वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून में 21 मार्च, 2016 को 21 दिवसीय चतुर्वेद पारायण यज्ञ सोत्साह सम्पन्न हुआ। यह यज्ञ वैदिक जगत के प्रमुख श्रद्धावान याज्ञिक स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती जी की प्रेरणा, सहयोग व मार्गदर्शन में आयोजित हुआ जिसके ब्रह्मा आर्यजगत के प्रमुख विद्वान आचार्य विद्यादेव जी थे। प्रातः 9.00 बजे यज्ञ की पूर्णाहुति सम्पन्न हुई।

महात्मा आनन्द स्वामी जी की प्रेरणा और बावा गुरमुख सिह जी के दान से स्थापित यह वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून नगर से 6 किमी. की दूरी पर स्थित है। यह स्थान चारों ओर आबादी के बीच हैं जहां बाहर कोलाहल व व्यस्त जीवन रहता है। इससे 2 किमी. की दूरी पर पर्वतों में वनों के बीच शान्तिपूर्ण स्थान पर एक गोशाला स्थित है। इससे और आगे नीचे के मुख्य आश्रम से लगभग 3.5 किमी. की दूरी पर तपोवन नामक वास्तविक तपोभूमि है जहां यह चतुर्वेद पारायण यज्ञ सम्पन्न हुआ है। कई एकड़ के विशाल सुरम्य व शान्त भूखण्ड में स्थित यह तपोभूमि देद्वार के के ऊंचे ऊंचे वृक्षों से आच्छादित है और पूर्णतया शान्त है जहां ग्रीष्म ऋतु में भी शीतल वायु का स्पर्श प्रसन्नता प्रदान करता है। इस तपोभूमि के आसपास न किसी के निवास हैं, न वाहनों की आवाजाही और न हि किसी प्रकार का कोलाहल। इस पर्वतीय तपोभूमि पर विगत दिनों एक भव्य विशाल हाल का निर्माण किया जा चुका है। यहां कुछ पुरानी कुटियायें भी बनी हुई हैं जिसमें स्वामी योगानन्द सरस्वती, महात्मा आनन्द स्वामी जी, महात्मा प्रभु आश्रित जी, महात्मा दयानन्द जी आदि अनेक योगियों ने समय-समय पर योग साधनायें की हैं। यहां स्थाई यज्ञशाला न होने के कारण स्वामी चित्तेश्वरानन्द जी व याज्ञिक साधकों ने एक यज्ञशाला की आवश्यकता अनुभव की व इसे शीघ्र निर्मित कराने का निर्णय किया। तपोवन आश्रम के सचिव इं. श्री प्रेम प्रकाश शर्मा ने यज्ञशाला के लिए अपनी ओर से 1 लाख रूपये का दान देने की घोषणा की। इसका अनुसरण करते हुए स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती सहित डा. वेदप्रकाश गुप्ता, श्री गोयल, श्रीमति रचना आहूजा जी दिल्ली आदि ने भी एक-एक लाख रूपये यज्ञशाला के लिये दान देने की घोषणायें कीं। कईयों ने 51 हजार व अनेकों ने 21 व 11 हजार रूपये दान देने के संकल्प किये। आशा है कि शेष धन की व्यवस्था भी हो जायेगी और पर्वतीय तपोभूमि में शीघ्र ही एक भव्य यज्ञशाला बन कर तैयार हो जायेगी। यज्ञशाला के निर्माण व दान सम्बन्धी प्रकरण के बाद भजन, कविता पाठ, गीत व प्रवचनों का कार्यक्रम हुआ। डा. वेद प्रकाश गुप्ता जी, श्री के.के भाटिया, श्री आनन्द मुनि, बहिन राज सरदाना जी, श्री जय भगवान शर्मा और स्वामी ब्रह्मलीन जी की कवितायें एवं गीत आदि हुए। भक्तिभाव से गाये सभी गीत, कविताओं व भजनों को श्रद्धालुओं ने पसन्द किया व सराहना की। 

मुख्य प्रवचन यज्ञ के ब्रह्मा आचार्य विद्यादेव जी का हुआ। उन्होंने कहा कि जब-जब सर्वशक्तिमान परमात्मा की कृपा होती है तब-तब ऐसे यज्ञादि शुभ कार्य करने का अवसर प्राप्त होता है। संसार की नश्वरता को ध्यान में रखते हुए आप लोगों को यहा जो कुछ सीखने को मिला है, उसे आपको बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिये। आचार्यजी ने श्मशान वैराग्य की चर्चा की और कहा कि यह शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। याज्ञिक बन्धुओं को यहां 21 दिवसीय यज्ञ में जो मिला है उसे वह और अधिक बढ़ायें और उन गुणों को धारण कर सदाचारी व समर्थ व्यक्ति बनने का प्रयास करें। आचार्य विद्यादेव ने महाभारत के एक प्रसंग की चर्चा कर यक्ष व युधिष्ठिर के प्रश्न व उत्तर को प्रस्तुत किया। यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था कि संसार का क्या हाल व समाचार है। आचार्य जी ने कहा कि यह संसार एक मोह रूपी कढ़ाहा है और उस कढ़ाहे में हम सब मनुष्य पकने के लिए पड़े हैं। इस कढ़ाहे को सूर्य की अग्नि तपा रही है। रात्रि व दिन ईधन हैं तथा ऊपर नीचे करने के लिए करछी के रूप में महीने व ऋतुएं हैं। इस कढ़ाहे में हम पक रहे हैं। आचार्यजी ने कहा कि इस तरह का हमारा जीवन है। यह है हमारे संसार का समाचार जो युधिष्ठिर जी ने यक्ष को उसके प्रश्न के उत्तर के रूप में दिया था। उन्होंने आगे कहा कि जन्म व मृत्यु नियम हैं। हमें इस संसार से जाना है। मेरा जीवन है ही क्या? कुछ भी नहीं। पता नही हम कब चलें जायें।

आचार्यजी ने स्वामी चित्तेश्वरानन्द जी की भावनाओं एवं कार्यों की भूरि भूरि प्रशंसा की। उन्होंने बताया कि मैंने उन्हें रोगी होते हुए भी यज्ञ में पहुंचते देखा है। वह सबको सचेत करते हैं। पीछे हटते नहीं और सबको आगे बढ़ाते हैं। आचार्य जी ने कहा कि इस तपोभूमि में अनेकानेक पवित्र आत्माओं ने तप किया है। उन्होंने कहा कि योग साधक यहां योग के रहस्यों को जानने का प्रयत्न करते हैं। जीवन को बनाने का प्रयत्न हम सबको करना चाहिये। विद्वान आचार्य विद्यादेव जी ने कहा कि सन् 1875 से सन् 1910 तक आर्यसमाज का स्वर्णिम काल रहा है। इस अवधि में आर्यसमाज ने अनेक सराहनीय कार्य किये। हमारे इस अवधि के पूर्वज जो बोलते थे वह उनके जीवन में पाया जाता था। दूसरे लोग उनके सम्पर्क में आकर उनके गुणों व आचरण से बदल जाते थे। स्वामी चित्तेश्वरानन्द जी का जीवन व व्यक्तित्व भी ऐसा ही आकार्षक जीवन है जो दूसरों के लिए प्रेरक एवं आदर्श है। यह संसार नश्वर है। शरीर कब तक रहेगा? हम नहीं जानते। हमें अनेक आध्यात्मिक तथ्यों की जानकारी है। शास्त्रानुसार हम इस समय मर भी रहे हैं व जन्म भी ले रहे हैं। एक समय ऐसा आता है जब पूर्ण मृत्यु हो जाती है। हम शरीर छोड़ कर चले जाते हैं। वेदों में शरीर व आत्मा के संवाद का वर्णन है। आत्मा शरीर अर्थात् देह से कहती है कि मुझे पता है कि तू जन्म व मृत्यु के स्वभाव वाला है। कहा नहीं जा सकता कि तू कब मुझ आत्मा का साथ छोड़ दे। एक उद्देश्य की पूर्ति के लिए मनुष्य को यह शरीर मिला है। वह उद्देश्य है मोक्ष वा मुक्ति। मेरा यह आत्मा बिना तुझ शरीर की सहायता के मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता। तू मुझे मोक्ष तक पहुंचा सकता है। आत्मा की वेदना यह है कि यह शरीर पता नहीं कब मेरा साथ छोड़ देगा। मनुष्य का जीवन साधरण जीवन नही हीरा जीवन है। हमें जीवन का उद्देश्य मोक्ष इसी समय पूरा करना चाहिये। कल की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये वरना समय हाथ से निकल जायेगा। भविष्य का कुछ भी निश्चित नहीं है। वेद मन्त्र हमें सावधान करता हैं। वेद कहता है कि जीवन के उद्देश्य मोक्ष की पूर्ति इसी जीवन में शीघ्रातिशीघ्र करने का प्रयास करो। जीवन में आपने जो सीखा है, उसे बढ़ाओ। यदि खुद सीखोगे नहीं और सीखे हुए का प्रचार नहीं करोगे तो आपको कुछ लाभ न होगा। सीखना भी है और उसका प्रचार भी करना है। यहां आपने जो साधना की है उसे आपको सफल बनाना है। जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति का मार्ग छुरे की तेज धार पर चलने समान है। मोक्ष प्राप्ति के कार्य में हमारे कई जीवन लग सकते हैं। इसलिए आप शिथिलता न बरते। हम सबको अपने शरीर अर्थात् स्वास्थ्य पर ध्यान देना ही होगा। शरीर आत्मा का साधन है। इस शरीर रूपी साधन को ठीक रखना ही होगा नहीं तो लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा। आप जीवन के उद्देश्य को भूल न जाना। ईश्वर की प्राप्ति की साधना में लगे रहिये। ऐसा करेंगे तो आप अपने जीवन के उद्देश्य वा लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकेंगे। संसार में अनन्त जीवात्मायें हैं और इन सबका कई बार मोक्ष हुआ है। इसलिये हमें प्रयास करना है। मोक्ष की प्राप्ति होने पर मनुष्य एक परान्त काल जो कि इस सृष्टि के जन्म व प्रलय की अवधि 8 अरब 64 करोड़ वर्ष का 36,000 गुणा होता है, इतनी लम्बी अवधि के लिए दुःखों अर्थात् जन्म मरण के चक्र से छूट जाते हैं। आचार्य जी ने अपने प्रवचन को समापत करते हुए कहा कि जीवात्मा अल्पज्ञ है। यह कभी ऊपर चढ़ जाती है और कभी गिर भी जाती है। स्वामी चित्तेश्वरानन्द जी के गुणों की प्रशंसा कï

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