सवामी दयाननद को वेदों की उपलबधि कब, कहां व किससे हई
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Manmohan Kumar AryaDate
03-Dec-2014Category
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15-Dec-2014Download PDF
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आरय समाज के संसथापक महरषि दयाननद सरसवती को वेदों की उपलबधि कब, कहां व किससे हई, यह परशन आज à¤à¥€ अनततरित है। हम नः इस विषय में विचार कर रहे हैं। महरषि दयाननद वेदों को ईशवरीय जञान, सब सतय विदयाओं का पसतक, धरम का आदि सरोत वं धरम विषय में परम परमाण मानते थे और वेदों का अधययन, इनका पढ़ना, पढ़ाना, सनना व सनाने को सब मनषयों का परम धरम मानते थे। वसततः यह बात सरवांश में सतय है परनत अति पवितर हृदय वाले धरमातमा व सतय के परेमी तथा धारमिक साहितय के तलनातमक अधयेता व गवेषक ही इसमें निहित रहसय को सम सकते हैं। सवामी जी ने सन 1875 व कछ समय बाद वेदों का संसकृत व हिनदी में à¤à¤¾à¤·à¤¯ करना आरमठकिया था। इसका कारण वेदों के नाम पर सदियों से परचारित व परसारित मिथया मानयताओं का खणडन वं सतय वेदारथ का परकाश करना था। पराचीन वैदिक साहितय वं महाà¤à¤¾à¤°à¤¤à¥‹à¤¤à¤¤à¤° कालीन समसत धारमिक साहितय का तलनातमक अधययन करने पर इस तथय की पषटि होती है कि यथारथ वेदारथ संसार में कहीं उपलबध नहीं था। अतः इस महनीय कारय को उनहोंने परमखता दी और अपने वयसत जीवन में इस कारय को योजनाबदध रूप से करते ह इसके लि सà¤à¥€ सख सविधाओं का तयाग कर अपूरव परूषारथ किया। 30 अकतूबर सन 1883 ई. को मृतय तक वह यजरवेद का à¤à¤¾à¤·à¤¯ पूरण कर चके थे तथा ऋगवेद के मणडल 7 सूकत 61 मनतर 2 तक का à¤à¤¾à¤·à¤¯ कर लिया था। शेष ऋगवेद, सामवेद वं अथरववेद का à¤à¤¾à¤·à¤¯ करना अà¤à¥€ शेष था। मृतय हो जाने के कारण शेष कारय वह पूरण न कर सके परनत उनके अनेक शिषयों ने वेदों पर अनेक à¤à¤¾à¤·à¤¯ लिख कर इस कारय को पूरा किया। चार वेदों को महरषि दयाननद ने यकति, परमाण, तरक, सृषटिकरमानरूप, जञान व विजञान के आधार पर सतय सिदध किया जिससे वह संसार की समसत मानवजाति के लि परम परमाण सिदध ह। यही कारण था कि संसार का उपकार करने के लि उनहोंने वेद की सतय के विरूदध मानयताओं का खणडन किया और वेद विरोधी मत, समपरदायों, धारमिक संगठनों को शासतरारथ व शंका-समाधान करने की चनौती दी और इसके परिणामसवरूप चार वेद ही सरवतर सतय व परमाणिक सिदध ह।
महरषि दयाननद को यह चार वेद मनतर संहितायें कब, कहां व किससे परापत हई थी? इस परशन पर विचार करते हैं। इसके दो समà¤à¤¾à¤µà¤¿à¤¤ उततर हैं, पहला यह कि उनहोंने परो. मैकसमूलर दवारा सन 1856 में परकाशित ऋगवेद à¤à¤¾à¤·à¤¯ व अनय पाशचातय विदवानों दवारा परकाशित इतर वेदों के à¤à¤¾à¤·à¤¯ इंगलैणड से मंगाये थे। उनके उपलबध पतरादि साहितय में इनहें मंगाने का उललेख नहीं मिलता परनत यह महरषि दयाननद के पास सन 1883 में मृतय के समय उपलबध थे वा इनके à¤à¤¾à¤·à¤¯ व लेखों में इन सबका उललेख मिलता है, अतः उनहोंने इनहें अवशय ही इंगलैणड से सवयं या अपने किसी अनयायी के सहयोग से मंगाया होगा, सा अनमान होता है। दूसरी समà¤à¤¾à¤µà¤¨à¤¾ यह है कि उनहोंने अपने गृह तयाग के बाद से ही देश के अनेक à¤à¤¾à¤—ों में जा-जाकर अनेक गरनथों को खोज कर पढ़ा था। इस कारण उनको यह जञान था कि देश के किन-किन सथान के पसतकालयों और वयकति विशेषों के पास कौन-कौन से गरनथ उपलबध हैं। अतः आवशयकता पड़ने पर उनहोंने उन जञात सथानों में जाकर वेदों को परापत किया होगा, सा होना समà¤à¤µ है। सन 1867 से पूरव उनहें चारों वेदों की उपलबध हो चकी थी, सा पं. लेखराम कृत उनके वृहत वं खोजपूरण जीवन चरितर से विदित होता है। हम यहां इससे जड़ी दो घटनायें परसतत करते हैं।
यह घटना सन 1864 की है जिसका शीरषक है वेदों की खोज में धौलपर की ओर परसथान—“क दिन सवामी जी ने पंडित सनदरलाल जी से कहा कि कहीं से वेद की पसतक लानी चाहि। सनदर लाल जी बड़ी-खोज करने के पशचात पंडित चेतोलाल जी और कालिदास जी से कछ पतरे वेद के लाये। सवामीजी ने उन पतरों को देखकर कहा कि यह थोड़े हैं, इनसे कछ काम न निकलेगा। हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे। आगरा में ठहरने की अवसथा में सवामीजी समय-समय पर पतर दवारा अथवा सवयं मिलकर विरजाननद जी से अपने सनदेह निवृत कर लिया करते थे।“ इस विवरण से यह जञात होता है कि उन दिनों सवामीजी के पास लनदन में परकाशित जिनहें किमवदनती के रूप में जरमनी वाले वेद कहा जाता था, नहीं थे। इससे यह à¤à¥€ पता चलता है कि देश में वेदों की उपलबधि थी, उसके सथान के बारे में समà¤à¤µà¤¤à¤ƒ सवामीजी को जञान था, तà¤à¥€ उनहोंने कहा कि हम बाहर जाकर कहीं से मांग लावेंगे।
पं. लेखराम रचित जीवन चरित में सन 1867 की यह दूसरी घटना à¤à¥€ दी गई है। शीरषक है कि “उनहें केवल वेद ही मानय थे-सवामी महाननद सरसवती, जो उस समय दादूपंथ में थे--इस कमठपर (सवामी महाननद) सवामीजी से मिले। उनकी संसकृत की अचछी योगयता है। वह कहते हैं कि सवामी जी ने उस समय रूदराकष की माला, जिसमें क-क बिललौर या सफटिक का दाना पड़ा हआ था, पहनी हई थी परनत धारमिक रूप में नहीं। हमने वेदों के दरशन, वहां सवामी जी के पास किये, उससे पहले वेद नहीं देखे थे। हम बहत परसनन ह कि आप वेद का अरथ जानते हैं। उस समय सवामीजी वेदों के अतिरिकत किसी को (सवतः परमाण) न मानते थे।“ इस परमाण से यह सपषट है कि सन 1867 व उससे पहले से सवामी जी के पास वेद उपलबध थे। हम यह à¤à¥€ बताना चाहते हैं कि सवामी महाननद सरसवती देहरादून में रहते थे। सवामी दयाननद जी से मिलने के बाद उनहोंने देहरादून सथिति अपने “महाननद आशरम” को “महाननद आशरम अरथात आरय समाज” का नाम दिया था। हम इसी आरय समाज के सदसय रहे हैं। आज यह आरय समाज धामावाला, देहरादून के नाम से विदयमान है। अब यह कहना कठिन है कि सवामी महाननद जी ने सवामी दयाननद जी के पास जो वेद देखे वह वसतत चारों वेद थे अथवा कछ कम थे। यह इंगलैणड में परो. मैकसमूलर व अनयों दवारा परकाशित थे या à¤à¤¾à¤°à¤¤ में उपलबघ हसत-लिखित थे। जो à¤à¥€ हो सवामी जी के पास सन 1867 में वेद थे और वह चारों वेद थे, यही अनमान कर सकते हैं। यदि यह वेद हसत-लिखित थे, जो कि इस आधार पर समà¤à¤µ है कयोंकि सवामी जी ने धौलपर में सनदरलाल जी को कहा था कि हम बाहर जाकर मांग लायेंगे। यह देश में परापत वेद कौन-कौन से कहां व किससे कब परापत ह, इसका विवरण अजञात है।
2 नवमबर, 2014 को हरिदवार में वेदों के सपरसिदध विदवान वेदमूरति आचारय रामनाथ वेदालंकार की जनमशती समारोह मनाया गया। इस अवसर पर “शरति-मनथन” नाम से क समृति गरनथ का लोकारपण à¤à¥€ हआ। इस गरनथ में हमारे परशनों से मिलते-जलते कछ परशनों को लेकर आचारय रामनाथ वेदालंकार का डा. à¤à¤µà¤¨à¥€à¤²à¤¾à¤² à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ तथा पं. यधिषठिर मीमांसक से पतराचार दिया गया है। डा. à¤à¤µà¤¾à¤¨à¥€à¤²à¤¾à¤² à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ दवारा आचारय रामनाथ वेदालंकार को उनके पतर के उततर में दिनांक 10-9-1987 को परेषित पतर में कहा गया है कि “सवामी दयाननद दवारा à¤à¤¾à¤°à¤¤ में जरमनी से वेद मंगाने की बात क किंवदनती या परवाद मातर है। सवामी जी के कारय कषेतर में उतरने से पूरव परो. मैकसमूलर ने आकसफोरड (इंगलैणड) से ऋगवेद संहिता तथा उसके सायण à¤à¤¾à¤·à¤¯ का समपादन व परकाशन किया था। इसके लिये उसे ईसट इणडिया कमपनी से आरथिक सहायता मिली थी। 1856 का छपा यह संसकरण सवामीजी के निजी पसतक संगरह में था और आज à¤à¥€ अजमेर (परोपकारिणी सà¤à¤¾ दवारा संचालित वैदिक पसतकालय में) उपलबध है। इसे ही सवामीजी ने इंगलैणड से मंगाया होगा। कयोंकि मैकसमूलर जरमन था और उसी ने उकत संसकरण का समपादन किया, अतः यह परवाद परचलित हो गया कि सवामीजी ने वेद जरमनी से मंगाये थे। चारों वेद सवामीजी ने विदेश से नहीं मंगाये। यजरवेद और सामवेद तो उनहें à¤à¤¾à¤°à¤¤ में ही मिल गये होंगे। अरथववेद का क अमेरिका में परकाशित संसकरण सवामीजी को उनके गजराती à¤à¤•à¤¤ मथरादास लवजी ने à¤à¥‡à¤‚ट किया था। (अमेरिका में अथरववेद परकाशित हआ यह हमने इस पतराचार से पहली बार जाना है) यह पसतक à¤à¥€ परोपकारिणी सà¤à¤¾ के संगरह में है। सवामीजी ने किसी मूल संहिता को अपने जीवनकाल में मदरित नहीं कराया। यह कथन पूरणतया गलत है कि उनहोंने चारों वेद à¤à¤¾à¤°à¤¤ में बाहर से मंगा कर मदरित कराये। वैदिक यनतरालय से चारों संहितां छपी हैं, किनत यह सवामी जी के निधन के बाद में छपीं।“ डा. à¤à¤µà¤¾à¤¨à¥€à¤²à¤¾à¤² à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ के इस कथन कि चारों वेद सवामीजी ने विदेश से नहीं मंगाये (केवल परो. मैकसमूलर दवारा परकाशित ऋगवेद ही मंगाया), यजरवेद और सामवेद तो उनहें à¤à¤¾à¤°à¤¤ में ही मिल गये होंगे, हमें लगता है कि डा. à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ के शोधारथी वं शोधारथियों के निदेशक रहने के कारण उनका कथन सतय की कोटि में आता है।
डा. à¤à¤µà¤¾à¤¨à¥€à¤²à¤¾à¤² à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯ ने उकत जानकारी देने के साथ डा. रामनाथ वेदालंकार जी को शेष जानकारी वेद और आरय साहितय के परसिदध गवेषक पं. यधिषठिर मीमांसक जी से परापत करने का परामरश दिया। पं. यधिषठिर मीमांसक जी ने आचारय रामनाथ वेदालंकार जी को 2 अकतूबर, 1987 लिखा—“अजमेर से चारों वेद संवत 1955 और 1956 (सन 1899 व 2000) के आसपास छपे हैं। उससे पहले पं. गरूदतत जी ने चारों वेद विरजाननद परेस लाहौर से छपवाये थे (संवत 1948 वा सन 1892 ई. में ऋगवेद व शेष वेद समà¤à¤µà¤¤à¤ƒ उसके बाद)। ..... अथरववेद के समबनध में जहां तक मेरी समृति है (यह संसकरण हमारे पास अरथात पं. मीमांसक जी के पास नहीं है) शंकर पांडरंग दवारा छपवाये गये सायण à¤à¤¾à¤·à¤¯ के आधार पर मनतर पाठछपा है। .... अजमेर की ऋग और यजरवेद संहितां निशचय ही पं. गरूदतत जी के संसकरणों पर आधृत हैं। ... जहा तक यह परवाद है कि ऋषि दयाननद ने चारों वेद
Om, sanskrit learning k liye contact kha kerna hoga...