महरषि दयाननद ने अपने जीवनकाल में देश को जो कछ दिया है वह महाभारत काल के सभी उततरवरती वं उनके समकालीन किसी महापरूष ने नहीं दिया है। मनषय की सबसे बड़ी आवशयकता कया है? मनषय की सबसे बड़ी आवशयकता जञान है। सृषटि के आदि काल में जब ईशवर ने मनषयों को उतपनन किया तो, भोजन से पहले भी उनहें जिस किसी वसत की आवशयकता पड़ी थी, वह जञान व भाषा थी। इन दोनों आवशयकताओं की पूरति करने वाला तब न किसी का कोई माता-पिता, न गरू, न आचारय और न कोई और था। से समय में केवल क ईशवर ही था जिसने इस जंगम संसार को बनाया था और उसी ने सभी पराणियों को भी बनाया था। अतः जञान देने का सारा भार भी उसी पर था। यदि वह जञान न देता तो हमारे आदि कालीन पूरवज बोल नहीं सकते थे और न अपनी आवशयकताओं -- भूख व पयास आदि को जान व सम ही सकते थे। इन दोनों व अनय अनेक कारयों के लि हमें भाषा सहित जञान की आवशयकता थी जिसे ईशवर ने सबको भाषा देकर व चार ऋषियों को चार वेदों का शबद, अरथ व समबनध सहित जञान देकर पूरा किया। इन चार ऋषियों के नाम थे अगनि, वाय, आदितय और अंगिरा जिनहें करमशः ऋगवेद, यजरवेद, सामवेद वं अथरववेद का जञान ईशवर से इन ऋषियों की अनतरातमा में अपने जीवसथ, सरवानतरयामी व सरववयापक सवरूप से परापत हआ था। इन चार ऋषियों को जञान मिल जाने के बाद काम आसान हो गया और अब आवशयकता अनय मनषयों को जञान कराने की थी। पराचीन वैदिक साहितय में तद विषयक सभी परमाण उपलबघ हैं।

ईशवर की परेरणा से इन चार ऋषियों ने क अनय ऋषि ‘शरी बरहमा जी’को क-क करके चारों वेदों का जञान कराया और सवयं भी अनय-अनय वेदों का जञान परापत करते रहे। यह सा ही हआ था जैसे कि किसी ककषा में गरू व शिषय सहित 5 लोग हों। क चार को पढ़ाता है जिससे चारों को उस विषय का जञान हो जाता है। अगनि को ईशवर से ऋगवेद का जञान परापत हआ था, अतः उनहोंने अनय चार ऋषियों को ऋगवेद पढ़ाया जिससे अनय चार ऋषियों को भी ऋगवेद का जञान हो गया। इसके बाद क-क करके वाय, आदितय व अंगिरा ने अनय चार को यजरवेद, सामवेद और अथरववेद का जञान कराया और इस परकार यह पांचों ऋषि चारों वेदों के विदवान बन गये। अब इस परकार से इन 5 ऋषियों वा शिकषकों ने वेदों का अनय यवा सतरी-परूषों को शिषयवत जञान कराने का उपकरम किया। सृषटि के आदिकाल में अमैथनी सृषटि में उतपनन सभी मनषयों का सवासथय व उनकी समरण-शकति-समृति अतीव तीवर व उतकृषट अवसथा में थी। वह ऋषियों के बोलने पर उसे सम कर समरण कर लेते थे। इस कारण यह करम कछ ही दिनों व महीनों में पूरा हो गया। वेद सभी सतय विदयाओं की पसतक हैं। अतः सभी सतरी व परूषों को सभी विषयों का पूरण जञान हो गया। जञान होने व शारीरिक सामरथय में किसी परकार की कमी न होने के कारण उनहोंने अपनी सभी आवशयकताओं की पूरति शीघर ही कर ली थी। कारण यह था कि उनहें सभी परकार का जञान था और उनकी आवशयकता की सभी सामगरी भी परकृति में उपलबध थी। हम यह भी कहना चाहते हैं कि आदि सभी मनषय पूरणतः शाकाहारी थे। सृषटि में परचर मातरा में सभी परकार के फल, ओषधियां, गोदगध, वनसपतियां आदि विदयमान थी जिनका जञान इन लोगों को ईशवर वं पांच ऋषियों दवारा कराया गया था। अतः इनहें सामिष भोजन की कोई आवशयकता नहीं थी। ईशवर का असतितव सिदध है और ईशवर ने अनय पराणियों को मनषयों के आहार करने के लि नहीं बनाया है, यह भी सिदध है। यदि पश व अनय पराणी आदि मनषयों के आहार के लि बनाये होते तो ईशवर वनसपतियों, फल, मूल, अनन, दगध आदि कदापि न बनाता। सृषटि के आरमभ से दिन, सपताह, माह व वरष आदि की गणना भी आरमभ हो गई थी। जो अदयावधि 1,96,08,53,114 वरष पूरण होकर 6 महीने व 15 दिवस (दिनांक 24 सितमबर, 2014 को) वयतीत ह है। महाभारत का यदध जो अब से 5,239 वरष पूरव हआ था, इतनी अवधि तक वेदों के जञान के आधार पर ही सारा संसार सचारू रूप से चलता रहा है और यह सारा समय जञान व विजञान से यकत रहा है।

महाभारत के यदध में देश विदेश के कषतरिय व बराहमण बड़ी संखया में मारे गये जिससे राजय व सामाजिक वयवसथा छिनन भिनन हो गई थी। यदयपि महाभारत काल के बाद महाराज यधिषठिर व उनके वंशजों ने लमबी अवधि तक राजय किया परनत महाभारत यदध का सा परभाव हआ कि हमारा पणडित व जञानी वरग आलसय व परमाद में फंस गया और वेदों का अधययन, अधयापन, परचार व परसार अवरूदध हो गया जिससे सारा देश व विशव अजञान के अनधकार में डूब गया।  महाभारत के उततर काल में हम देखते हैं कि पूरणतः अहिंसक यजञों में हिंसा की जाने लगी, सतरी व शूदरों को वेदों के अधययन के अधिकार से वंचित कर दिया गया, कषतरिय व वैशय भी बहत कम ही वेदों का अधययन करते थे और पणडित व बराहमण वरग के भी कम ही लोग भली परकार से वेदों व अनय शासतरीय गरनथों का अधययन करते थे जिसका परिणाम मधयकाल का सा समय आया जिसमें ईशवर का सतय सवरूप भलाकर क कालपनिक सवरूप सवीकार किया गया जिसकी परिणति अवतारवाद, कालपनिक गाथाओं से यकत पराण आदि गरनथों की रचना, मूरतिपूजा, तीरथ सथानों की कलपना व उसे परचारित करने के लि उसका कलपित महातमय, असपरशयता, छआछूत, बेमेल विवाह, चारितरिक पतन, अनेक मत-पनथों का आविरभाव जिसमें शैव, वैषणव, शाकत आदि परमख थे, इनमें उततरोततर वृदधि होती गई। जैसा भारत में हो रहा था, सा ही कछ-कछ विदेशों में भी हो रहा था। वहां पहले पारसी मत असतितव में आया, उसके बाद अनय मत उतपनन ह, कालानतर में ईसाई मत व इसलाम मत का परादूरभाव हआ। यह सभी मत अपने अपने काल के अनसार जञान व अजञान दोनों से परभावित थे व वेदों की भांति सरवागीण नहीं थे। वेदों के आधार पर ईशवर का जो सतय सवरूप महरषि दयाननद ने परसतत किया व जिसकी चरचा व उललेख हमारे दरशनों, उपनिषदों, मनसमृति, महाभारत व रामायण आदि गरनथों में मिलती है, वह सरवथा विलपत होकर सारे संसार में अजञानानधकार फैल गया। इस मधयकाल में सभी मत अपने अपने असतय मतों को ही सबसे अधिक सतय व सबके लि गराहय बताने लगे। सी परिसथितियों के देश में विदयमान हो जाने के कारण देश गलाम हो गया। जनता का उतपीड़न हआ और 19हवीं शताबदी में सधार की नींव पड़ी।

 

महरषि दयाननद सरसवती का जनम 12 फरवरी, 1825 को गजरात के टंकारा नामक गराम में हआ। उनके जनम के समय से 1.960 अरब वरष पहले सृषटि की आदि में उतपनन ईशवरीय जञान के गरनथ वेद लपत परायः हो चके थे। इसका मखय कारण यह था कि उन दिनों जञान व विजञान सारे विशव में अतयनत अवनत अवसथा में था। उन दिनों न तो वैजञानिक विधि से कागज बनाने की तकनीकि का जञान था और न हि मदरणालय उपलबध थे। महाभारत काल के बाद से लोग हाथों से कागज बनाते थे जो कि अतयनत निमन कोटि का हआ करता था। उन दिनों लिखने के लि भी आजकल की तरह लेखनी अथवा पैन आदि उपलबध नहीं थे।  सभी गरनथों को धीरे-धीरे हाथ से लिखा जाता था या मूल गरनथ से परतिलिपि या अनकृति की जाती थी। इस कारय में क समय में क ही परति लिखी जा सकती थी। हमारा अनमान है कि वेदों की क परति तैयार करने में क वयकति को महीनों व वरषों लगते थे। वह वयकति यदि कहीं असावधानी करता था तो वह अशदधि भविषय की सभी परतियों में हआ करती रही होगी। यदि लेखक कछ चंचल सवभाव का हो तो वह सवयं भी कछ शलोक आदि उसके दवारा की जा रही परतिलिपि में मिला सकता था। सा करना कछ लोगो का सवभाव हआ करता है। क परति में जब इतना शरम करना पड़ता था तो यह गरनथ दूसरों को आसानी से सलभ होने की समभावना भी नहीं थी। अतः उन दिनों अधययन व अधयापन आज कल की तरह सरल नही था। उन दिनों लोगों की परवृतति वेदों से छूट कर कछ चालाक व चतर लोगों दवारा कलपित कहानी किससों के आधार पर पराणों की रचना कर देने से उनकी ओर हो गई। इस कारण वेदों में लोगों की रूचि समापत हो गई। से समय में कोई विरला ही वेदों के महतव को जानता था और उनकी रकषा व अधययन में परवृतत होता था। वेदों का अधययन कराने वाले योगय शिकषकों व अधयापकों की उपलबधता अपवाद सवरूप ही होती थी। उन दिनों पराण, रामचरित मानस, गीता आदि गरनथ तो आसानी से उपलबध हो जाते रहे होंगे परनत वेदों की अपरवृतति होने के कारण उनका उपलबध होना कठिन व कठिनतम था। इससे पूरव की वेद धरती से पूरी तरह से विलपत हो जाते, दैवीय कृपा से महरषि दयाननद का परादरभाव होता है और उनहें गरू के रूप में सवामी विरजाननद सरसवती जी मिल ग जिनकी पूरी शरदधा वेदों वं आरष साहितय में थी। उनहोंने नेतरों से वंचित होने पर भी संसकृत की आरष वयाकरण, अषटाधयायी-महाभाषय व निरूकत पदधति का सतरक रहकर अधययन किया था और भारत के इतिहास व आरष व अनारष जञान के भेद को वह भली परकार से समते थे। भारत में से कमातर गरू से सवामी दयाननद ने संसकृत वयाकरण व वेद वं वैदिक साहितय का अधययन किया।

 

महरषि दयाननद सन 1860 में गरू विरजाननद सरसवती की मथरा सथिति संसकृत पाठशाला में पहंचें थे। उनहोंने वहां रहकर सन 1863 तक लगभग 3 वरषों में अपना अधययन पूरा किया। इसके बाद वह गरू से पृथक ह। परसथान से पूरव, गरू दकषिणा के अवसर पर, गरू व शिषय का वारतालाप हआ। गरू ने सवामी दयाननद को बताया कि उन दिनों विशव भर में सतय धरम कहीं भी असतितव में नहीं है। सभी मत-मतानतर सतय व असतय मानयताओं, कथानकों, मिथया करमकाणडों व करिया-कलापों, आचरणों, परमपराओं, रीति-रिवाजों-नीतियों, अनावशयक अनषठानों आदि से भरे ह हैं। सतय केवल वेदों वं ऋषि कृत आरष गरनथों में ही विदयमान हैं। इतर गरनथ अनारष गरनथ हैं जिनमें हमारे सतपरूषों की निनदा, असतय व कालपनिक कथाओं का चितरण व मिशरण हैं। इनमें अनेक मानयताये तो सी हैं जिनका निरवाह अनावशयक वं जीवन के लि अनपयोगी है। अतः सवामी दयाननद को मानवता के कलयाण के लि सतय की सथापना करने व वेदों व वैदिक गरनथों को आधार बनाना आवशयक परतीत हआ। उनहोंने इस सतय व तथय को जान कर वेदों की ओर चलों, का नारा लगाया। उनहोंने घोषणा की कि वेद ईशवरीय जञान है, इसलिये वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सनना व सनाना सब ईशवरपतर आरयों व मानवमातर का धरम ही नहीं अपति परम धरम है। महरषि दयाननद की इन घोषणाओं को सनकर लोग आशचरय में पड़ गये कि यह वयकति कौन है, जो वेदों की बात करता है। सी बात तो न सवामी शंकराचारय ने की थी, न आचारय चाणकय ने और न भगवान बदध और भगवान महावीर ने ही। यूरोप व अरब से भी कभी इस परकार की आवाज सनाई नहीं दी। वेद कया हैं व उनमें कया कछ है, कोई नहीं जानता था। बहत से व अधिकांश धरमाचारयों ने तो वेद कभी व कहीं देखे भी नहीं थे। भारत के सनातन धरम नामी पराणों के अनयायी धरमाचारय तो वेदों के सरवथा विरूदध व असतय, पराणों को ही वेद से भी अधिक मूलयवान, परासंगिक व जीवनोपयोगी मानते थे। सवामी दयाननद की इस घोषणा से सभी धरमाचारय अचमभित व भयभीत हो गये। अब से 2,500 वरष भगवान बदध व भगवान महावीर ने वेदों के नाम पर किये जाने वाले हिंसातमक यजञ यथा, गोमेध, अशवमेध, अजामेध यजञों को चनौती दी थी और अब यह वेदों का अपूरव पणडित व विदवान दयाननद पहला वयकति आया था, जिसने न केवल पौराणिक मत वालों को ही ललकारा अपित संसार के सभी मतवालों को चनौती दी की वह अपने मत की मानयताओं को सतय सिदध करें या उनसे शासतरारथ कर सवयं को विजयी व सवामी दयाननद को पराजित करें। कोई सामने न आ सका और यदि आया तो पराजित हआ। बार बार चनौती से विवश होकर सन 1869 में काशी नरेश के आदेश से काशी के 30 से अधिक शिखरसथ कहे जाने वाले विदवान व पणडितों को वेदों से मूरतिपूजा सिदध करने की चनौती सवीकार करनी पड़ी, वह सामने आये लेकिन शासतरारथ के विषय पर कोई ठोस व यकति की बात न कहकर वितणडा वा लड़ाई-गड़ा किया और अपने ूठे मान-सममान को बचाने का असफल परयास किया। आज तक भी कोई पौराणिक व अनय मतावलमबी अथवा धरमाचारय ईशवर उपासना और मूरति पूजा को यकतियकत व वेदों से सिदध नहीं कर सका। सभी अपने घरों में शेर की भूमिका निभा रहे हैं और आम जनता को धोखा दे रहे हैं।       

 

वेदों का महतव कया है कि जिसके लि महरषि दयाननद को इतना परूषारथ करना पड़ा, अपना सारा जीवन ही इस कारय में लगा दिया, अपने सारे सखों को तिलांजलि दी। उनके इसी जजबे के पीछे छिपी भावनाओं से परभावित होकर हमने इसके सब पहलओं का अनभव कर यह लेख लिखा। इस समबनध में हम कहना चाहते हैं कि संसार की सभी, वसतयें, पदारथ व धन दौलत नाशवान हैं। वयकति अनावशयक ही अपना सारा बहमूलय समय इन नाशवान पदारथों की परापति में लगा रहा है। सा करते ह वह यह भूल जाता है कि क दिन हमारे शरीर का भी नाश होना है। यह दिन हमारी मृतय का दिन होगा। यह दिन हमारे जीवन में अवशय आयेगा और आज या कालानतर में बिना दसतक दि आ सकता है। हममें से किसी का शरीर जला दिया जायेगा और किसी का दफना दिया जायेगा व किसी की कछ भिनन तरीके से अनतयेषटि की जायेगी। परनत सबका शरीर नाश को परापत होगा, यह घरव सतय है, अटल है, निशचित है। यहां तक की यह जञान विजञान भी कालानतर में परलय होने पर कारण सृषटि व ईशवर में विलीन हो जायेगा और असतितवहीन हो जायेगा। हमारा धन व वैभव तो हमारी मृतय के दिन ही हमसे पृथक व दूर हो जायेगा। जो बचेगा वह हमारे परिवार वालों का होगा। वह इसका उपयोग करेंगे या दरूपयोग, किसी को पता नहीं। परनत यह सतय है कि हमने इस धन व साधनों को कमाने व अरजित करने में जो अचछे वा बरे काम किये हैं वह हमें सख-दःखादि के रूप में भोग कर चकाने ही होंगे। उससे हम बच नहीं सकेंगे। यह धन आदि पदारथ सब यहीं छूट जायेगें और हमें अकेले ही यहां से जाना होगा। कहां जाना है, किसी को पता नहीं, भेजने वाला ईशवर है, वह जहां भेजेगा, वहीं सबको जाना है। हमारी पतनी व सनतानें कछ ही दिनों में हमें भूल जायेंगे जिनके लि हम यह सब कछ करते रहे हैं। तब उनहें हमारी मृतय का कोई दःख या पशचाताप नहीं होगा। यह इसी परकार होगा जैसा कि हमने अपने माता-पिता-बनधओं व सखाओं के परति किया है। यदि कछ भी हमारे पास व साथ रहेगा तो वह वेदों का जञान, वेदों की शिकषा व संसकार बचेंगे, वह हमेशा साथ रहेंगे, मरने पर भी यह हमसे छूटेगें नहीं, अपित अगले जनम में भी साथ जायेंगे। इस परमोपयोगी वेद जञान को परापत न करना और अपना सारा समय नाशवान धन व भौतिक पदारथों में जो बाद में हमारे लिये दःख का कारण बनेंगे, कोई बदधिमतता का कारय नहीं है। आप उपनिषद व दरशन पढ़े और साथ में सतयारथ परकाश, ऋगवेदादिभाषय भूमिका, आरयाभिविनय आदि गरनथ भी पढ़े तो आपको सब कछ सम में आ जायेगा। वेदों का जञान व अभयास, मोकष परापत करने अरथात भवसागर से तैर कर पार करने वाली क नौका है। यदि यह पास होगी तो हम तैरेंगे और यदि वेद जञान नहीं होगा तो हम डूब जायेंगे अरथात नीच योनियों में, जहां दख ही दख होगा,

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