महर्षि दयानन्द ने गुरु विरजानन्द जी से दीक्षा लेकर सन् 1863 में वेद प्रचार का कार्य आरम्भ किया था। इसके लिए वह दीक्षा स्थली मथुरा से आगरा आये थे और वहां लम्बे समय तक रहे थे। यहां उन्होंने संवत् 1920 विक्रमी में अपने प्रथम ग्रन्थ सन्ध्योपासना-विधि लिखकर प्रकाशित की थी। यह ग्रन्थ सम्प्रति उपलब्ध नहीं होता। आर्यसमाज के एक विद्वान महात्मा आदित्य मुनि वानप्रस्थी जी से हमें जानकारी मिली थी कि यह ग्रन्थ अड्यार, तमिलनाडू के केन्द्रीय ग्रन्थालय में उपलब्ध है। उन्होंने वहां से इसकी प्रति भी प्राप्त की थी। बाद में वह प्रति उनके मित्र प्र. उपेन्द्र राव उनसे मांगकर ले गये थे। यह प्रति उन्हीं के पास पड़ी रही। कालान्तर में उनका देहान्त हो गया। उनका परिवार भी भोपाल से सम्भवतः हैदराबाद आदि किसी स्थान पर चला गया। अतः यह प्रति हमें म. आदित्य मुनि जी से प्राप्त न हो सकी। इसके लिए हमने भी अड्यार पुस्तकालय को पत्र लिखा था परन्तु उन्होंने उसका कोई उत्तर नहीं दिया। अकोला, महाराष्ट्र के श्री राहुल आर्य भी इस आदि सन्ध्या की प्राप्ती के लिए प्रयासरत हैं। हो सकता है कि उनको यह प्राप्त हो जाये। इसके प्राप्त हो जाने पर महर्षि दयानन्द की उस सन्ध्योपासना विधि की उनके द्वारा बाद में सन् 1875 में लिखी गई पंचमहायज्ञविधि में दी गई सन्ध्योपासना विधि से तुलना कर उनमें अन्तर को देखा व जाना जा सकता है। इससे यह भी पता चल सकता है कि क्या उन्होंने अपनी बाद की सन्ध्योपासना विधि में कोई सुधार व परिवर्तन किया था अथवा नहीं? यह भी सम्भव है कि उन्होंने सन्ध्योपासना अपने गुरु स्वामी विरजान्द जी से सिखी हो और वही उनकी आद्य सन्ध्या विधि पुस्तक का आधार बनी हो।   

आज हम पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी की नित्य कर्म विधि पुस्तक देख रहे थे। इस पुस्तक में पण्डित जी ने ‘‘ब्रह्मयज्ञ-सन्ध्योपासना शीर्षक से निम्न विचार प्रस्तुत किये हैं। वह लिखते हैं कि पंच महायज्ञों में प्रथम ब्रह्मयज्ञ है। ब्रह्मयज्ञ के दो भाग हैं-सन्ध्योपासना और स्वाध्याय=वेदादि सच्छास्त्रों का अध्ययन। इन में सन्ध्योपासना प्रथम करनी चाहिए, और स्वाध्याय् अग्निहोत्र के पश्चात्। सन्ध्याोपासना विषयक अनेक ग्रन्थ शीर्षक से उन्होंने निम्न विचार प्रस्तुत किये हैं। ‘‘ऋषि दयानन्द सन्ध्योपासना को अत्यन्त महत्व देते थे। उन्होंने अपने जीवन में सब से प्रथम सन्ध्योपासना-विधि की पुस्तक वि.सं. 1920 में प्रकाशित की थी। (हमें वह उपलब्ध नहीं हुई-श्री मीमांसक जी)। तदनन्तर उनके नाम से छपे सन्ध्योपासनाविधि के दो संस्करण हमारे संग्रह म सुरक्षित हैं। ये तीन संस्करण उस समय के हैं, जब ऋषि दयानन्द निस्संग अवधूत अवस्था में विचरण करते थे। वि.स. 1931 से वे वैदिकधर्म के प्रचार एवं पाखण्ड-मतों क खण्डन में विशेषरूप से प्रवृत्त हुए, और ग्रन्थ-लेखन-कार्य प्रारम्भ किया। उसके प्श्चात उन्होंने सब से प्रथम पंचमहायज्ञ-विधि का वि.सं. 1932 में बम्बई में प्रकाशन किया। इसमें मन्त्रार्थ केवल संस्कृतभाषा में दिया गया था। संस्कृत में होने के कारण जनसाधारण को लाभ कम होता है, यह विचार कर उन्होंने उसमें कुछ परिशोधन करके भाषार्थ-सहित वि. सं. 1934 में पुनः प्रकाशित किया। (सं. 1932 में मन्त्रों के भाषार्थ न देने का एक कारण यह हो सकता है कि उस समय तक उनकी हिन्दी सर्वथा शुद्ध व परिमार्जित नहीं हुई थी जो कि बाद के वर्षों में हो गई। इसका उल्लेख उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश के संशोधित संस्करण में किया है-लेखक)। आजकल आर्यसमाज में यही संस्करण प्रमाणिक माना जाता है। इसके पश्चात् वि.सं. 1940 में परिशोधित संस्कारविधि में पंच-महायज्ञों का विस्तार से वर्णन किया है।” 

पण्डित युधिष्ठिर मीमांस जी के अनुसार ‘ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन में सब से प्रथम सन्ध्योपासना-विधि की पुस्तक वि.सं. 1920 में प्रकाशित की थी। (हमें वह उपलब्ध नहीं हुई-श्री मीमांसक जी)। तदनन्तर उनके नाम से छपे सन्ध्योपासनाविधि के दो संस्करण हमारे संग्रह म सुरक्षित हैं। ये तीन संस्करण उस समय के हैं, जब ऋषि दयानन्द निस्संग अवधूत अवस्था में विचरण करते थे। इन पंक्तियों से यह आभास होता है कि  à¤ªà¤‚. मीमांसक जी वा रामलाल कपूर ट्रस्ट में ऋषि के नाम से प्रकाशित प्रथम व आदि सन्ध्याविधि के जो दो संस्करण थे वा हैं, वह प्रथम संस्करण के ही पुनमुर्द्रण, अनुकृतियां व संशोधित संस्करण हो सकते हैं। इन दोनों संस्करणों से भी आर्यजनता सम्प्रति अनभिज्ञ व अपरिचित है। इन्हें प्रकाश में लाया जाना चाहिये जिससे इनकी रक्षा हो सकेगी। ऐतिहासक होने के कारण भी इनकी रक्षा करना उचित है। हो सकता है कि इससे ऋषि दयानन्द द्वारा संवंत् 1920 में प्रकाशित अनुपलब्ध व अप्राप्य संस्करण की किंचित अर्थों में पूर्ति हो जाये।

हमारा उद्देश्य इन पंक्तियों द्वारा आर्यजगत को आद्य सन्ध्योपासना-विधि पुस्तक विषयक तथ्यों से परिचित कराना है। इसी उद्देश्य से हमने यह लेख प्रस्तुत किया है। रामलाल कपूर ट्रस्ट, रेवली, सोनीपत, हरयाणा के अधिकारियों व इसकी मासिक पत्रिका वेदवाणी के सम्पादक महोदय से भी हम निवेदन करते हैं कि वह पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी द्वारा वर्णित ट्रस्ट में उपलब्ध इन दो संस्करणों को ढूंढ कर इनकी स्पष्ट फोटो प्रतियों को वेदवाणी पत्रिका में प्रकाशित करने की कृपा करें जिससे धार्मिक जगत के स्वाध्यायशील और खोज प्रकृति के विद्वानों को लाभ होगा।

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