रचि न लेने के कारण अजञान व अनधविशवास उतपनन होने आरमभ हो गये थे जो उननीसवीं शताबदी, आज से लगभग 150 वरष पूरव, अपनी चरम अवसथा में पहंच चके थे। लोगों को यह पता ही नहीं था कि यथारथ धरम जो सृषटि के आरमभ में ईशवर दवारा चार आदि ऋषियों को दिये ग चार वेदों ऋगवेद, यजरवेद, सामवेद और अथरववेद के जञान से आरमभ हआ था, वह परचलित अजञान व अनधविशवासयकत मत वा धरम से कहीं अधिक उतकृषट व शरेषठ था व है। सौभागय से देश के सौभागय का दिन तब आरमभ हआ जब महरषि दयाननद के विदया गरू सवामी विरजाननद जी का जनम पंजाब के करतारपर की धरती पर हआ। बचपन में उनके माता-पिता का देहानत हो गया था। शीतला अरथात चेचक का रोग होने के कारण आपकी दोनों आंखे बचपन में ही चली गई। आपके भाई व भाभी का सवभाव व वयवहार आपके परति उपेकषा व परताड़ना का था। अतः आपने गृह तयाग कर दिया। आपको घर से न जाने देने व रोकने वाला तो कोई था ही नहीं। अतः आप घर छोड़ने के बाद ऋषिकेश, हरिदवार व कनखल आदि सथानों पर रहकर तपसया व साधना करते रहे। संसकृत का अधययन भी आपने किया। विदया गरहण के परति उचच भाव संसकाररूप में आपमें विदयमान थे जिसका लाभ यह हआ कि आप नेतरहीन होने पर भी संसकृत व वैदिक जञान से समपनन ह जो कि विगत पांच हजार वरषों में ह अनय विदवानों के भागय में नहीं था।

इतिहास में सवामी दयाननद जी का वयकतितव भी अपूरव व महान है। वह भी 14 वरष की अवसथा में सन 1839 की शिवरातरि के दिन वरत व पूजा में अजञान व अनधविशवास की बातों का परमाण अपने शिवभकत पिता से मांगते हैं। उनका समाधान न पिता और न ही अनय कोई कर पाता है। उनमें सचचे शिव वा ईशवर को जानने का संसकार वपन हो जाता है। शिवरातरि की घटना के बाद मूलशंकर, सवामी दयाननद का जनम का नाम, की बहिन और चाचा की मृतय हो जाती है। अब उनहें मृतय से डर लगता है। वह मृतय का उपाय जानने की कोशिश करते हैं, परनत उनका निशचित समाधान घर पर रहकर नहीं होता। अतः वह अपने परशनों के समाधान के लि बड़े योगियों व विदवानों की शरण में जाने के लि अपनी आय के बाईसवें वरष में घर का तयाग कर निकल पड़ते हैं। सवामी विरजाननद जी के पास सन 1860 में पहंच कर व उनसे लगभग 3 वरष अधययन कर उनकी सभी इचछायें पूरी होती है। समाधि सिदध योगी तो वह गर विरजाननद जी के पास आने से पहले ही बन चके थे। अब वह वेद विदया में निषणात भी हो गये। सवामी विरजाननद जी से विदा लेने से पूरव सवामी दयाननद अपने गर के लि उनकी परिय वसत लौंग दकषिणा के रूप में लेकर उपसथित होते हैं। गरजी इस दकषिणा को सवीकार करते ह दयाननद जी से अपने मन की बात कहते हैं। उनहोंने कहा कि सारा देश ही नहीं अपित विशव अजञान व अनधविशवासों की बेडि़यों में जकड़ा हआ है जिससे सभी मनषय नानाविध दःख पा रहे हैं। उनहें दूर करने का क ही उपाय है कि वेदों के जञान का परचार कर समसत अजञान, अनधविशवास व करीतियों को दूर किया जाये। गरजी सवामीजी से वेदों का परचार कर मिथया अनधविशवासों का खणडन करने का आगरह करते हैं। उततर में सवामी दयाननद अपने गर की आजञा शिरोधारय कर उसके अनसार अपना जीवन अरपित करने का वचन देते हैं। गरजी दयाननदजी के उततर से सनतषट हो जाते हैं। सवामी दयाननद का इस घटना के बाद का सारा जीवन अजञान पर आधारित अनधविशवासों के खणडन, समाज सधार व सतय जञान के भणडार वेदों के परचार में ही वयतीत होता है।

सवामी दयाननद जी ने गरजी से विदा लेकर मूरतिपूजा, मृतक शरादध, फलित जयोतिष, सामाजिक विषमता व सभी सामाजिक करीतियों का खणडन करने के साथ वेदों की शिकषाओं का परचार किया। वह क-क करके अनेक सथानों पर जाते, वहां परवचन देते, लोगों से मिलकर उनकी शंकाओं का समाधान करते, पौराणिक व इतर मतों के विदवानों से शासतरारथ करते और वेदों के परमाणों व यकतियों से अपनी बात मनवाते थे। 16 नवमबर, 1869 को काशी में मूरतिपूजा पर वहां के शीरषसथ लगभग 30 पणडितों से उनका विशव परसिदध शासतरारथ हआ जिसमें वह विजयी होते हैं। इसके बाद उनहोंने आरयसमाजों की सथापना, सतयारथपरकाश, ऋगवेदादिभाषय भूमिका, वेद भाषय, संसकारविधि, आरयाभिविनय, गोकरूणानिधि, वयवहारभान आदि गरनथों का परणयन किया तथा परोपकारिणी सभा की सथापना की।  इन सबका उददेशय देश व विशव से धारमिक अजञान, अनधविशवास सहित सामाजिक विषमता तथा सभी सामाजिक करीतियों को दूर कर वैदिक धरम की विशव में सथापना करना था जिससे संसार से दःख समापत होकर सरवतर सख व आननद का वातावरण बने।

सवामी विरजाननद जी और सवामी दयाननद के जीवन का सबसे बड़ा गण उनका ईशवर के सचचे सवरप का जञान, उसके परति पूरण समरपण, वेदों का यथारथ जञान तथा उसके परचार व परसार की परचणड व परजजवलित अगनि के समान तीवरतम परबल व दृण भावना का होना था। अजञान व अनधविशवास सहित सामाजिक विषमता व सभी सामाजिक करीतियां उनहें असहय थी। उनहोंने पराणपण से वेदों का परचार कर अजञान के तिमिर का नाश किया। उन दोनों महापरषों के समान वेदों का जञान रखने वाला व उनके परचार व परसार के लि अपनी पराणों को हथेली पर रखने वाला उनके समान ईशवरभकत, वेदभकत, देशभकत, ईशवर-वेद-धरम का परचारक, अदवितीय बरहमचारी, माता-पिता-परिवार-गृह-संबंधियों का तयागी व हर पल समाज, देश व मानवता के कलयाण का चिनतन व तदनरप कारयों को करने वाला महापरष दूसरा नहीं हआ। उनहोंने अपने जीवन में जो कारय किया, वह आदरश कारय था जो ईशवर दवारा परेरित होने सहित उसे करने की समसत शकति व बल भी उनहें ईशवर की ही देन था। यदि यह दोनों महापरष यह कारय न करते तो हमें लगता है कि कछ समय बाद वैदिक धरम व संसकृति संसार से विदा हो कर इतिहास की वसत बन जाती। सवामी विरजाननद और सवामी दयाननद जी ने परसपर मिलकर जो कारय किया उसे अभूतपूरव कह सकते हैं। महरषि दयाननद जैसा ईशवर-वेद-देश-समाज भकत दूसरा मनषय नहीं हआ है। उनहोंने संसार के लोगों को सचचा मारग दिखाया। उसी मारग का अनसरण कर ही मनषय अपनी आतमा की उननति कर सकता है, अपने भविषय व मृतयोततर जीवनों व जनमों को संवार सकता है और धरम-अरथ-काम व मोकष की परापति कर सकता है। यही मनषय जीवन का चरम व परमख उददेशय व लकषय है। अपने गणों व कारयों से न केवल गर विरजाननद अपित महरषि दयाननद भी सूरय व चनदर की समापति तक अमर रहेंगे। इन दोनों महान आतमाओं का विशव के इतिहास में अदवितीय व अमर सथान बन गया है। उनके परयासों के परिणाम से हम निःसंकोच वैदिक धरम को भविषय का विशव धरम भी कह सकते हैं जिसमें सभी मनषयों का सख व कलयाण निशचित रप से निहित है। अनय कोई मारग व पथ मनषय जीवन व देश की उननति व दःखों से मकति का नहीं है।

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