भारत वरष क सा राषटर है जो विशव का सबसे बड़ा गणराजय माना जाता है। और इसे समपरभतव समपनन कहा जाता है। तथा विशव के सबसे बड़े संविधान का गौरव भी परापत है। इसको अनय कई नामों से भी पकारा जाता है जिनमें से क है हिनदसतान, जिसकी भाषा हिनदी है। और इसकी सनातन आरय जाति सवयं को हिनद कहने पर गरव करती है। लेकिन-हाय री! वयवसथा, आज हिनदी ;आरय भाषा अपने सदिनों की बाट जोह रही है। आज केवल उतसव मनाने के लि हिनदी को पहचाना जा रहा है। भारत के संविधान में हिनदी को राजभाषा का दरजा परापत है। लेकिन कारयपरणाली अंगरेजी में ही चलायमान है जबकि-संविधान में केवल 15 वरषों के लि राजकीय औपचारिकताओं को पूरा करने के लि सहायिका के रप में ठहराया गया था। लेकिन आज क सहायिका ने राजरानी पर आधिपतय जमा अधिषठातरी बन बैठी है। और आरयवरत की आतमा को तिल-तिल कर जीने के लि विवश कर दिया गया है। जबकि भारतीय संसकृति की अपनी क विशिषटता है। यहा का उतकृषट साहितय माता, मातृभूमि और मातृभाषा की शरेषठता की कामना करता है। गाधी जी ने बालक की परारमभिक शिकषा का वरणन करते ह कहा कि- “बालक की परारमभिक शिकषा उसकी मातृभाषा में ही होनी चाहि।“ महान साहितयकार भारतेनद  हरिशचंदर ने कहा कि- निज भाषा उननति अहो, सबै उननति के मूल। बिन निज भाषा जञान के, मिटै न हिय के शूल।।  à¤…रथात किसी भी राषटर की तब तक समपूरण उननति नहीं हो सकती जब तक उसमें निज भाषा का पूरण विलय न हो।

यदि हमें अपने संविधान का सममान और रकषा भी करनी है तो हमें परथम हिनदी की रकषा भी करनी है। और लारड मैकाले की उस घोषणा को असतय सिदध करना होगा कि- “ भारतीय समपूरण जञान भणडार यूरोप के क पसतकालय के बराबर भी नहीं है।“ कहा जाता है कि जापान में तब तक किसी शबद को परयोग नहीं किया जाता जब तक कि उसका रपानतरण उनकी अपनी भाषा जापानी में नहीं हो जाता। हम अनेक भौतिक उननतियों का अनसरण तो करते है, बराबरी चाहते है लेकिन मौलिकताओं पर धयान नही देते है। वरतमान में भारत के परधानमनतरी आदरणीय नरेनदर

मोदी जी ने जापान के साथ अनेक विकास के मददों पर समौते कि जो भारत की दशा वं दिशा को बदलना चाहते है। वहीं हमें अपने सममान अपने राषटर और अपनी भाषा की भी रकषा करनी है। नई सरकार के गठन के उपरानत संसद में हिनदी भाषा वयवहार लागू करने पर कछ राजनैतिकों ने विरोध जताया था। लेकिन राषटर के हित में इस परकार का विरोधाभास नहीं  होना चाहि, वासतव में मोदी जी का यह क सराहनीय कदम रहा है कयोंकि भाषा ही तो जोड़ती है। इसलि भाषा का सममान संरकषण परतयेक नागरिक का करततवय है। कयोंकि समृदध भाषा से, समृदध साहितय और समृदध साहितय से ही समृदध राषटर का निरमाण हो सकता है।

आज नहीं अब से ही हम निशचय करें कि हमें हिनदी को ही अपने वयवहार की भाषा बना रखनी है। हम हिनदी में ही बात करें, हिनदी में हसताकषर करें, हिनदी का ही साहितय पढ़े, पढां तथा हिनदी में ही अनय सनदेशों को परेषित करें, तभी हिनदी की रकषा हो सकती है, और हमारा ‘हिनदी-दिवस’ मनाना सफल हो सकता है। कयोंकि हिनदी ही हिनद की आतमा है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है- हिनदी आतमा हिनद की लनदन में है बनद। सवतनतरता के बाद भी सवेचछा से परतनतर।। अरथात वरतमान समय में जो सथान हिनदी का होना चाहि था वह अंगरेजी को परापत है और सवतंतरता के 67 वरषों के पशचात भी हम अपनी भाषा को सवतंतर न करा पा आज भी अंगरेजों की भाषा उनके नियमों में हम अपनी इचछा से बंधते जा रहे है, जो भारतवरष तथा उसकी भाषा के लि अचछा नहीं है यदि अब भी हम चेत जा तो वह दिन दूर नहीं जब भारत विशव का शिरोमणी होगा। अतः हमें शरदधा से, सवाभिमान से, तथा पूरणरूप से हिनदी को अपना कर इस शभ दिवस को शभ-संवतसर बना देना है, जो वासतव मे अपेकषित है। 

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