आईये, पौरवीय वं पाशचातय वेदों के भाषयकारों पर दृषटि डालते हैं। महाभारत काल के बाद से अब तक लगभग 5,115 वरषों से कछ अधिक समय वयतीत हो चका है। महाभारत यदध के बाद वेदों के अधययन व अधयापन की परमपरा में बड़ा वयवधान उपसथित हआ। यदध के बाद परायः सा हआ ही करता है। आजकल भी यदि घर में किसी को खरचीला रोग हो जाये या फिर कोई मकदमा आदि सा हो जाये जिसमें उचच नयायालय या उचचतम नयायालय में मकदमा लड़ना पड़े तो अति वयय साधय होने से अचछे अचछे को पसीने आ जाते हैं मखयतः सामानय व मधयम वरगीय वयकतियों को। महाभारत काल व बाद के समय में देश की आज कल की तरह वैजञानिक दृषटि से उननति भी नहीं थी। हम अनभव करते हैं कि वेदों का अधययन हो व सामानय सांसारिक अधययन, हसत-लिखित पसतकों से अधययन व अधयापन किया जाता था। पसतकें हो सकता है कि ताड़पतरों या भोज पतरों पर होती रही हांेगी। यह आजकल की तरह से किसी पसतक विकरेता या परकाशक से सलभ व उपलबध भी नहीं होती होंगी? यही सथिति वेदों व वैदिक साहितय की कही जा सकती थी। देश की सी सथिति में महाभारत काल के बाद मधयकाल व उससे कछ पूरव हमारे अजञानी व सवारथी धरमाधिकारियों दवारा सतरी व शूदरों को वेद व वैदिक गरनथों के अधययन से ही वंचित कर दिया गया। जब समाज में वैदिक जञान को जानने व समने वाले लोगों की कमी या अभाव सा हआ तो हमारे शीरष बराहमण धरमाधिकारियों ने अपना अधययन, परूषारथ व तप करना छोड़ दिया या कम कर दिया जिसका परिणाम यह हआ कि वेदाधययन की परमपरा परायः टूट गई। दूसरी ओर से अनधकार के समय में भी हमारे देश में पाणिनी, पतंजलि व महरषि यासक जैसे वेदों के विशव-विशरत विदवान ह जिनहोंने अपनी साधना व योग की परतिभा व परूषारथ के बल पर अषटाधयायी, महाभाषय वं निरूकत आदि अनेक महतवपूरण गरनथों का परणयन किया। यहां हम अनमान करते हैं कि इन गरूओं व शिषयों ने मिलकर इन गरनथों की क-क परति तैयार की होंगी। फिर उन शिषयों ने मिलकर क से अनेक परतियां बनाई होगी। यह कारय आसान नहीं था। अतः महरषि पाणिनी, पतंजलि वं यासक जी का अधययन व अधयापन कषेतर विकसित व उननत होकर भी सामाजिक परभाव की दृषटि से अति सीमित परतीत होता है। समय के साथ-साथ पाणिनी की अषटाधयायी जैसे गरनथ भी विलपत व अपरापय हो गये। देश बहत बड़ा है। दूरसथ भागों में जब समसयायें आयीं होंगी तो हमें लगता है कि वहां के विदवानों ने अपनी जञान व कषमता के अनसार वयाकरण व अनय गरनथ तैयार किये हांेगे। संसकृत के यह वयाकरण गरनथ शेखर, मनोरमा, लघकौमदी, सिदधानत कौमदी आदि के नाम से परसिदध हैं जिनका आज भी उपयोग किया जा रहा है। ऋषिकृत व विदवान के गरनथों में अनतर हआ करता है जैसे कि क बहत बड़ा विदवान या आचारय किसी महाविदयालय में पढ़ायें और कहीं क अलप शिकषित विदवान किसी साधारण विदयालय में अधययन व शिकषण कराये। अतः अषटाधयायी, महाभाषय व निरूकत, निघणट आदि वैदिक संसकृत वयाकरण के गरनथ ऋषियों व उचच कोटि के विदवानों के दवारा बनाये ह थे और अनय मनोरमा, कौमदी आदि गरनथ साधारण विदवानों के बनाये गरनथ थे। हम समते हैं कि यह सभी हमारे आदर के पातर हैं परनत यहां क नियम लागू होता है कि जब दिन निकल आता है तो बदधिमान लोग दीपक या परकाश के वैकलपिक साधनों बलब आदि का परयोग न कर सूरय के परकाश से लाभ उठाते हैं परनत धारमिक व विदवत जगत में अषटाधयायी व महाभाषय वं निरूकत आदि सूरय के समान उचच कोटि के गरनथ परापत हो जाने पर भी हमारे पूरवज महानभावों ने उनहें न अपना कर अति अलप महतव के वयाकरण गरनथों का आशरय लेना जारी रखा जो अब भी बदसतूर जारी है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि वेद वयाखया के कषेतर में वेद मनतरों के सतय अरथों को करने की कषमता इन लौकिक वयाकरणाचारयों में नहीं है। इनकी पहंच रामायण, महाभारत व गीता आदि लौकिक गरनथों तक शलोकों का अनवाद करने की ही है।

महाभारत काल के बाद से अब तक तथा महरषि दयाननद व उनके अनयायियों को छोड़कर जितने भी वेद भाषयकार ह हैं उनमें सायण व महीधर का नाम मखय है। इन दोनों ही वेद भाषयकारों ने जो वेदारथ किया है वह सतय वेदारथ को परकाशित व उदघाटित करने में सरवथा असमरथ रहा है। इसके विपरीत इन भाषयों में अरथ का अनरथ किया गया है जिसका परमाण-परससर परकाश महरषि दयाननद ने अपने साहितय में किया है। इन मधयकालीन भाषयकारों ने तो क कलपना की कि वेदों का मखय व कमातर परयोजन केवल यजञों को करने वा कराने में ही हैं। इनका हमारे जीवन के सभी कषेतरों से सीधा कोई समबनध नहीं है। इससे यह निषकरष भी निकाला जा सकता है कि वेद मनषय का धरम गरनथ न होकर क परकार से यजञ, अगनिहोतर या संसकार आदि करमों को करने वा कराने वाला गरनथ ही है, इससे अधिक कछ नहीं। इसके विपरीत जो आरष विदवान महरषि पाणिनी, महाभाषयकार महरषि पतंजलि तथा महरषि यासक आदि ह हैं, उनहोंने वेदों को ईशवर जञान मानने के साथ इस जञान को जीवन के सभी अंगों व कषेतरों पर वयापक रूप से विचार, जञान व विजञान देने वाला सभी विदयाओं का परकाशक गरनथ सवीकार किया है। पौराणिकों, लौकिक वयाकरणाचारयों वं अनारष विदवानों के गरनथों के कारण ही वेद विलपति के कागार पर पहंचे और देश में अनेकानेक अनधविशवास व करीतियां उतपनन हईं थीं। दूसरी ओर महरषि दयाननद अपने गरू परजञाचकष सवामी विरजाननद सरसवती के मारगदरशन वं शिकषण से आरष गरनथों को ढूढने व खोजने में सफल ह। उनहोंने गरूजी की सहायता, मारगदरशन, अपने परूषारथ वं योग की उपलबधियों व सिदधियों का उपयोग वेद के यथारथ रहसय, सतय वेदारथ व संसार के रहसयों को जानने में किया और इसमें वह सफल ह। उनहोंने वैदिक धरम, संसकृति व पराचीन परमपराओं को पनरजीवित करने के लि जहां आरमभ में सतयारथ परकाश आदि गरनथ लिखें वही वेदों के जो अनचित, तरटिपूरण वा अशलील अरथ किये गये थे उनका निराकरण कर सतय वेदारथ को ऋगवेदादिभाषय भूमिका व ऋगवेद आंशिक वं यजरवेंद समपूरण वेदभाषय करके पूरा किया। आज उनका किया हआ यह समसत वेद भाषय वं उनके अनयायी विदवानों के कि ह अनेक वेदभाषय न केवल हिनदी भाषा में ही अपित अंगरेजी भाषा में भी उपलबध हैं। वेदों के सतयारथ का वरतमान में उपलबध होना आरय जनता, देशवासियों वं सारे संसार के लोगों का परम सौभागय है। वेदों की महतता इस कारण से है कि यह धरम के आदि सरोत होने के कारण सतय धरम व सचची आधयातमिकता के गरनथ हैं। इनसे हमें अपने जीवन के सतय लकषय का जञान होने के साथ उसकी परापति के साधनों का जञान भी होता है। संसार के अनय मतों से जीवन के लकषय व उसकी परापति के साधनों का भली परकार से जञान नहीं होता। योग दरशन क सा गरनथ है जो इस विषय में सहायक है वं इसका आधार भी वेद ही है। यदि वेद न होते तो योग दरशन न होता और योग दरशन न होता तो ईशवर की सही विधि से उपासना का जञान संसार में किसी को न हो पाता। वेदों का महतव इस कारण से भी है कि वेद संसार का सबसे पराचीनतम जञान है और यह हमारे आदिकालीन अगनि, वाय, आदितय व अंगिरा ऋषियों को सीधा सरववयापक व सृषटिकतरता से परापत हआ था। वेद सभी सतय विदयाओं के भणडार होने के कारण हमारे सभी के पूरवजों की क परकार से सममिलित थाती व पूंजी है। आज भी सभी बचचे अपने माता-पिता की समपतति के उततराधिकारी बनते ही हैं। इसी परकार से वैदिक जञान का उततराधिकार भी सभी सनतानों व देशवासियों को गरहण करना चाहिये। यदि नहीं करते तो वह पूरवजों की योगय सनताने व सनतति नहीं हैं। अब कछ चरचा पाशचातय वेदों के विदवानों की भी कर लेते हैं।

यह तिहासिक तथय है कि बाबर के आकरमण करने पर भारत मगलों का गलाम हआ। उनहोंने देश के लोगों का शोषण किया, उन पर अतयाचार किये और भारी संखया में धरमानतरण किया तथा हमारे मनदिरों आदि को तोड़ा और उनको मसजिद के रूप में बदला। हमारे तकषशिला व नालनदा सहित देश के पसतकालयों को अगनि के समरपित कर दिया गया। हमें लगता है कि देश में यदि सरदार वललभ भाई पटेल गृहमंतरी व उपपरधान मंतरी न ह होते तो विधवंसित सोमनाथ मनदिर दबारा असतितव में कदापि न आता। भारत माता के इस भकत सरदार पटेल को समरण कर अपनी शरदधांजलि देते हैं। इसके बाद अनेक पीढि़यों के बीत जाने के बाद मगल शासन भी अपनी ही विसंगितों व अतयाचारों आदि के कारण कमजोर हआ तो उनसे अधिक बदधिमान व बलवान अंगरेजों ने अपनी बदधिचातरय से देश को गलाम बनाया। उनहोंने भी अतयाचारों में कहीं कोई कमी नहीं की। इनहोंने भी अनभव किया कि भारत पर सथाई शासन करने के लि भारत के वैदिक धरमी आरय व हिनदओं को ईसाई बनाना सबसे अचछा व निरापद तरीका हो सकता है। परदे के पीछे षडयनतर व योजनायें बनी और छल व कपट से काम लिया गया। इसी योजना का क भाग वेदों का मिथया व अनेक दोषों से पूरण भाषय वा अनवाद करना था जिससे वेद विशवासी भारतीयों को अपने वैदिक धरम से घृणा हो जाये। उनका कारय हमारे सायण व महीधर के वेदों के भाषयों ने कर दिया। अतः उनहें अधिक परिशरम व कठिनाईयों का सामना नहीं करना पड़ा। उनका किया गया वेदों का भाषय क परकार से सायण आदि वाममारगी वेद भाषयकारों के भाषयों का अंगरेजी में अनवाद ही है। उनमें किसी के पास यथारथ वेदभाषय या वेदारथ की योगयता भी नहीं थी। परो. मैकसमूलर जरमनी मूल के अंगेरज विदेशी वेद भाषयकारों वं वेदों पर कारय करने वालों लोगों के अगरणीय परमख वयकति हैं। इतना ही नहीं उनहोंने व उनके विदेशी सहयोगियों ने कालपनिक सिदधानत परसतत कर परचारित किये। जैसे कि वेदों को धरम गरनथ मानने वाले आरय व हिनदू भारत के मूल निवासी नहीं हैं। यह मधय शिया व विशव के किसी अनय सथान पर रहते थे और वहां से भारत आये, यहां के मूल निवासियों जो काले रंग रूप वाले थे, उन पर आकरमण किया, विजय परापत की और उन पर शासन किया। वह अपने इस षडयनतर व मनोरथ में आंशिक रूप से सफल भी ह। आज हम भारत के अनेक सथानों पर जिन ईसाई मतावलमबियों को देखते हैं वह इनहीं षडयनतरों व छल-कपट से धरमानतरण का परिणाम हैं। इसमें कछ व परयापत कारण भारत की गरीबी, अशिकषा, अजञान व अनधविशवास, धारमिक पाखणड, मूरति पूजा, जनम पर आधारित जनमना जाति वयवसथा, छआछत, फलित जयोतिष आदि मखय रूप से रहे हैं। ईशवर की कछ सी दैवीय कृपा भारतवासियों पर रही कि यह दोनों विदेशी आकरानता अपने षडयनतरों में पूरणतः सफल नहीं हो सके। इसी बीच 15 फरवरी, 1825 को भारत में महरषि दयाननद जी का गजरात राजय के राजकोट से लगभग 25 किलोमीटर दूरी पर सथित टंकारा नामक क गराम व कसबे में जनम होता है। शिवरातरि को अनध विशवास की घटना घटती है जिससे मूरतिपूजा से उनहें वैरागय हो जाता है। उसके कछ काल बाद बहिन व चाचाजी की मृतय की घटनाओं से उनहें अपनी मृतय का डर सताता है। वह सतय जञान की खोज वं मृतय पूजा पर विजय पाने के लि घर से भाग जाते हैं और नवमबर, सन 1860 तक देश के विभिनन भागों का भरमण करते ह सचचे योगियों व विदवानों के समपरक में आकर अपनी सभी धारमिक, आधयातमिक व सामाजिक शंकाओं की चरचा कर उनके समाधानों पर विचार करते हैं। इस परयास व परूषारथ में वह क सिदध योगी बनने के साथ संसकृत वयाकरण के अपूरव विदवान और वेदों के भी अपूरव विदवान तथा साकषातकृतधरमा ऋषि भी बन जाते जाते हैं। गरू विरजाननद जी के परामरश व आजञा से वह अपने जीवन का उददेशय सतय का मणडन व असतय का खणडन निरधारित करते हैं। गरू जी से सतय व असतय को जानने की कसौटी उनहें पहले ही परापत हो चकी होती है। अब वह क-क करके मूरतिपूजा, अवतारवाद, फलित जयोतिष, वेदाधिकार, वेद किन-किन गरनथों की संजञा है, छआछूत शासतरीय है वा मनघड़नत अथवा कपोल कलपित है, इस पर वेद आदि शासतरों की आरष दृषटि के आधार पर विचार कर निरणय करते हैंै। उनके अनसंधान के परिणाम के अनसार वेद ईशवरीय जञान सिदध होता है जो सृषटि की आदि में इस संसार को रचने वाली चेतन, आननद से पूरण, सरववयापक, निराकार, सरवजञ, सरवशकतिमान क सतता ईशवर से आविरभूत ह थे। देश-विदेश के सभी धारमिक व सामाजिक संगठनों वं समपरदाय आदि को सतय व असतय का निरणय करने में सहायता करने के लि वह अपने यग का अपूरव करानतिकारी गरनथ सतयारथ परकाश का लेखन व परकाशन करते हैं और सबको सतय व असतय के निरणयारथ शासतरारथ करने की चनौती देते हैं। इस गरनथ में वैदिक मानयताओं व सिदधानतों के अनसार धारमिक जीवन कैसा होता है, इसका उललेख करते हैं और इसके साथ समाज में वयापत सभी पाखणडों का दिगदरशन कराकर उनका खणडन करते हैं। समाज के पवितर जीवन जीने वाले निरभीक बदधिजीवी वयकति उनकी बातों को सनते, समते, उनसे वारतालाप व शंका समाधान आदि करते हैं। बहत से उनकी बातों को सतय सवीकार कर उनके अनयायी बन जाते हैं और उनके दवारा 10 अपरैल, 1875 को सथापित भारत के अपने परकार के परथम धारमिक व करानतिकारी आनदोलन से जड़कर देश का भागय बदलने के लि आगे आते हैं। यह आनदोंलन आंशिक रूप से सफल होता है। उनके दवारा सतयारथ परकाश के माधयम से सन 1875 में की गई परेरणा से ही सवतनतरता वा सवराजय परापति का आनदोलन आरमभ होता है। कालानतर में घारमिक, सामाजिक व राजनैतिक नेताओं की किनही अदूरदरशिताओं से देश का विभाजन व खणडित देश आजाद होता है। उनहोंने अपने समय में देश भर में घूम-घूम कर सतय वैदिक धरम का परचार किया। असतय व पाखणडों तथा अनधविशवासों का खणडन किया। उनके अनयायी ने देशभर में गरूकलों व डीवी कालेजों की सथापना कर समाज का कायाकलप कर दिया। आज के आधनिक भारत में महरषि दयाननद का कारय सपषट दृषटि गोचर होता है। देश की उननति के लि जो कारय उनहोंने किया वह अनय किसी सामाजिक, धारमिक व राजनैतिक वयकति विशेष, परूष या महापरूष ने नहीं किया। वह भारतमाता के सरवोततम व योगयतम पतर सिदध ह।

महरषि दयाननद के वेद भाषय की चरचा हम पहले कर चके हैं। उनका भाषय न केवल महाभारत यदध के बाद का सरवोततम वेद भाषय है अपित हमारा अनमान है कि यह सृषटि की आदि से अब तक का सरवोततम भाषय है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि यह संसकृत के साथ हिनदी में भी किया गया है। हिनदी को राषटर भाषा बनाने में महरषि दयाननद के कारयाें का महतवपूरण योगदान है। उनहोंने अपने जञान व चरम चकषओं से हिनदी के महतव को बहत पहले जान व सम लिया था। सवामीजी ने देश को कषेमचनदर दास तरिवेदी, पं. जयदेव शरमा विदयालंकार, पं. हरिशरण सिदधानतालंकार, पं. आरयमनि, पं. तलसी राम सवामी, पं. विशवनाथ वेदोपाधयाय, आचारय डा. रामनाथ वेदालंकार आदि ऋषि शरेणी के वेदभाषयकार विदवान दिये है

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