सभी पराणियों को ईशवर ने बनाया है। ईशवर सतय चेतन निराकार सरववयापक सरवानतरयामी सरवातिसूकषम नितय अनादि अजनमा, अमर, सरवजञ, सरवशकतिमान है। जीवातमा सतय, चेतन, अलपजञ, कदेशी, आकार रहित, सूकषम, जनम व मरण धरमा करमों को करने वाला व उनके फलों को भोगने वाला आदि सवरूप वाला है। संसार में क तीसरा वं अनतिम पदारथ परकृति है। इसकी दो अवसथायें हैं क कारण परकृति और दूसरी कारय परकृति। कारय परकृति यह हमारी सृषटि वा बरहमाणड है। मूल अरथात कारण परकृति भी सूकषम व जड़ ततव है जिसमें ईशवर व जीवातमा की तरह किसी परकार की संवेदना नहीं होती।

जीवातमायें अननत संखया में हमारे इस बरहमाणड में हैं। इनका सवरूप जनम को धारण करना व मृतय को परापत करना है। मनषय जीवन में यह जिन करमों को करता है उनमें जो करियमाण करम होते हैं उसका फल उसको इसी जनम में मिल जाता है। कछ संचित करम होते हैं जिनका फल भोगना शेष रहता है जो जीवातमा को पनरजनम परापत कर अगले जनम में भोगने होते हैं। करमानसार ही जीवों को मनषय व इतर पश पकषी आदि योनियां परापत होती हैं। मनषय योनि करम व भोग योनि दोनो है तथा इतर सभी पश व पकषी योनियां केवल भोग योनियां है। यह पश पकषी योनियां क परकार से ईशवर की जेल है जिसमें अनचित अधरम अथवा पाप करमों के फलों को भोगा जाता है।

हम सभी सतरी व परूष अतयनत भागयशाली हैं जिनहें ईशवर की कृपा दया तथा हमारे पूरव जनम के संचित करमों अथवा परारबध के अनसार मनषय योनि परापत हई। इसका कारण है कि मनषय योनि सख विशेष से परिपूरण हैं तथा इसमें दख कम हैं जबकि इतर योनियों में सख तो हैं परनत सख विशेष नहीं है और दःख अधिक हैं। वह उननति नहीं कर सकते हैं जिस परकार से मनषय योनि में हआ करती है। हमें मनषय जनम ईशवर से परापत हआ है। यह कयों परापत हआ, इसका या तो हमें जञान नहीं है या हम उसे भूले ह हैं। पहला कारण व उददेशय तो यह है कि हमें पूरव जनमों के अवशिषट करमों अरथात अपने परारबध के अचछे व बरे करमों के फलों के अनरूप सख व दःखों को भोगना है। दूसरा कारण व उददेशय अधिक से अधिक अचछे करम यथा, ईशवर भाकति अरथात उसकी ईशवर की सतति परारथना व उपासना करने के साथ यजञ.अगनिहोतर, सेवा, परोपकार, दान आदि पणय करमों को करना है। इस उददेशय की पूरति के लि हमें अपना जञान भी अधिक से अधिक बढ़ाना होगा अनयथा न तो हम अचछे करम ही कर पायेंगे जिसका कारण हमारा यह जीवन व मृतय के बाद का भावी जीवन भी दःखों से पूरण होगा। जञान की वृदधि केवल आजकल की सकूली शिकषा से समभव नहीं है। यह यथारथ जञान व विदया वेदों व वैदिक साहितय के अधययन से परापत होती हैं जिनमें जहां वेद दरशन, उपनिषद, मनसमृति आदि गरनथ हैं वहीं सरलतम व अपरिहारय गरनथ सतयारथ परकाश, आरयाभिविनय, ऋगवेदादिभाषय भूमिका, वयवहारभान, संसकार विधि आदि भी हैं। इन गरनथों के अधययन से हमें अपने जीवन का वासतविक उददेशय पता चलता है। वह कया है, वह है धरम अरथ काम व मोकष। अनतिम लकषय मोकष है जो विचारणीय है। यह जीवातमा की सी अवसथा है जिसमें जीवन जनम.मरण के चकर से छूट कर मकत हो जाता है। परमातमा के साननिधय में रहता है और 31 नील 10 खरब व 40 अरब वरषों, 311,04,000 मिलियन वरष की अवधि तक सखों व आननद को भोगता है। इसको विसतार से जानने के लि सतयारथ परकाश का अधययन करना चाहिये।

ईशवर ने सृषटि के आरमभ में चार वेदों ऋगवेद, यजरवेद, सामवेद वं अथरववेद का जञान दिया और उसके माधयम से यजञ.अगनिहोतर करने की परेरणा और आजञा दी। ईशवर हमारा माता.पिता, आचारय, राजा व नयायाधीश है। उसकी आजञा का पालन करना हमारा परम करतवय है। हम सब मनषय सतरी व परूष वा गृहसथी यजञ कयों करें इसलि की इससे वाय शदध होती है। शदध वाय में शवांस लेने से हमारा सवासथय अचछा रहता है हम बीमार नहीं पड़ते और असाधय रोगों से बचे रहते हैं। हमारे यजञ करने से जो वाय शदध होती है उसका लाभ सभी पराणियों को होता है। दूसरा लाभ यह भी है कि यजञ करने से आवशयकता व इचछानसार वरषा होती है और हमारी वनसपतियां व ओषधियां पषट व अधिक परभावशाली होकर हमारे जीवन व सवासथय के अनकूल होती हैं। यजञ करने से 3 लाभ यह भी होते हैं कि यजञ में उपसथित विदवानों जो कि देव कहलाते हैं उनका सतकार किया जाता है व उनके अनभव व जञान से परिपूरण उपदेशामृत शरवण करने का अवसर मिलता है। यजञ करना क परकार का उतकृषट दान है।

हम जो पदारथ यजञ में आहत करते हैं और जो दकषिणा परोहित व विदवानों को देते हैं उससे यजञ की परमपरा जारी रहती है जिससे हमें उसका पणय लाभ मिलता है। यजञ में वेद मनतरों का उचचारण होता है जिसमें हमारे जीवन के सखों की परापति धन शवरय की वृदधि, यश व कीरति की परापति, ईशवर आजञा के पालन से पणयों की परापति जिससे परारबध बनता है और जो हमारे पर जनम में लाभ देने के साथ हमारे मोकष रूपी अभीषट व उददेशय की पूरति में सहायक होने के साथ हमें मोकष के निकट ले जाता है। हमारे आदरश मरयादा परूषोततम शरी राम तथा शरी योगेशवर कृषण सहित महरषि दयाननद भी यजञ करते कराते रहे हैं। महरषि दयाननद ने आदि ऋषि व राजा मन का उललेख कर परतयेक गृहसथी के लि परातः सायं ईशवरोपासना.बरहमयजञ.सनधया व दैनिक अगनिहोतर को अनिवारय करतवय बताया है। हम ऋषि.मनियों व विदवान पूरवजों की सनततियां हैं। हमें अपने इन पूरवजों का अनकरण व अनसरण करना है तभी हम उनके योगय उततराधिकारी कहे जा सकते हैं। यह सब लाभ यजञ व अगनिहोतर करने से होते हैं। अनय बातों को छोड़ते ह अपने अनभव के आधार पर हम यह भी कहना चाहते हैं कि यजञ करने से अभीषट की परापति व सिदधि होती है। उदाहरणारथ यदि हम रोग मकति सख परापति व लमबी आय के लि यजञ करते हैं तो हमारे करम व भावना के अनरूप ईशवर से हमें हमारी परारथना व पातरता के अनसार फल मिलता है अरथात हमारी सभी सातविक इचछायें पूरी होती हैं और परारथना से भी कई बार अधिक पदारथों की परापति होती है। इसके लि अधययन व अखणड ईशवर विशवास की आवशयकता है।

मृतयंजय मनतर षतरयमबकं यजामहे सगनधिम पषटिवरधनम। उरवारूकमिव बनधनानमृतयोरमकषीय मामृतात।। में कहा गया है कि हम आतमा और शरीर को बढ़ानेवाले तथा तीनों कालों भूत वरतमान व भविषय के जञाता परमेशवर की परतिदिन अचछी परकार वेद विधि से उपासना करें। जैसे लता से जड़ा हआ खरबूजा पककर सगनधित वं मधर सवाद वाला होकर बेल से सवतः छूट जाता है वैसे ही हे परमेशवर ! हम यशसवी जीवनवाले होकर जनम.मरण के बनधन से छूटकर आपकी कृपा से मोकष को परापत करें। यह मनतर ईशवर ने ही रचा है और हमें इस आशय से परदान किया कि हम ईशवर से इसके दवारा परारथना करें और सवसथ जीवन के आयरवेद आदि गरनथों में दि गये सभी नियमों का पालन करते ह ईशवर सतति.परारथना.उपासना को करके बनधनों से छूट कर मकति को परापत हों। हम शिकषित बनधओं से अनरोध करते हैं कि वह यजञ विजञान को जानकर उससे लाभ उठायें। 

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