डा. भीमरावजी अम्बेडकर आजकल देश व विश्व में एक जाना माना नाम है। आपने भारत के संविधान के निर्माण में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है। इसके साथ ही आप भारत में प्रथम कानून मंत्री के रूप में भी आदृत रहे हैं। डा. अम्बेदकर जी की पृष्ठभूमि एक दलित परिवार से थी। दलित होने के कारण आपको हिन्दू द्विजों की उपेक्षा एवं पक्षपात पूर्ण व्यवहार का शिकार होना पड़ा। महर्षि दयानन्द महाभारत काल के बाद शायद पहले व सबसे अधिक प्रभावशाली सुधारक रहे जिन्होंने वेदादि शास्त्रों के आधार पर जन्मना जातिवाद व अस्पर्शयता आदि को वैदिक विचारधारा व सिद्धान्तों के प्रतिकूल सिद्ध किया था। आपने हिन्दू पौराणिक ब्राह्मण वर्ग द्वारा स्त्री व दलितों से छीने गये वेदों के अध्ययन के अधिकार को न केवल लौटाया अपितु इसके समर्थन में अनेक प्रमाण देने के साथ आपके अनुयायियों द्वारा स्थापित गुरुकुलों व अन्य शिक्षण संस्थाओं में दलित विद्यार्थियों को प्रवेश दिया और उन्हें हिन्दू पौराणिक ब्राह्मणों से भी अधिक संस्कृतज्ञ व वेदों का वेदपाठी विद्वान पण्डित बनाया। उनके व उनके अनुयायियों के प्रयासों से देश में जन्मना जातिवाद की दीवारे कमजोर हुईं व टूटी और इसके साथ दलितों सहित सभी समुदायों के लोगों को शिक्षा व समाज में समानता के अधिकार मिले। ईश्वरीय ज्ञान वेदों के पुनरुद्धार सहित सामाजिक समानता और सभी प्रकार के सामाजिक सुधारों का श्रेय भी महर्षि दयानन्द व उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज को ही है।

14 अप्रैल, सन् 1891 और मध्य प्रदेश का महू स्थान भारत के संविधान निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर जी की जन्मतिथि व जन्मभूमि है। डा. अम्बेडकर जी की 125 वीं जयन्ती पर हम आर्यसमाज के उच्च कोटि के विद्वान डा. कुशलदेव शास्त्री का ‘‘आर्यसमाज और डा. अम्बेडकर विषयक लेख प्रस्तुत कर रहे हैं जिसमें डा. अम्बेडकर के आर्यसमाज के अनुयायियों से सम्बन्घ व सहयोग सहित उन पर आर्यसमाज के प्रभाव को रेखांकित किया गया है। विद्वान लखक ने लिखा है कि आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म सन् 1825 में और बलिदान 1883 में हुआ था। आर्यसमाज की स्थापना के 16 वर्ष बाद और स्वामी दयानन्द के देहावसान के लगभग 8 वर्ष बाद 14 अप्रैल, 1891 को भारतरत्न डा. भीमराव अम्बेडकर का महू (मध्यप्रदेश) में जन्म हुआ। यह तो स्पष्ट ही है कि माननीय डा. अम्बेडकर के काल में स्वामी दयानन्द शरीररूप में विद्यमान नहीं थे, पर आर्यसामाजिक आन्दोलन के रूप में उनका यशःशरीर तो जरूर विद्यमान था। डा. भीमराव अम्बेडकरजी की ग्रन्थ सम्पदा इस बात की साक्षी है कि वे स्वामी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज तथा उनके अनुयायियों की गतिविष्धियों से अच्छी तरह परिचित थे। प्रस्तुत काल में आर्यसमाज का आन्दोलन अपने पूरे यौवन पर था, जिसका प्रभाव डा. अम्बेडकर और उनके युग पर निश्चित रूप से पड़ा है। डा. कुशलदेव शास्त्री ने यह पंक्तियां डा. अम्बेडकर और आर्यसमाज के परस्पर सम्बन्धों को उपलब्ध जानकारी के आधार पर प्रस्तुत किया है।               

जैसे स्वामी दयानन्द गुजराती होते हुए भी मूलतः औदीच्य तिवारी ब्राह्मण माने जाते थे, वैसे ही डा. अम्बेडकर भी मध्यप्रदेश में जन्म लेने के बावजूद मूलतः तथाकथित शूद्र (महार) कुलोत्पन्न महाराष्ट्रीय के रूप में सुप्रसिद्ध थे। कालान्तर में यह दोनों विभूतियां राष्ट्रीय ही नहीं, अपितु अन्तर्राष्ट्रीय महापुरुष के रूप में भी सुप्रसिद्ध हुईं। जिस समय महाराष्ट्र में (तत्कालीन मुम्बई राज्य में) रानाडे-फुले युग का अस्त हो रहा था, उसी समय वहां श्री सयाजीराव गायकवाड़, राजर्षि शाहू महाराज तथा डा. अम्बेडकर के युग का उदय हो रहा था। यह दूसरी पीढ़ी भी अपनी पूर्ववर्ती दयानन्द-रानाडे-फुले आदि महापुरुषों की कार्यप्रणाली से प्रभावित और प्रेरित रही है। श्री सयाजीराव गायकवाड़ और राजर्षि शाहू महाराज स्वामी दयानन्द और उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज से अधिक प्रभावित थे, तो डा. अम्बेडकर महात्मा फुले और उनके द्वारा स्थापित सत्य शोधक समाज से। श्री सयाजीराव गायकवाड़ और राजर्षि शाहू महाराज आर्यसमाजी होते हुए भी सत्य शोधक समाज के भी सहयोगी और प्रशंसक रहे, तथा डा. अम्बेडकर महात्मा फुले के शिष्य होते हुए भी स्वामी दयानन्द और उनके आर्यसमाजी आन्दोलन के प्रशंसक होने के साथ-साथ समालोचक भी हैं, पर उन्हें आर्यनरेश द्वय श्री गायकवाड़ और राजर्षि शाहू की तरह आर्यसमाज आन्दोलन के सहयोगियों में नहीं खड़ा किया जा सकता। हां ! आर्यसमाजी आन्दोलन के डा. अम्बेडकर हमेशा से ही हितैषी रहे हैं।

डा. अम्बेडकर के लिए स्वामी दयानन्द की तुलना में महत्मा फुले अधिक आराध्य रहे। डा. अम्बेडकर ने गौतम बुद्ध, सन्त कबीर और महात्मा फुले की महापुरुष त्रयी को अपना गुरु माना है। संस्कृत व राष्ट्रभाषा हिन्दी की तरह प्रान्तीय स्तर पर मराठी में काम-काज न कर पाने के कारण महाराष्ट्र में आर्यसमाज का आन्दोलन उतना प्रभावी ढंग से न चल सका जितना कि उत्तर भारत में। राजर्षि शाहू महाराज के अनुसार ब्राह्मण नौकरशाही के कारण महाराष्ट्र में आर्यसमाज का आन्दोलन प्रभावी नहीं हो सका।

डा. अम्बेडकर जी की शिक्षा में बड़ौदा नरेश जी का सहयोग रहा है। इण्टर पास करने के बाद डा. भीमराव अम्बेडकर को बी.ए., एम.ए., पी.एच,डी., डी.एस.सी. (लन्दन), एल.एल.डी., बार-एट-ला, जैसी उपाधियों से विभूषित और प्रकाण्ड पण्डित बनाने में आर्यसमाजी आन्दोलन का, प्रत्यक्ष नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप में, अविस्मरणीय योगदान रहा है। इस बात को और कोई जाने या न जाने स्वयं डा. अम्बेडकर जरूर जानते थे। इसलिए भी उनके ग्रन्थों में आर्यसमाजी आन्दोलन के प्रति विशेष सहानुभूति नजर आती है। जहां आर्य नरेश श्री सयाजीराव गायकवाड़ ने एन् 1912 से 1915 तक डा. भीमराव अम्बेडकर को उच्च विद्या-विभूषित करने के लिए शिष्यवृत्तियां प्रदान कीं और उन्हें अमेरिका भेजा, वहां अपने-आपको हृदय से आर्यसमाजी कहलानेवाले राजर्षि शाहू महाराज ने भी सन् 1919 से 1922 तक अम्बेडकरजी को विदेश जाकर अध्ययन करने के लिए आर्थिक दृष्टि से सम्पूर्ण सहयोग दिया था।

आर्यनरेश राजर्षि शाहू महाराज ने पत्रकार डा. अम्बेडकर के प्रथम पत्र मूकनायक के संचालन में भी आर्थिक महायता प्रदान की थी और इतना ही नहीं सन् 1920 में माणगांव में सम्पन्न प्रथम अस्पृश्यता परिषद में कोल्हापुर के आर्य नरेश शाहू महाराज ने यह भविष्यवाणी भी की थी कि डा. अम्बेडकर भारतवर्ष के अखिल भारतीय नेता होंगे। तत्कालीन मुम्बई राज्य के इन दोनों राजाओं के पास जो यह उदारमन और उदारदृष्टि थी, उसकी पृष्ठभूमि में स्वामी दयानन्द खड़े हुए नजर आते हैं। इन दोनों ही आर्यनरेशों के अन्तःकरण पर निर्विवाद रूप से आर्यसमाजी आन्दोलन की विशिष्ट छाप रही है।

स्वामी श्रद्धानन्द (1856-1926) महर्षि दयानन्द जी के अनुयायी व उनकी शिक्षा पद्धति को मूर्तरूप देने वाले महापुरुष थे। दलितोद्धार एवं जातिपांति उन्मूलन में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। डा. अम्बेडकर जी स्वामी श्रद्धानन्द जी के कार्यों से पूर्णतः परिचित थे। अपनी व्हाट कांग्रेस एण्ड गांधी हैव डन टू दि अन्टचेबल्स पुस्तक में आपने लिखा है कि स्वामी श्रद्धानन्द दलितों के सर्वश्रेष्ठ सहायक और समर्थक थे। अस्पृश्यता निवारण से सम्बन्धित (कांग्रेस की) समिति में रहकर यदि उन्हें स्थिरता से काम करने का अवसर मिल पाता तो निःसन्देह एक बहुत बड़ी योजना आज हमारे सामने विद्यमान होती। महर्षि दयानन्द के विख्यात अनुयायी लाला लाजपतराय से आपके गहरे आत्मीय सम्बन्ध थे। यही कारण था की अंग्रेजों के बरबरतापूर्ण लाठीप्रहार से लाला जी की मृत्यु होने पर उन्होंने उन्हें अश्रुपूर्ण शब्दों में श्रद्धांजलि दी थी। डा. भीमराव जी अम्बेदकर जनवरी, 1913 में बड़ौदा आये थे और यहां उनका दलितोद्धार का कार्यकरने वाले आर्यसमाज के विद्वान पं. आत्माराम अमृतसरी जी से परिचय हुआ। अमृतसरी जी उन्हें उपयुक्त निवास की व्यवस्था होने तक अपने साथ आर्यसमाज वडोदरा में ले आये थे जहां वह एक सप्ताह तक उनके साथ रहे थे।  स्वाभाविक है कि पं. आत्माराम अमृसरी और आर्यसमाज के इस सहवास व निकटता से डा. अम्बेडकर जी को आर्यसमाज की विचारधारा को जानने व समझने का अवसर मिला होगा और उन्होंने आर्यसमाज के दैनिक सन्ध्या व अग्निहोत्र सहित अन्य गतिविधियों को भी देखा व समझा होगा और इनको करने के कारणों व होने वाले लाभों को भी जाना होगा।

डा. भीमराव अम्बेडकर जी की जयन्ती पर हमने उनके आर्यसमाज से जुड़े कुछ ही प्रसंगों को प्रस्तुत किया है। आज ही हमने जीटीवी पर एक परिचर्चा में यह तथ्य सुना कि डा. अम्बेडकर ने भारत की राष्ट्रभाषा क्या हो, इस पर अपना मत देते हुए संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव किया था। उनके अनेक विचार सामने आ रहे हैं। हमें यह प्रतीत होता है कि उनके वचनों वा सूक्तियों का एक संग्रह प्रकाशित होना चाहिये जिससे उनके व्यापक दृष्टिकोण को कम समय में जाना व समझा जा सके। टीवी परिचर्चा में हमने यह तथ्य भी सुना कि डा. अम्बेदकर जम्मू कश्मीर के तीन हिस्से करना चाहते थे जिनमें एक एक मुस्लिम कश्मीर और दो तिहाई भाग में दलित व हिन्दू कश्मीर। एक अन्य तथ्य भी बताया गया कि डा. अम्बेदकर अपने ज्ञान व अनुभव के कारण हिन्दू व मुस्लिमों की पूरी पूरी आबादी की भारत व पाकिस्तान में अदला बदली के समर्थक थे। परिचर्चा से यह तथ्य भी सामने आया कि पाकिस्तान बनने पर वहां के मुस्लिमों ने दलित हिन्दुओं को वहां बलपूर्वक रोक लिया था जिससे वह उनका मल-मूत्र आदि साफ कर सकें। अतः हम यह अनुभव करते हैं कि विगत 69 वर्षों की आजादी के काल में उनका वास्तविक स्वरूप व सम्पूर्ण विचार देशवासियों के सामने नहीं आ पायें हैं व राजनीतिक कारणों से उन्हें रोका गया है। हम आशा करते हैं कि वर्तमान समय में डा. अम्बेडकर जी के देशहितकारी विचारों को देशवासियों के सामने प्रस्तुत करने में सफल होगा जिससे उनका सही मूल्यांकन हो सकता है। वैसे भी देश की युवा पीढ़ी में डा. अम्बेडकर के बारे में जानकारी बहुत कम व न के बराबर है जिसे उनके प्रति न्याय नहीं कहा जा सकता। आज डा. अम्बेडकर जी को उनकी जयन्ती पर हम अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उनको सच्ची श्रद्धांजलि यही हो सकती है कि हिन्दू समाज से जन्मना जातिवाद और सामाजिक असमानता सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाये। क्या हमारे हिन्दू मुख्यतः जन्मना ब्राह्मण भाई व धार्मिक नेता समय व युग के लिए अति आवश्यक इस मानवोचित विचार को क्रियात्मक रूप देने में सहयोग करने को तैयार हैं? हम यह भी अनुभव करते हैं कि हिन्दू समाज को यह नियम प्रचारित करना चाहिये कि किसी भी मनुष्य के साथ धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से पक्षपात, भेदभाव, अस्पर्शयता का व्यवहार नहीं करना चाहिये अपितु अपने व परायों सभी के प्रति स्वात्मवत, प्रीतिपूर्वक, धर्मानुस<

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