महर्षि दयानन्द के जीवन काल में अनेक लोग उनके सम्पर्क में आये और उनके व्यक्तित्व व उनकी ज्ञानमयी प्रतिभा से आलोकित व प्रभावित हुए। ऐसे कुछ उदाहरण वेदवाणी पत्रिका के सम्पादक पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने पत्रिका के मार्च, 1985 अंक में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी का एक लेख ‘‘ऋषि दयानन्द के जीवन की कुछ अप्रकाशित घटनाएं प्रकाशित कर दिए हैं। यहां हम प्रथम दो उदाहरण पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।

उदाहरण 1

श्री पं. धर्मदेव जी देहरादून वाले चार पांच वर्ष काशी में पिद्या प्राप्त करते रहे। उन्होंने काशी के विद्वान् और ऋषि दयानन्द एक लेख 1936 ई. में दिया था। प्रकाश उर्दू साप्ताहिक में छपा था। दुःख की बात है कि यह लेख अधूरा छपा था। इसमें आपने लिखा कि आपके गुरु और काशी के प्रमुख विद्वान गोस्वामी दामोदर शास्त्री जी ने एक बार उन्हें बताया कि वह काशी शास्त्रार्थ में उपस्थित थे। महर्षि दयानन्द का मुख ब्रह्मचर्य के तेज से चमक दमक रहा था। वह धारा प्रवाह संस्कृत बोलते थे। मुख ऐसे चमक रहा था जैसे सूर्य। बोलते हुए ऐसे लगते थे जैसे सिंह गर्जना कर रहा हो। उनके भाषण से सन्नाटा छा जाता था। उनकी जैसी संस्कृत काशी का कोई पण्डित न बोल सकता था। वह बहुत बड़े पण्डित थे, इसमें कोई सन्देह नहीं।

उदाहरण 2

काशी शास्त्रार्थ के प्रत्यक्षदर्शी एक अन्य विद्वान् (जिनका नाम देना पं. धर्मदेव जी छोड़ गये) के सामने पं. अखिलानन्द के विचार सुनकर किसी ने ऋषि को गाली दे दी तो वह क्रोधित हो गये। उस दिन कुछ पढ़ाया ही नहीं। उन्होंने भी तब कहा कि काशी शास्त्रार्थ में उनकी ओर कोई देख भी न सकता था। वह (दयानन्द) अकेला निर्भीक घूमता था। वह ब्रह्मचारी निष्कलंक था।

यह दोनों घटनायें हमें अच्छी लगी। पाठकों को भी पसन्द आयेंगी, ऐसी आशा करते हैं। पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी और पं. राजेन्द्र जिज्ञासु जी का यथायोग्य सत्कारपूर्वक हार्दिक धन्यवाद।

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