हिनदू समाज का सवरप कलपना कीजिये क रथ में अनेक घोड़े हो। हर घोड़ा अपनी इचछा से किसी भी दिशा में भागता हो और उनकी लगाम किसी के हाथ में न हो। सी हालत में उस रथ का कया हाल होगा। न वह सथिर रह सकेगा और न ही वह आगे ब सकेगा। उलटे घोड़े क दूसरे को टककर मार कर घायल कर देंगे। बस यही हालत आज हिनदू समाज की हैं। यहा पर क ओर जैन भी हैं जो सर की क जू को मारना महापाप समते हैं और दूसरी ओर कोलकाता की काली पर पशबलि देने वाले शकति के उपासक भी हैं जो बलि देना धारमिक कृतय समते  हैं।

यहा पर क ओर साईं बाबा की भकति में लीन भगत भी हैं जिनके लि इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता की साईं बाबा मसलमान था, जिसका नाम चाद मिया था, जो मसजिद में रहता था और मांसाहारी था तो दूसरी ओर अजमेर जाकर खवाजा मईनददीन चिशती की कबर पर जाकर सर पटकने वाले भी हैं, जिनहें यह नहीं मालूम की यह चिशती वही वयकति था जिसने महममद गोरी के लि जासूसी की थी और अंतिम हिनदू राजा पृथवीराज चौहान को काफिर कहकर इसलामिक तलवार की उन पर विजय कि भविषयवाणी भी की थी। यहा क ओर गीता के करम फल सिदधांत को मानने वाले भी हैं जो यह मानते हैं की जो जैसा बोयेगा वो वैसा काटेगा तो दूसरी ओर वो भी हैं जो करम न कर चमतकार में विशवास रखने वाले हैं,

जो निरमल बाबा के गोलगपपों से, समोसे की लाल चटनी से, काले रंग के परस से अपने हित मानते हैं। यहा पर क ओर वो भी हैं जो शिव के नाम पर भांग आदि नशे का सेवन करते हैं तो दूसरी ओर वो भी हैं जो देवी के नाम से मदिरा का सेवन करते हैं। यहा पर क ओर वो भी हैं जो उनमकत समबनध और भोगवाद रूपी चारवाक की विचारधारा का पोषक हैं और दूसरी और वो भी हैं जो संयम विजञान में आसथा रखता हैं। हिनदू समाज का सवरप उस रथ के जैसा हैं जिसके अनेक घोड़े अपनी इचछा से अलग अलग दिशाओं में दौड़ते रहते हैं और उन पर कोई लगाम नहीं हैं। फिर भी सभी हिनदू हैं। सवामी शरदधाननद जी हिनदू समाज के सवरप को चूं-चूं का मरबबा कहते थे जिसमें अनेक विचारधाराओं का समावेश हैं जो क दूसरे की परसपर विरोधी हैं।

इसी कारण से हिनदू समाज में कता और संगठन का सरवथा अभाव हैं। सवामी दयानंद के शबदों में हिनदू समाज में कता तभी हो सकती हैं जब क धरम गरनथ वेद में आसथा, क उपासना पदयति में विशवास होगा। वेद रूपी लगाम से ही हिनदू समाज में संगठन और कता का निरमाण संभव हैं। पाठक विचार करे। 

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